शकील अख्तर
सिद्धु ने ग्राउन्ड शाट मारने का एक्शन नहीं किया। मिड आन पर विजयी। छक्का मारने का अंदाज दिखाया। यह वास्तव में उनकी जीत नहीं कांग्रेस नेतृत्व की धमक का इजहार था। राजनीति कैसे बदलती है यह शुक्रवार को सबने चंडीगढ़ में और फिर रविवार को जयपुर में देखा। कांग्रेस में अब राहुल गांधी को हल्के में लेने के दिन गए। राहुल का असर बाहर तो दिख रहा था। मोदी सरकार और भाजपा का मुख्य निशाना वे ही थे। मगर कांग्रेसी उन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।
मगर हवा बदल गई। चंडीगढ़ के मैदान में कैप्टन अधिकारविहीन विवश बैठा था और हाई कमान का आशीर्वाद प्राप्त बैट्समेन अपने मनचाहे शाट खेल रहा था। यह मैसेज देश भर में गया। यह लाउड मैसेज (ऐलान) किस के लिए था? कांग्रेस के क्षत्रपों के लिए। जो मुख्यमंत्री बनने के बाद खुद को राज्य कांग्रेस का मालिक समझने लगते हैं। जयपुर में इसका फौरन असर दिखा। राहुल के दो विश्वासपात्र महासचिव के सी वेणुगोपाल और अजय माकन के जयपुर पहुंचते ही वहां गाड़ी एक मिनट में पटरी पर आ गई। यह पार्टी का इकबाल है। राहुल अब इसको समझने लगे हैं कि राजनीति में उदारता और शराफत एक हद तक ही चलती है उसके बाद आपको अपनी ताकत दिखाना पड़ती है।
सिद्धु ने अपने भाषण में कैप्टन का नाम भी नहीं लिया। और कल तक सिद्धु से मिलने से भी इनकार कर रहे कैप्टन यह बताने पर मजबूर हुए कि उन्हें राजनीति में सिद्धु के पिताजी लेकर आए थे। यह परिवर्तन कैसे आया? हाईकमान के दुविधा से निकलने के बाद। जब विधायकों को स्पष्ट संकेत मिला कि पंजाब में नया नेता सिद्धु है तो उन्होंने पाला बदलने में एक मिनट भी नहीं लिया।
नए युग की शुरुआत
कांग्रेस में यह नए युग की शुरूआत है। पिछले 22- 23 साल से कांग्रेस में सोनिया गांधी का शराफत वाला शासन चल रहा था। जहां हर नेता यह समझता था कि वह कुछ भी करे उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकती। अभी हाल में उनकी बीमारी, अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान उन 23 कांग्रेस नेताओं (जी 23) ने उन्हें एक गुट बनाकर शिकायती पत्र लिखा जो यूपीए के दस साल के शासनकाल में सबसे मलाईदार मंत्रालयों के मंत्री रहे। यह हद थी। मगर सोनिया ने उनके खिलाफ कार्रवाई करने के बदले उन्हें बुलाकर उनसे बात की। पद दिए। विभिन्न समितियों में एडजस्ट किया। लेकिन नतीजा क्या निकला? उत्तर प्रदेश में जहां प्रियंका गांधी खुद एक मुश्किल लड़ाई में कूद पड़ी हैं, वहां के नेता, जी 23 वाले जितिन प्रसाद सीधे भाजपा में चले गए।
तो ऐसे में जब कांग्रेस के क्षत्रप सोनिया, प्रियंका और राहुल को ही सीधे चैलेंज कर रहे हों तो कांग्रेस के पास दो ही रास्ते बचते थे। या तो वह क्षत्रपों के सामने समर्पण कर दे या अपनी ताकत दिखा दे। कांग्रेस ने दूसरा रास्ता चुना। और यही राजनीति का रास्ता है। दरअसल कांग्रेस में हो क्या रहा था, यह हमने पिछले दिनों एक ट्वीट (थ्रेड) में कहा था। वह ट्वीट वायरल हो गया। शायद कांग्रेस की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितयों के कारण। उसमें कहा था कि “किसी भी राज्य में कोई क्षत्रप अपने दम पर नहीं जीतता है। गांधी नेहरू परिवार के नाम पर ही गरीब, कमजोर वर्ग, आम आदमी का वोट मिलता है। मगर चाहे वह अमरिन्द्र सिंह हों या गहलोत या पहले शीला या कोई और मुख्यमंत्री बनते ही यह समझ लेते। हैं कि उनकी वजह से ही पार्टी जीती। 20 साल से ज्यादा अध्यक्ष रहीं सोनिया ने कभी अपना महत्व नहीं जताया। नतीजा यह हुआ कि वे वोट लाती थीं और कांग्रेसी अपना चमत्कार समझकर गैर जवाबदेही से काम करते थे। सिद्धु को बनाकर नेतृत्व ने सही किया। ताकत बताना जरूरी था।“
