पश्चिम बंगाल में चुनाव नजदीक हैं। भाजपा ने बंगाल के नायकों को अपना बताने की कवायद शुरू कर दी है। जहां तक भाजपा की विचारधारा का प्रश्न है, बंगाल के केवल एक नेता, श्यामाप्रसाद मुकर्जी, इस पार्टी के अपने हैं। वे भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ के संस्थापक थे। बंगाल के जिन अन्य नेताओं ने भारत के राष्ट्रीय मूल्यों को गढ़ा और हमारी सोच को प्रभावित किया, उनमें स्वामी विवेकानंद, रबीन्द्रनाथ टैगोर और सुभाषचन्द्र बोस शामिल हैं। स्वामी विवेकानंद जातिप्रथा के कड़े विरोधी थे और हमारे देश से गरीबी का उन्मूलन करने के मजबूत पक्षधर थे। वे दरिद्र को ही नारायण (ईश्वर) मानते थे। उनके लिए निर्धनों की सेवा, ईश्वर की आराधना के समतुल्य थी।
नेताजी प्रतिबद्ध समाजवादी थे और हिन्दू राष्ट्रवाद उनको कतई रास नहीं आता था। इसके बावजूद भाजपा उन्हें अपना सिद्ध करने में लगी है। गुरूदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर महान मानवतावादी थे और भयमुक्त समाज के निर्माण के पक्षधर थे। इसके बाद भी भाजपा जैसी साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद की पैरोकार पार्टी उन्हें अपनी विचारधारा का समर्थक बताने पर तुली हुई है। पार्टी ऐसा जताना चाहती है मानो गुरूदेव कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादी थे।
नरेन्द्र मोदी ने कहा कि टैगोर स्वराज के हामी थे। आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत का दावा है कि टैगोर ने हिन्दुत्व की परिकल्पना का विकास किया था। यह विडंबना ही है कि जिस राजनैतिक संगठन ने स्वाधीनता संग्राम में हिस्सेदारी ही नहीं की और ना ही भारत के एक राष्ट्र के रूप में विकास की प्रक्रिया में कोई योगदान दिया, वह स्वराज की बात कर रही है। टैगोर प्रतिबद्ध मानवतावादी थे। उनकी सोच मे सम्प्रदायवाद के लिए कोई जगह नहीं थी। मानवता उनके विचारों का केन्द्रीय तत्व थी। उन्होंने लिखा है कि भारत के मूल निवासियों ने पहले आर्यों और उसके बाद मुसलमानों के साथ मिलजुलकर रहना सीखा। इसके विपरीत, हिन्दू राष्ट्रवादी दावा करते आए हैं कि आर्य इस देश के मूलनिवासी थे। और वह इसलिए ताकि इस देश को एक धर्म विशेष की भूमि बताया जा सके। वे मुसलमानों को विदेशी और आक्रांता बताते हैं।
अपने उपन्यास ‘गोरा’ में गुरूदेव ने परोक्ष रूप से कट्टर हिन्दू धर्म की कड़ी आलोचना की है। उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र गोरा का हिन्दू धर्म, आज के हिन्दुत्व से काफी मिलता-जुलता है। उपन्यास के अंत में उसे पता चलता है कि वह युद्ध में मारे गए एक अंग्रेज दंपत्ति का पुत्र है और उसका लालन-पालन एक हिन्दू स्त्री आनंदमोई ने किया है। वह अवाक रह जाता है।
आज हमारे देश की राजनीति में जो कुछ हम देख रहे हैं वह टैगोर की प्रसिद्ध और दिल को छू लेने वाली कविता “जहां मन है निर्भय और मस्तक है ऊँचा, जहां ज्ञान है मुक्त” से बिल्कुल ही मेल नहीं खाता। इस सरकार के पिछले छःह सालों के राज में सच बोलने वाला भयातुर रहने को मजबूर है। जो लोग आदिवासियों के अधिकारों की बात करते हैं उन्हें शहरी नक्सल कहा जाता है। जो लोग किसी धर्म विशेष के अनुयायियों पर अत्याचारों का विरोध करते हैं उन्हें टुकड़े-टुकड़े गैंग बताया जाता है। अपनी इस कविता में टैगोर ‘विवेक की निर्मल सरिता’ की बात करते हैं। कहां है वह सरिता? आज की सरकार ने तो अपने सभी आलोचकों को राष्ट्रद्रोही बताने का व्रत ले लिया है।
