यूपी के नौजवानों के लिए खुशखबरी। उनके मन मुताबिक़ चुनाव का टोन सेट हो रहा है। क्या वाक़ई जनता अब इसी तरह से राजनीति को समझती है कि नेता धर्म और मंदिर का नाम लेंगे उसे बिना सवाल जवाब के स्वीकार कर लेगी ? इतने दम ख़म से रोज़गार और अस्पताल को लेकर क्यों नहीं बोलते? योगी सरकार तेज़ी से मानदेय बढ़ा रही है, भत्ते बढ़ा रही है तो फिर इन मुद्दों में क्या ख़राबी है? क्या यह मान लिया गया है कि यूपी की जनता का यही स्तर है कि कौन हिन्दू है और कौन एक्सीडेंटल हिन्दू है? क्या उसे नहीं लगता कि इन भाषणों से उसके विवेक पर हमला हो रहा है?
इस चुनावी सीज़न में हिन्दुस्तान, जागरण और भास्कर में ख़बरों को कैसे छापा जा रहा है, इसे देखना आपका काम है।मैं इन दिनों अमर उजाला पढ़ रहा हूँ। इस अख़बार के लिए विपक्ष तो कोई चीज़ ही नहीं है।कई दिनों से देख रहा हूँ कि अमर उजाला भाजपा की हर रैली और बयान को मोटे अक्षरों और ज़्यादा जगह में छाप रहा है।जबकि सपा नेता अखिलेश यादव की रैली को छोटे अक्षरों और छोटी जगह में छापा जाता है। रैली की मुख्य बातें ग़ायब होती हैं। अमर उजाला में मैंने शायद ही देखा हो कि विपक्ष को जगह मिलती हो। नाम के लिए कुछ छाप दिया जाता है। तस्वीरें छोटी होती हैं। सपा की खबरों में केवल अखिलेश की होती है और वो भी मामूली सी लेकिन योगी मोदी और शाह के अलावा बीजेपी के हर दूसरे नेता को कवर किया जा रहा है। उनकी एक ही बात को रोज़ हेडलाइन बनाई जा रही है। उसमें नया कुछ नहीं है फिर भी रैली दर रैली राम मंदिर और हिन्दू हिन्दू की हेडलाइन बनाई जा रही है। ऐसा लगता है कि आदेश मिला हो कि योगी मोदी या शाह कुछ भी बोलें राम मंदिर और हिन्दू हिन्दू की हेडलाइन बनानी है।
विपक्ष के नेता कार्यकर्ता और समर्थक से मेरा एक सवाल है। क्या वे अपनी जेब से दो रुपये देकर लोकतंत्र की हत्या कर रहे? जबकि उनकी ख़बरें बराबरी से नहीं होती हैं तो इन अख़बारों को क्यों ख़रीदते हैं ? क्या वे भी लोकतंत्र की हत्या में शामिल हैं ? विपक्षी दलों को हर दिन अख़बारों की समीक्षा करनी चाहिए और रैली में जनता के बीच अख़बारों को लेकर दिखाना चाहिए कि कैसे छापा जा रहा है। विपक्ष को पहले मीडिया से लड़ना होगा। टीवी और अख़बारों से लड़ना होगा।
इस लड़ाई का एक लोकतांत्रिक तरीक़ा यह हो सकता है कि विपक्ष जनता के बीच अख़बार फाड़ो आंदोलन चलाए। वैसे भी अख़बार ख़रीदने के बाद कूड़े में बेचा जाता है तो क्यों न उसे रैलियों में लाया जाए, जनता के बीच बताया जाए कि ये चुनावी कवरेज का पेज है। इसमें केवल भाजपा ही भाजपा है। विपक्ष नाम का ही है या नहीं है और फिर उस अख़बार की कापी वही मंच पर फाड़ी जाए। इससे जनता चुनावी सीज़न में अख़बारों को लेकर जागरुक होगी। उसे ख़बरों में फ़र्क़ करना आएगा। अख़बार फाड़ो आंदोलन ही अख़बारों को बदलेगा। ऐसा कर विपक्ष अख़बारों की भी मदद करेगा। वे इस वक़्त सत्ता से डरे हुए हैं और उसके विज्ञापन के पैसे के आगे झुके हुए हैं। कम से कम जनता का दबाव बढ़ेगा तो अख़बारों को बहाना मिलेगा कि विपक्ष को भी छापना पड़ रहा है।