रवीश की सलाह: चुनाव आयोग भी ट्रैफ़िक पुलिस की तरह शराब पकड़ने की मशीन का इस्तेमाल करे

मतदान की कतार में खड़े लोग मतदाता ही हैं। उनकी दूसरी पहचान नहीं है। उम्मीद की जाती है कि तमाम मुद्दों, अच्छे बुरों के बारे में फ़ैसला कर मतदान करने आए होंगे। क्या कतार में खड़े सारे लोग मतदाता ही हैं? जो किसी उम्मीदवार या दल से पैसा और शराब लेकर आया है वो उस दल का किरायेदार है या मतदाता है? उसने तो अपना मत बेच ही दिया है।

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हर चुनाव में मतदान की एक रात पहले सुनने लगता हूं कि यहां पैसा बंट रहा है। वहां शराब बंट रही है।दशकों से यह सुनते आ रहा हूं। कई उम्मीदवारों ने बताया कि लोग मांगने आते हैं। पैसा दो। देना पड़ता है। शराब मांगते हैं। पंजाब के बारे में कई लोगों ने लिखा कि सब बांट रहे हैं। पैसा और शराब बांट कर ही नतीजे लाने हैं तो फिर चुनाव में क्या हो रहा है, कौन जीत रहा है, इसे लेकर टाइम क्यों ख़राब करना।

चुनाव के दौरान शराब और पैसा ज़ब्त करने की ख़बरें आती रहती हैं लेकिन अब ये सब भी रूटीन हो चुका है। इसके बाद भी पैसा और शराब पहुंचाने के हज़ार रास्ते खुल चुके हैं और अफवाहों और सुनने के दौरान इनके बंटने का किस्सा बदस्तूर जारी है। चुनाव आयोग को चाहिए कि मतदान के दिए जो भी वोट करने आए उसकी चांज करें जिस तरह से ट्रैफिक पुलिस करती है। जिस तरह से कोरोना के दौर में हुए चुनावों में आसानी से हर केंद्र पर बुखार नापने की मशीन पहुंचा दी गई है उसी तरह से शराब की जांच करने की मशीन पहुंचाई जा सकती है।

इस व्यवस्था को चरणों में लागू करना चाहिए। सबसे पहले जो लोग मतदान की लाइन में एक सीमित मात्रा से ज़्यादा शराब पी कर आए हैं उन्हें मतदान केंद्र के नज़दीक तीन चार घंटे तक बिठा दे। जब उनका नशा उतर जाए तब मतदान करने की अनुमति दे। लेकिन मतदान केंद्र पर आने वाले हर मतदाता की जांच करे कि शराब पी है या नहीं। ऐसे मतदाता का सामाजिक और आर्थिक आधार पर वर्गीकरण करे। मतदान के बाद डेटा जारी करे कि आज साठ प्रतिशत लोगों ने मत डाले जिसमें से तीन से चार प्रतिशत लोग शराब पी कर आए थे। यह काम चुनाव आयोग क्यों नहीं कर सकता है?

क्या चुनाव आयोग को यह सब दिखना बंद हो गया है?

अमर उजाला की आज की हेडलाइन है। आज यूपी में तीसरे चरण का मतदान हो रहा है। क्या आपको इसमें आपत्तिजनक लगता है? पत्रकारिता में अब पत्रकारिता का कोई पैमाना नहीं बचा है इसलिए इस हद तक या उस हद तक लिखने का मतलब नहीं है। इस हेडलाइन से लग रहा है कि एक जाति के विरोध में हवा बनाई जा रही है। क्या इसके सहारे परोक्ष ज़रूर सपा को टार्गेट नहीं किया जा रहा? क्या मतदाता को बीजेपी के पक्ष में अलर्ट किया जा रहा है? इस हेडलाइन से ध्रुवीकरण किया जा रहा है? क़ायदे से चुनाव आयोग को ध्यान देना चाहिए या विपक्ष को भी।

( लेखक जाने-माने पत्रकार हैं यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है)