रवीश का लेखः जिस समाज में महंगाई के सपोर्टर हो सकते हैं, उस समाज में पैरवी के सपोर्टर क्यों नहीं होंगे?

यह रिपोर्ट साझा तो कर रहा हूँ लेकिन इसका असर उल्टा होने वाला है। मेरे साझा करने का मक़सद है कि आप सचेत हो जाएँ। पाठक सचेत होगा मगर दूसरी तरह से। उसे भी नौकरी की जुगाड़ का एक रास्ता मिल जाएगा, जो इस रिपोर्ट में दिखाया गया है। वह भी नौकरी के लिए आर एस एस में भर्ती होने लगेगा और उनके पक्ष में दो चार ट्विट कर देगा।हिन्दू राष्ट्र या हिन्दू गौरव पर कुछ भाषण दे देगा। बहुत कम लोग होंगे जो इस बात से दुखी होंगे कि राष्ट्र कोई सा भी हो, व्यवस्था सबके लिए समान होनी चाहिए। भारत में संघर्ष दूसरा है। यहाँ संघर्ष इस बात को लेकर है कि व्यवस्था सबके लिए हो या न हो, अपने लिए ज़रूर हो।

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नौकरी का योग्यता और आदर्श से कोई संबंध नहीं होता है। इसे स्थापित करने के लिए कोई मिथकीय कथा ज़रूर होगी। बकने वाले बक देंगे कि राष्ट्र के महती प्रयोजन के लिए आदर्शों से समझौता किया जा सकता है। पुण्य के लिए भी पाप करना होता है। लोग कहेंगे, हाँ, हाँ,वाह,वाह। क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ?बेरोज़गार आदर्श नहीं देखता। नौकरी देखता है। यह नौकरी किसी तरह मिल जाए। किसी का हक़ मार कर मिल जाए, बस मिल जाए।

इसलिए मेरा डर वाजिब है कि इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद पत्रकार बनने और पत्रकारिता का शिक्षक बनने के लिए नैतिक भारत के युवा आर एस एस में भर्ती होंगे या संघ से संबंध निकाल लेंगे। संघ तो नैतिक काम ही करता है। वह तो स्वर्ण युग की स्थापना में लगा है। क्या सही में जनसंचार संस्थान में लोग संघ के सहारे भर्ती हो गए? लगता है संघ में जो कांग्रेस आए हैं, वो यह सब कर रहे हैं। सच्चा संघी तो त्यागी होता है। पैरवीगामी नहीं होता।बड़े अफ़सरों के बेरोज़गार बेटों को निराश होने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें भी वही करना चाहिए, जिसके ज़रिए कुछ भाई लोग शिक्षक बन गए हैं।

इसलिए मेरा मानना है कि न्यूज़लौंड्री की स्टोरी से सिफ़ारिश करने वालों का उत्साह बढ़ेगा। उन्हें आइडिया मिलेगा।

अब दूसरा संकट यह है कि अगर बसंत कुमार की रिपोर्ट को शेयर न करूँ तो यह उनके साथ अन्याय होगा। एक पत्रकार बता तो रहा है कि जिस संस्थान में कथित रुप से पत्रकारिता के आदर्श गढ़े जाते हैं, वहाँ क्या हो रहा है।मेरा कहना है कि शिक्षक बनने की नैतिकता का कक्षा में शिक्षक होने की नैतिकता से कोई संबंध नहीं है। पैरवी की नैतिकता अलग होती है। पैरवी धर्मसम्मत है।इसे पढ़ते ही मूर्ख हो चुका आई टी सेल मुझसे ख़ुश हो जाएगा।मैं इनदिनों को ग़लत को सही कहने का तरीक़ा खोज रहा हूँ। समझे जी।

जिस समाज में महंगाई के सपोर्टर हो सकते हैं, उस समाज में पैरवी के सपोर्टर क्यों नहीं होंगे? इस अवसर का लाभ उठाने में आगे रहने वाले आरक्षण का विरोध करते हैं। करेंगे ही क्योंकि उन्हीं को सारा अवसर चाहिए। ले लीजिए। मिल ही गई है सबको नौकरी। सैलरी भी आ ही रही होगी।

(लेखक जाने माने पत्रकार हैं, यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है)