दिल्ली विश्व विद्यालय में अब प्रवेश परीक्षा होगी। जिस तरह से लोगों ने इसका स्वागत किया है या चुप रहकर उदासीनता दिखाई हैं दोनों ही अभूतपूर्व है। उदासीन लोगों को भी स्वागत में ही गिना जाना चाहिए। एक झटके में इतने बड़े बदलाव को स्वीकार करना आसान नहीं होता है। इसके बाद CBSE के नतीजों में नंबरों की क्या प्रासंगिकता रह गई है। हर नंबर अब ज़ीरो के समान है। बेहतर है CBSE इस बार से ही नंबर देने का सिस्टम बंद कर दे और सबको केवल पास करे। बाक़ी बोर्ड को भी यही करना चाहिए।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने प्रवेश परीक्षा के सिस्टम का विरोध किया है लेकिन अख़बार में ख़बर छपने से ज़्यादा किसी ने इस विरोध को गंभीरता से नहीं लिया है।
हमने तो दिल्ली में ही CBSE की परीक्षा को लेकर पचीस तीस साल से तमाशा देखा है। परीक्षा के शुरू होने पर मीडिया में इस तरह से कवरेज होता था जैसे बारहवीं के छात्र जंग जीतने जा रहे हों। नतीजे आने पर इस तरह कवरेज होता था जैसे कुछ हो गया है। लड़कियाँ लड़कों से जीत गई हैं। सौ प्रतिशत अंक लाने वाले इतने प्रतिशत हैं और 99 प्रतिशत अंक लाने वाले इतने प्रतिशत हैं। इस प्रदर्शन के आस-पास स्कूलों की प्रतिष्ठा बनी और फ़ीस का बाज़ार बना। हैरानी की बात है कि एक झटके में समाज ने इस नए बदलाव को स्वीकार कर लिया है। मुझे लगता है कि अगर CBSE इस बार केवल पास का रिज़ल्ट निकाले तो उसे भी समाज स्वीकार कर लेगा। आख़िर यह बदलाव CBSE के नतीजों को देखते हुए भी किया होगा तो उसकी परीक्षा प्रणाली को लेकर भी कुछ बदलाव तो होने ही चाहिए।
मुझे एक दो मैसेज ज़रूर आए कि इस पर लिखा जाए, यह ठीक नहीं है लेकिन हर चीज़ पर मुझी को विद्वान होना हो यह ज़रूरी नहीं है। कुछ प्रतिक्रिया समाज की तरफ़ से भी आनी चाहिए। नंबर किसी काम का नहीं रहा। 12 वीं के छात्रों को जान देकर पढ़ने की ज़रूरत नहीं रही वैसे भी स्कूल के आगे पढ़ने के लिए इस देश में कितनी बेहतरीन जगहें बची हैं आप मुझसे बेहतर जानते हैं।CBSE के कुछ टॉपर बिहार के मगध यूनिवर्सिटी में भी एडमिशन ले सकते हैं। तीन साल का बीए तीन साल में भी नहीं होगा लेकिन प्राचीन मगध के नाम से गर्व भी होगा।मगध यूनिवर्सिटी के छात्र रोज़ ही लिखते रहते हैं कि 2018 में एडमिशन लिया था लेकिन अभी तक बीए नहीं हुआ है।
आज एक ख़बर देखी कि मंदिर के बाहर तरबूज़ बेच रहे मुस्लिम दुकानदार को मारा गया है और उसका तरबूज़ फेंक दिया गया है। ऐसी उदारता के प्रदर्शन से भारत के युवाओं को जो मानसिक सुख मिल रहा होगा उसके सामने वे दस साल भी बीए की कक्षा में रहें तो उन्हें कोई दिक़्क़त नहीं है। भारत के युवाओं को इस तरह की घटनाओं के मीम मिलने चाहिए ताकि मानसिक सुख का नशा बना रहे। समय समय पर गोदी और सोशल मीडिया के ज़रिए इतिहास का विषय लाँच होता रहता है, उसी से देश ख़ुद को साक्षर कर रहा है। आनंद लीजिए। मानसिक सुख आर्थिक सुख और दुख से बड़ा होता है। पढ़ाई लिखाई को लेकर ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।
(लेखक जाने माने पत्रकार हैं, यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है)