राम पुनियानी का लेखः नेताजी पर कब्ज़ा ज़माने की हिन्दू राष्ट्रवादी कवायद

Ram Puniyani

नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती (23 जनवरी) के अवसर पर देश भर में अनेक आयोजन हुए। राष्ट्रपति ने राष्ट्रपति भवन में उनके तैल चित्र का अनावरण किया। केंद्र सरकार ने घोषणा की कि नेताजी का जन्मदिन हर वर्ष ‘पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाया जायेगा। रेलमंत्री ने कहा कि हावड़ा-कालका मेल को अब नेताजी एक्सप्रेस कहा जायेगा। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने इस दिन को ‘देशप्रेम दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा की।

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सोशल मीडिया और मुंहजबानी प्रचार के ज़रिये भाजपा और उसके संगी-साथी इस झूठ को फैला रहे हैं कि कांग्रेस ने नेताजी को सम्मान नहीं दिया और यह भी नेताजी हिंदुत्व के हामी थे। यह सारा घटनाक्रम पश्चिम बंगाल में होने जा रहे विधानसभा चुनावों की पृष्ठभूमि में हो रहा है। भाजपा किसी भी हाल में यह चुनाव जीतना चाहती है। सुभाष बोस उन कई राष्ट्र नायकों में से एक हैं जिन्हें भाजपा अपना घोषित करना चाहती है। नेताजी एक राष्ट्रीय नायक हैं और बंगाल में उन्हें अत्यंत श्रद्धा से याद किया जाता है। भाजपा ने इसके पहले कभी नेताजी को इतनी शिद्दत से याद नहीं किया।

 

इस सत्य को छुपाया जा रहा है कि नेताजी आज की भाजपा की विचारधारा के धुर विरोधी थे और यह जताने का प्रयास किया जा रहा है कि विचारधारा के स्तर पर वे वर्तमान शासक दल के काफी नज़दीक थे। नेताजी समाजवाद, प्रजातंत्र और सांप्रदायिक एकता के हामी थे। भारत में जो पार्टी अभी सत्ता है वह हिन्दू राष्ट्र की पैरोकार है, विघटनकारी राजनीति में विश्वास रखती है और प्रजातंत्र और प्रजातान्त्रिक संस्थाओं को कमज़ोर कर रही है।

 

निसंदेह नेताजी के कांग्रेस से मतभेद थे। परन्तु वे केवल स्वाधीनता हासिल करने के साधनों, उसके तरीकों तक सीमित थे। वे दो बार कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने राष्ट्रव्यापी ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ शुरू किया। बोस का मानना था कि अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर करने का सबसे अच्छा तरीका होगा जर्मनी और जापान से हाथ मिलाना क्योंकि ये दोनों देश ब्रिटेन के शत्रु थे। इस मामले में नेहरु और पटेल सहित कांग्रेस की केंद्रीय समिति के अधिकांश सदस्य गाँधीजी के साथ थे और सुभाष बोस के प्रस्ताव से असहमत थे।

 

परन्तु यह केवल रणनीतिक मतभेद थे। कांग्रेस और बोस दोनों भारत को स्वाधीन देखना चाहते थे। इसके विपरीत, हिन्दू महासभा और आरएसएस युद्ध में अंग्रेजों की सहायता करना चाहते थे। हिन्दू महासभा के सावरकर ब्रिटिश सेना को मजबूती देने के लिए उसमें अधिक से अधिक संख्या में भारतीयों के भर्ती होने के पक्षधर थे। इसके विपरीत, बोस ने सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज (इंडियन नेशनल आर्मी या आईएनए) बनाई। वे कांग्रेस और गाँधी-नेहरु के प्रशंसक बने रहे। यह इस तथ्य से साबित होता है कि उन्होंने महात्मा गाँधी को ‘राष्ट्रपिता’ के नाम से संबोधित करते हुए पत्र लिखकर आईएनए की सफलता के लिए उनसे आशीर्वाद माँगा। आईएनए की दो ब्रिगेडों के नाम गाँधी और नेहरु के नाम पर रखे गए।

 

जहाँ हिन्दू महासभा और आरएसएस समाजवाद की परिकल्पना और राज्य-प्रायोजित जनकल्याण कार्यक्रमों के विरोधी रहे हैं वहीं बोस पक्के समाजवादी थे। कांग्रेस में वे नेहरु और अन्य समाजवादियों के साथ थे, जो यह चाहते थे कि समाजवादी आदर्शों को राष्ट्रीय आन्दोलन का हिस्सा बनाया जाए। कांग्रेस छोड़ने के पश्चात, उन्होंने फॉरवर्ड ब्लाक का गठन किया, जो कि एक समाजवादी राजनैतिक दल था और उस वाम गठबंधन का हिस्सा था जिसने कई दशकों तक पश्चिम बंगाल पर राज किया।

