काम करने की दुनिया बदल रही है। इसे समझने की ज़रूरत है। अब लड़ाई इस बात की है कि आप किस हद तक कम से कम वेतन पर काम कर सकते हैं? लोग कर भी रहे हैं। अख़बारों में मोटी सैलरी की नौकरी की ख़बरें भी छपती हैं। आई आई टी और आई टी सेक्टर के बारे में छपते रहता है कि ख़ूब सैलरी मिल रही है। इस सेक्टर की सच्चाई क्या है, इसका पर्याप्त डेटा नहीं है मगर यही एक सेक्टर तो नहीं है। आज के भारत में युवा के पास दो विकल्प हैं। वह स्थायी या अस्थायी हो, कम वेतन की नौकरी चुन ले या काम की उम्मीद छोड़ दें।
ऑनिंद्यो बता रहे हैं कि क्यों सांप्रदायिक संघर्ष ठेले पर सब्ज़ी और पंचर बनाने की दुकान तक पहुँच गया है? पर घबराना नहीं हैं, वेतन न भी मिले तो काम करना है। अब तो इंटर्नशिप का एक धंधा चला है। किसी कंपनी में बिना वेतन के कुछ महीने छोटे-मोटे कामों के लिए लोगों को रखने का तरीक़ा बन गया है।इंटर्नशिप करने वाला एक उम्मीद पालता है कि कुछ तो होगा।
सीवी ठीक होगी। कुछ महीने वह इसी तरह मुफ़्त काम करता है। फिर उसके बाद कुछ साल तक न्यूनतम वेतन से कम या बराबर की सैलरी पर काम करता है। फिर उसके बाद हिन्दू मुस्लिम करने लगता है तब जाकर उसे लगता है कि हाँ वह कुछ काम कर रहा है। जब कंपनी के लिए फ़्री में काम कर सकता है तब धर्म के लिए फ़्री में क्यों नहीं काम कर सकता है? भारत के युवाओं जैसी चेतना दुनिया में कहीं नहीं होगी।