हमारे वर्तमान शासक आक्रामक राष्ट्रवाद के हामी हैं। वे ‘घर में घुसकर मारने’ की बात करते हैं। इसके विपरीत, टैगोर युद्ध की निरर्थकता के बारे में आश्वस्त थे। ऐसे राष्ट्रवाद में उनकी कोई श्रद्धा नहीं थी जो कमजोर देशों को शक्तिशाली देशों का उपनिवेश बनाता है और जिससे प्रेरित हो शक्तिशाली राष्ट्र अपनी सैन्य शक्ति का प्रयोग अपने देश की सीमाओं का विस्तार करने के लिए करते हैं। जिस समय पूरी दुनिया प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने की आशंका से भयभीत थी उस समय टैगोर की ‘गीतांजलि’ ने ब्रिटिश कवियों पर गहरा प्रभाव डाला था। विलफ्रेड ओन व कई अन्य ब्रिटिश कवि, ‘गीतांजलि’ मे निहित आध्यात्मिक मानवतावाद से बहुत प्रभावित थे। टैगोर का आध्यात्मिक मानवतावाद, राष्ट्र की बजाए समाज की भलाई और स्वतंत्रता की बात करता है।
मोदी और शाह टैगोर की शान में जो कसीदे काढ़ रहे हैं उसका एकमात्र लक्ष्य बंगाल में होने वाले चुनावों में वोट हासिल करना है। वैचारिक स्तर पर वे टैगोर के घोर विरोधी हैं। आरएसएस से संबद्ध शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, जिसके अध्यक्ष दीनानाथ बत्रा थे, ने यह सिफारिश की थी कि एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में से टैगोर से संबंधित सामग्री हटा दी जाए।
टैगोर द्वारा लिखित हमारे राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ को भी संघ पसंद नहीं करता। उसकी पसंद बंकिमचन्द्र चटर्जी लिखित ‘वंदे मातरम’ है। संघ के नेता समय-समय पर यह कहते रहे हैं कि टैगोर ने ‘जन गण मन’ ब्रिटेन के सम्राट जार्ज पंचम की शान में उस समय लिखा था जब वे भारत की यात्रा पर आए थे। भाजपा के वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह ने यह आरोप लगाया था कि जन गण मन में ‘अधिनायक’ शब्द का प्रयोग जार्ज पंचम के लिए किया गया था। यह इस तथ्य के बावजूद कि टैगोर ने अपने जीवनकाल में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि अधिनायक शब्द से उनका आशय उस शक्ति से है जो सदियों से भारत भूमि की नियति को आकार देती रही है। नोबेल पुरस्कार विजेता महान कवि के स्पष्ट खंडन के बाद भी संघ और उसके संगी-साथी यह कहने से बाज नहीं आते कि टैगोर ने ब्रिटिश सम्राट की चाटुकारिता करने के लिए यह गीत लिखा था। और इसलिए वे जन गण मन की बात नहीं करते। ‘इस देश में रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा’ उनका नारा है।
हमारा राष्ट्रगान देश की विविधता और समावेशिता का अति सुंदर वर्णन करता है। परंतु हमारे वर्तमान शासकों के विचारधारात्मक पितामहों को विविधता और बहुवाद पसंद नहीं हैं। वे तो देश को एकसार बनाना चाहते हैं। संघ परिवार यह भी कहता रहा है कि नेहरू ने मुसलमानों को खुश करने के लिए जन गण मन को राष्ट्रगान के रूप में चुना। जिस समिति ने इस गीत को राष्ट्रगान का दर्जा देने का निर्णय लिया था वह इसमें वर्णित देश के बहुवादी चरित्र से प्रभावित थी। यह गीत भारतीय इतिहास की टैगोर और अन्य नेताओं की इस समझ से भी मेल खाता है कि भारत के निर्माण में देश के मूल निवासियों, आर्यों और मुसलमानों – तीनों का योगदान रहा है।
भाजपा और उसके साथी वंदे मातरम को प्राथमिकता इसलिए देना चाहते हैं क्योंकि वह हमारे मन में एक हिन्दू देवी की छवि उकेरता है। मुसलमानों का कहना है कि वे अल्लाह के अलावा किसी के सामने अपना सिर नहीं झुका सकते। इस बात को भी ध्यान रखते हुए जन गण मन को राष्ट्रगान के रूप में चुना गया और वंदेमातरम् के पहले अंतरे को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया।
गुरूदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर साधु प्रवृत्ति के व्यक्ति थे जिनका आध्यात्म, मानवतावाद से जुड़ा हुआ था ना कि किसी संकीर्ण साम्प्रदायिक सोच से। उनका राष्ट्रवाद ब्रिटिश अधिनायकवाद का विरोधी था और स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय के मूल्यों में आस्था रखता था।
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया, लेखक आई. आई. टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)