 

कांग्रेस भी आईएनए को अपना शत्रु नहीं मानती थी। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जब आईएनए के अधिकारियों पर मुक़दमे चलाये गए तब भूलाभाई देसाई जैसे वकीलों और जवाहरलाल नेहरु जैसे कांग्रेस नेताओं ने आईएनए के पक्ष में मुकदमा लड़ा। जवाहरलाल नेहरु ने पहली बार वकीलों का गाउन सिर्फ इसलिए पहना ताकि वे आईएनए के वीर सिपाहियों का बचाव कर सकें।

 

यह महत्वपूर्ण है कि उस समय श्यामाप्रसाद मुख़र्जी, बंगाल की मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की मिलीजुली सरकार में शामिल थे। जब ब्रिटिश सरकार भारत छोड़ो आन्दोलन का दमन कर रही थे उस समय मुख़र्जी ने ब्रिटिश हुकूमत से यह वायदा किया कि वे बंगाल में भारत छोड़ो आन्दोलन से निपट लेंगे। इसी दौरान, हिन्दू महासभा के सावरकर ब्रिटिश सेना को मज़बूत बनाने में जुटे हुए थे और आरएसएस के मुखिया गोलवलकर ने एक परिपत्र जारी कर अपने स्वयंसेवकों को निर्देश दिया था कि वे अपनी सामान्य गतिविधियाँ करते रहें और ऐसा कुछ भी न करें जिससे अंग्रेज़ नाराज़ हों।

 

हिन्दू महासभा-आरएसएस का लक्ष्य और सपना है हिन्दू राष्ट्र। राष्ट्रवाद और हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बोस की सोच के बारे में बहुत लोग नहीं जानते। बोस ने लिखा था, “मुसलमानों के आने के साथ देश में धीरे-धीरे एक नयी साँझा संस्कृति का विकास हुआ। यद्यपि मुसलमानों ने हिन्दुओं का धर्म स्वीकार नहीं किया तथापि उन्होंने भारत को अपना देश बना लिया और यहाँ के सामाजिक जीवन में घुलमिल गए। वे यहाँ के लोगों के दुख-सुख में भागीदार बन गए। दोनों धर्मों के लोगों के मिलन से एक नयी कला और एक नयी संस्कृति का विकास हुआ…”। उन्होंने यह भी लिखा, “भारतीय मुसलमान, देश की आज़ादी के लिए काम करते रहे हैं”। अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए उन्होंने एक ऐसे नए राज्य की परिकल्पना की जिसमें “व्यक्तियों और समूहों की धार्मिक और संस्कृति स्वतंत्रता की गारंटी होगी और जिसका कोई राष्ट्रीय धर्म न होगा।” (‘फ्री इंडिया एंड हर प्रॉब्लम्स’ से)।

 

आरएसएस के चिन्तक लगातार यह दावा करते रहे हैं कि आर्य इस देश के मूल निवासी थे और यहीं से वे पश्चिम एशिया और यूरोप के देशों में गए। इसके विपरीत, बोस लिखते हैं, “ताज़ा पुरातात्विक प्रमाणों से….बिना किसी संदेह के यह साबित हो गया है कि भारत पर आर्यों के आक्रमण के बहुत पहले, 3,000 ईसा पूर्व में ही, यह देश एक अत्यंत विकसित सभ्यता बन गया था।” मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता की उनकी प्रशंसा निश्चित रूप से भारतीय संस्कृति की हिन्दू-आर्य जड़ों की कल्पना का वैज्ञानिक और तार्किक खंडन है।

 

हिन्दू राष्ट्रवादी लम्बे समय से विवेकानंद, सरदार पटेल आदि जैसे राष्ट्रीय नायकों को अपना जता कर स्वीकार्यता हासिल करने के प्रयास करते रहे हैं। अब जब कि पश्चिम बंगाल में चुनाव नज़दीक हैं, वे स्वाधीनता संग्राम के एक ऐसे शीर्ष नेता पर कब्ज़ा ज़माने की कोशिश कर रहे हैं जिसकी विचारधारा, हिन्दू राष्ट्रवादियों की विचारधारा के एकदम खिलाफ थी। नेताजी एक सच्चे समाजवादी थे और हिन्दू-मुस्लिम एकता के मज़बूत पक्षधर थे। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया जब कि हिन्दू राष्ट्रवादियों ने अंग्रेजों का साथ दिया। जिस गाँधी को बोस राष्ट्रपिता कहते थे, उस गाँधी का हिन्दू राष्ट्रवादियों ने क़त्ल किया।

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)