गोदी मीडिया और आई टी सेल मिलकर जनता का लगातार मूर्खीकरण कर रहे हैं। इस प्रक्रिया के तहत जनता थोड़े से प्रयास में मूर्ख बनती है। वह अपने विवेक से सोचना बंद कर देती है। हाल के दिनों के विवाद इस बात को प्रमाणित करते है कि जनता के मूर्खीकरण का काम अंजाम पर पहुँच गया है।
जब इतिहास बोध ध्वस्त होता है, बात-बात में आस्था का सवाल बन जाता है, तब आप इस तरह के सवाल की परवाह नहीं करते कि अकबर के नाम से सड़क है और उनके सेनापति मानसिंह के नाम से सड़क होने पर कोई आपत्ति नहीं है? क्या हम अकबर के दरबार से जुड़े हर व्यक्ति को ग़द्दार घोषित करने वाले हैं? उनके नाम मिटाने वाले हैं? इस तरह की बहसों में जनता के बीच तर्क की जगह सिमटती जाती है।
जब वह इतिहास के बारे में ठीक से सोचने लायक़ नहीं बची है तब गर्मी और महंगाई के बारे में कैसे समझ लेगी। इसलिए सोशल मीडिया में महंगाई को लेकर कम चित्कारता है। उन्हीं के बीच है जो बीजेपी विरोधी हैं, बाक़ी लोगों ने ख़ुद को महंगाई से समायोजित कर लिया है। जबकि इस बार गर्मी के कारण भी कमाई घट रही है। अनाज के दाने सूख गए हैं। किसानों लागत की भरपाई नहीं कर सकेंगे। महंगाई की मार ऊपर से झलते रहेंगे।
समझना होगा न्यूज़ चैनल्स का खेल
महंगाई तीस साल में अधिकतम स्तर पर है। थोक मूल्य सूचकांक का यह आँकड़ा बता रहा है कि लोग तेज़ी से ग़रीब होते जा रहे हैं। अमर उजाला ने तीस साल में सबसे अधिक लिखा है। किसी और जगह पर पचीस साल में सब अधिक लिखा है। बहुत फ़र्क़ नहीं है। बात है कि इस महंगाई ने आपको कंगाल करना शुरू कर दिया है।
अभी भी आप न्यूज़ चैनलों का खेल नहीं समझ रहे हैं । इसका मतलब है कि एक दर्शक के रूप में आपके पास विवेक और स्वाभिमान दोनों नहीं बचे हैं। आपको कुछ भी परोसा जाता है, आप वही देखते हैं। कई साल निकल गए, इन बातों को कहते हुए। उम्मीद ही कर सकते हैं कि आप कभी तो सोचेंगे।
तनाव में पत्रकारिता
पत्रकारिता के सभी संस्थानों को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। बहुत से पत्रकार इस हाल में हैं।उनके तनाव को समझने की ज़रूरत है। वरिष्ठ और कनिष्ठ के बीच किस तरह से बातचीत होती हैं, क्या दोनों खुल कर अपनी बात कह पाते हैं?कहीं कोई एक दूसरे को बेवजह भयभीत तो नहीं कर रहा, कहीं कोई ख़ुद से ज़्यादा सोच तो नहीं रहा, जिसके कारण तनाव और बढ़ जाता हो? कई बार अपनी बात नहीं कह पाने के कारण भी तनाव बढ़ता है। कई तरह के कारण हो सकते हैं। हम सभी को ऐसे हालात के प्रति जागरूक होने की ज़रूरत है। अफ़सोस कि इन वजहों से किसी साथी के साथ ऐसा हुआ। इस विषय पर बहुत काम करने की ज़रूरत है।
अगर तनाव का कारण पैसा है तो शायद इस पेशे में इसका समाधान नहीं है। जिन लोगों को अच्छी सैलरी मिलती है, उनकी संख्या कम है। आज भी ज़्यादातर पत्रकार काफ़ी कम पैसे पर काम करते हैं। उन्हें यह ख़ूबी मान्यताओं से मिली है कि आज ख़राब है मगर कभी न कभी तो अच्छा होगा। कुछ के साथ ऐसा हो जाता है मगर, बहुतों के साथ ऐसा नहीं होता है। इसलिए इस पेशे को ठीक से समझने की ज़रूरत है और इसे भी कि इसके भीतर आपकी जगह कैसी होगी।