रवीश का लेख: अब कोई दूसरा कमाल ख़ान नहीं होगा

उन्होंने केवल पत्रकारिता की नुमाइंदगी नहीं की, पत्रकारिता के भीतर संवेदना और भाषा की नुमाइंदगी नहीं की, बल्कि अपनी रिपोर्ट के ज़रिए अपने शहर लखनऊ और अपने मुल्क हिन्दुस्तान की भी नुमाइंदगी की. कमाल का मतलब पुराना लखनऊ भी था जिस लखनऊ को धर्म के नाम पर चली नफ़रत की आंधी ने बदल दिया. वहां के हुक्मरान की भाषा बदल गई. संवैधानिक पदों पर बैठे लोग किसी को ठोंक देने या गोली से परलोक पहुंचा देने की ज़ुबान बोलने लगे. उस दौर में भी कमाल ख़ान उस इमामबाड़े की तरह टिके रहे, जिसके बिना लखनऊ की सरज़मीं का चेहरा अधूरा हो जाता है.

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उस लखनऊ से अलग कर कमाल ख़ान को नहीं समझ सकते. कमाल ख़ान जैसा पत्रकार केवल काम से जाना गया लेकिन आज के लखनऊ में उनकी पहचान मज़हब से जोड़ी गई. सरकार के भीतर बैठे कमज़ोर नीयत के लोगों ने उनसे दूरी बनाई.कमाल ने इस बात की तकलीफ़ को लखनऊ की अदब की तरह संभाल लिया. दिखाया कम और जताया भी कम. सौ बातों के बीच एक लाइन में कह देते थे कि आप तो जानते हैं. मैं पूछूंगा तो कहेंगे कि मुसलमान है. एक पत्रकार को उसके मज़हब की पहचान में धकेलने की कोशिशों के बीच वह पत्रकार ख़ुद को जनता की तरफ धकेलता रहा. उनकी हर रिपोर्ट इस बात का गवाह है.


यही कमाल ख़ान का हासिल है कि आज उन्हें याद करते वक्त आम दर्शक भी उनके काम को याद कर रहे हैं. ऐसे वक्त में याद करना कितना रस्मी हो जाता है लेकिन लोग जिस तरह से कमाल ख़ान के काम को याद कर रहे हैं, उनके अलग-अलग पीस टू कैमरा और रिपोर्ट के लिंक साझा कर रहे हैं, इससे पता चलता है कि कमाल ख़ान ने अपने दर्शकों को भी कितना कुछ दिया है. मैं ट्विटर पर देख रहा था. उनकी अनगिनत रिपोर्ट के हिस्से साझा हो रहे थे. यही कमाल ख़ान का होना है. यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है जो लोग उनके काम को साझा करने के साथ दे रहे हैं.


उस काम को करते हुए हमने एक कमाल ख़ान को देखा और सुना है. जिसे जानना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि पता चले कि कमाल ख़ान अहमद फराज़ और हबीब जालिब के शेर सुन कर नहीं बन जाता है. दो मिनट की रिपोर्ट लिखने के लिए भी वो दिन भर सोचा करते थे. दिनभर पढ़ा करते थे और लिखा करते थे. उनके साथ काम करने वाले जानते थे कि कमाल भाई ऐसे ही काम करते हैं. यह कितनी अच्छी बात है कि कोई अपने काम को इस आदर और लगन के साथ निभाता है.

अयोध्या पर उनकी कई सैकड़ों रिपोर्ट को अगर एक साथ एक जगह पर रखकर देखेंगे तो पता चलेगा कि पूरे उत्तर प्रदेश में कमाल ख़ान के पास एक अलग अयोध्या था. वो उस अयोध्या को लेकर गर्व के नाम पर नफरत की आग में बदहवास देश से कितनी सरलता से बात कर सकते थे. उसके भीतर उबल रही नफ़रत की आग ठंडी कर देते थे. वे तुलसी के रामायण को भी डूबकर पढ़ते थे और गीता को भी. कहीं से एक-दो लाइनें चुराकर अपनी रिपोर्ट में जान डाल देने वाले पत्रकार नहीं थे. उन्हें पता था कि यूपी का समाज धर्म में डूबा हुआ है. उसके इस भोलेपन को सियासत गरम आंधी में बदल देती है. उस समाज से बात करने के लिए कमाल ने न जाने कितनी धार्मिक किताबों का गहन अध्ययन किया होगा. इसलिए जब कमाल ख़ान बोलते थे तो सुनने वाला भी ठहर जाता था. सुनता था.

सभार एनडीटीवी