इन दो ट्वीटों के थ्रेड पर हमें गालियां भी मिलीं और कांग्रेस के महासचिव राजस्थान के इन्चार्ज अजय माकन द्वारा इसे रिट्वीट कर देने से राजनीतिक हंगामा भी हो गया। लोग अपने अपने आशय भी लगाने लगे। मगर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को यह अच्छा लगा। जो प्रतिक्रियाएं आईं वे बता रही थीं कि वर्कर पार्टी नेतृत्व को मजबूत देखना चाहता है। और खुद के लिए काम करने के मौके चाहता है। राजस्थान में गहलोत ने आधा समय निकाल दिया। मगर अभी तक बोर्ड और कारपोरेशनों में नियुक्तियां नहीं कीं। मंत्रिमंडल में भी 9 जगह खाली हैं और अकेले मुख्यमंत्री गहलोत 35 विभाग देख रहे हैं। जो वास्तव में ब्युरोक्रेट चला रहे हैं। कांग्रेस हाईकमान कई बार अफसरशाही पर लगाम लगाने, नए मंत्री बनाने और बोर्ड, कारपोरेशन में कार्यकर्ताओं को नियुक्तियां देने की बात कह कहकर थक चुका था। पिछली बार भी चार साल तक गहलोत ने नियुक्तियां नहीं की थीं। नतीजा कार्यकर्ता दुखी रहे और कांग्रेस हार गई। यह संयोग नहीं है कि 1998 से अब तक तीन बार सोनिया ने गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया। और तीनों बार कार्यकर्ताओं की बेकद्री हुई और कांग्रेस रिपीट नहीं कर पाई।
पंजाब में भी यही हुआ। 2002 में सोनिया गांधी ने अमरिन्द्र सिंह को पहली बार मुख्यमंत्री बनाया था। 2007 में कांग्रेस हारी और उसके बाद अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल दस साल मुख्यमंत्री रहे। 1952 के बाद शुरू में कई सालों तक वहां कांग्रेस का ही शासन रहा। मगर 1977 में केन्द्र में कांग्रेस के हारने के बाद राज्यों में भी परिवर्तन हुआ। और पंजाब में अकाली दल के बादल बने। उसके बाद से वहां हर पांच साल में सरकार बदलती रही। मगर 2007 में अमरिन्द्र के बाद दस साल बादल का शासन रहा। पंजाब के कांग्रेसी विधायकों की चिन्ता का मुख्य कारण यह था।
अमरिन्द्र के ख़िलाफ माहौल
अमरिन्द्र पटियाला महारज की अपनी ठसक में कार्यकर्ता और विधायकों को ही नहीं कांग्रेस के बड़े बड़े नेताओं को नजरअंदाज करते थे। पहले कार्यकाल में उनकी जो शिकायत थी कि वे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नजदीकी लोगों की भी बात नहीं सुनते, वह इस बार भी जारी रही। तो हाईकमान के नजदीकी लोगों से लेकर विधायकों, कार्यकर्ताओं की नाराजगी के बाद भी अगर कांग्रेस अमरिन्द्र को उनकी सही जगह नहीं दिखाती तो उसका अस्तित्व और कमजोर हो जाता। पार्टी को अपनी अथारटी दिखाना जरूरी था। और यह फिर सबने देखा कि जैसे ही हाईकमान ने अपना इकबाल दिखाया विधायक किस तरह अमरिन्द्र को छोड़कर भागे।
आज कांग्रेस जितनी कमजोर है उतनी कभी नहीं रही। पार्टी इससे ज्यादा कमजोर और क्या होगी? ऐसे में भी अगर कांग्रेस नेतृत्व डर कर काम करता रहा तो राज्यों में जड़ें जमाए बैठे क्षत्रप उसकी क्यों सुनेंगे? पंजाब में हिम्मत भरी पहल की यही वजह है। सोनिया ने सबकी सुनी। 2004 में सत्ता लाकर कांग्रेसियों को सौंप दी। मगर वे सत्ता सुख में ऐसे मगन हुए कि 2012 में एक नकली आंदोलन का भी मुकाबला नहीं कर सके।
आज जिन परिस्थितियों का मुकाबला प्रधानमंत्री मोदी कर रहे हैं। उस समय तो इसकी सौवीं क्या हजारवीं स्थिति भी नहीं थी। एक कठपुतली अन्ना हजारे के जरिए संघ ने दिल्ली और केन्द्र की सरकार बदलवा दी। केन्द्र का कोई कांग्रेसी मंत्री, महाराष्ट्र का कांग्रेसी मुख्यमंत्री कुछ नहीं कर सका। आज जासूसी, रफेल, कोरोना में चिकित्सा सुविधा न दे पाना, गंगा में लाशें, वैक्सीन की कमी, मीडिया पर छापे, महंगाई, गिरती अर्थ व्यवस्था, चीन की दादागिरी, किसान आंदोलन पचास वास्तविक कारण हैं मगर क्या मजाल कि बीजेपी में से कोई ऐसा हो जो सरकार के साथ खड़ा न हो। यहां तक कि जिन मंत्रियों को अभी मंत्रिमंडल से निकाल दिया वे भी सरकार के समर्थन में जोर शोर से खड़े हैं। दूसरी तरफ 2012 से 14 तक कांग्रेस के नेता अन्ना और रामदेव को महात्मा और संत बताते थे। उनके समर्थन में तर्क देते हुए कहते थे, इनकी बात सुनी जाना चाहिए। सच तो यह है कि कांग्रेस के अधिकांश नेताओं ने 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले ही हथियार डाल दिए थे। दक्षिण में चिदम्बरम ने और उत्तर में मनीष तिवारी ने चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान करके कांग्रेस कार्यकर्ताओं का बचा खुचा मनोबल भी तोड़ दिया था।
कांग्रेस के दो ही आधार हैं। एक शक्तिशाली हाईकमान, दो उसकी डायरेक्ट जनता में अपील। अगर हाई कमान ताकतवर होता है तो कार्यकर्ता उसका मैसेज जनता तक पहुचाने में सफल होता है। लेकिन जब वह दुविधा में होता है तो कार्यकर्ता भी हतोत्साहित हो जाता है। राहुल ने अब शायद इस बात को अच्छी तरह समझ लिया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्वेषक हैं)