सुप्रीम कोर्ट के पास कमेटी के चारों सदस्य के नाम कहां से आए, आम जनता के पास यह जानने का कोई रास्ता नहीं लेकिन कमेटी के सदस्यों का नाम आते ही आम जनता ने तुरंत जान लिया कि कमेटी के चारों सदस्य कृषि कानूनों का समर्थन करते हैं। सरकार की लाइन पर ही बोलते रहे हैं। सिर्फ ऐसे लोगों की बनी कमेटी कृषि कानूनों के बारे में क्या राय देगी अब किसी को संदेह नहीं है। जिस तरह से इनके नाम और पुराने बयान साझा किए जा रहे हैं उससे ये कमेटी वजूद में आने के साथ ही विवादित होती जा रही है। सवाल उठता है कि कोर्ट ने ऐसी कमेटी क्यों बनाई जो सिर्फ सरकार की राय का प्रतिनिधित्व करती हो, दूसरे मतों का नहीं?
कोर्ट को इस बात का संज्ञान लेना चाहिए कि नाम आते ही मीडिया और सोशल मीडिया में जिस तरह से इनके नामों को लेकर चर्चा की आग फैली है उसकी आंच अदालत की साख़ तक भी पहुंचती है।अदालत एक संवेदनशील ईकाई होती है। अदालत से यह चूक ग़ैर इरादतन भी हो सकती है। तभी उससे उम्मीद की जाती है कि वह इस कमेटी को भंग कर दे और नए सदस्यों के ज़रिए संतुलन पैदा करे। अदालत यह कह सकती है जैसा कि कई मौकों पर इस बहस के दौरान कहा भी है कि हम सुप्रीम कोर्ट हैं और धरती की कोई ताकत़ कमेटी बनाने से नहीं रोक सकती है फिर भी अदालत को याद दिलाने की ज़रूरत नही है कि उसके गलियारें में ही यह बात सैंकड़ों मर्तबा कही जा चुकी है कि इंसाफ़ होना ही नहीं चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए।
अगर कोर्ट का इरादा कमेटी के ज़रिए इंसाफ़ करना था तो कमेटी उसके इरादे को विवादित बनाती है। यह कमेटी न तो निष्पक्षता के पैमाने पर खरी उतरती है और न संतुलन के। सब एक मत के हैं। अगर कोर्ट ने अपने स्तर पर इन चारों का चुनाव किया है तो इसे मानवीय चूक समझ कोर्ट से उम्मीद की जानी चाहिए कि कोर्ट कमेटी को भंग कर नए सदस्यों का चुनाव करे। अगर यह नाम किसी भी स्तर से सरकार की तरफ से आए हैं तो कोर्ट को सख़्त होना चाहिए और पूछना चाहिए कि क्या इन चारों का नाम देकर उसके साथ छल किया गया है? आखिर यह बात आम जनता से ज़्यादा अदालत को चुभनी चाहिए कि एक मत के चारों नाम कैसे आ गए? सुनवाई के दौरान अदालत कई बार कह चुकी है कि उसकी बनाई कमेटी को मौका मिलना चाहिए क्योंकि वह निष्पक्ष होगी। क्या एक मत वाले चारों सदस्य कमेटी को निष्पक्ष और विश्वसनीय बनाते हैं?
अगर अदालत इस कमेटी को भंग नहीं करती है तो क्या नैतिकता के आधार पर कमेटी के सदस्यों से उम्मीद की जा सकती है कि वे ख़ुद को कमेटी से अलग कर लें? क्या अशोक गुलाटी से उम्मीद की जा सकती है कि वे अदालत से कहें कि उनका नाम हटा दिया जाए क्योंकि उनके रहने से कमेटी में असंतुलन पैदा हो रहा है। वे अदालत की गरिमा की ख़ातिर नैतिकता के आधार पर इस कमेटी से अलग होना चाहते हैं। उनकी जगह ऐसे किसी को रखा जाए जो इस कानून को लेकर अलग राय रखता हो। अगर अशोक गुलाटी में यह नैतिक साहस नही है तो क्या डॉ प्रमोद जोशी से ऐसा करने की उम्मीद की जा सकती है? अगर अशोक गुलाटी और डॉ प्रमोद जोशी में नैतिक साहस नहीं है तब क्या भूपेंद्र सिंह से ऐसी उम्मीद की जा सकती है? अगर अशोक गुलाटी, डॉ प्रमोद जोशी और भूपिंदर सिंह मान में नैतिक साहस नहीं है तब अनिल घनावत को आगे आना चाहिए और कहना चाहिए माननीय अदालत की गरिमा से बड़ा कुछ भी नहीं है, चूंकि इस कमेटी में हम सभी एक ही मत के हैं इसलिए मैं अपना नाम वापस लेता हूं ताकि सुप्रीम कोर्ट किसी दूसरे मत के व्यक्ति को जगह दे सके।
नैतिकता दुर्लभ चीज़ होती है। हर किसी में नहीं होती है। इसलिए अदालत से ही उम्मीद की जानी चाहिए कि वह अपनी बनाई कमेटी को भंग कर दे। नए सिरे से उसका गठन करे। तब भी कमेटी की भूमिका और नतीजे को लेकर सवाल उठते रहेंगे मगर वो सवाल दूसरे होंगे। इस तरह के नहीं कि सरकार के लोगों को ही लेकर कमेटी बनानी थी तो सरकार को क्यों अलग कर दिया और कमेटी बनाई ही क्यों? इन चारों से तो अच्छा था कि किसी एक ही रख दिया जाता या फिर सरकार को ही कमेटी घोषित कर दिया जाता।
अदालत चाहे तो नई कमेटी बना सकती है या फिर इसी कमेटी में कुछ नए नाम जोड़ सकती है। आज जब वकील हरीश साल्वे ने कहा कि कोर्ट यह स्पष्ट कर सकता है कि यह किसी की जीत नहीं है तब कोर्ट ने कहा कि यह निष्पक्ष खेल के लिए जीत ही है। अगर कोर्ट अपनी कमेटी को निष्पक्षता की जीत मानता है तो कमेटी के सदस्य उसकी जीत को संदेह के दायरे में ला देते हैं। उम्मीद है अदालत सदस्यों के चुनाव में हुई चूक में सुधार करेगी। इस कमेटी को भंग कर देगी। इन चार नामों ने मामले को और विवादित कर दिया है। एक सामान्य नागरिक के तौर पर अदालत की बनाई कमेटी का इस तरह से मज़ाक उड़ना दुखी करता है। यह सामान्य आलोचना नहीं है। इसका ठोस आधार भी है।