मुशायरों की दुनिया के बेताज बादशाह राहत इंदौरी का बीते मंगलवार को निधन हो गया। वे 70 वर्ष के थे. इंदौर के अरबिंदो अस्पताल में भर्ती राहत इंदौरी ने मंगलवार को शाम पांच बजे आख़िरी सांस ली, उन्हें इंदौर में ही सुपुर्द ए खाक किया गया. राहत इंदौरी ने अपनी शायरी के द्वारा अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। अगर इंक़लाब, मौहब्बत, इनकार, बग़ावत जैसी शायरी सुननी हो तो फिर आप एक ही शख्स का चयन कर सकते हैं, और उस शख्स का नाम डॉक्टर राहत इंदौरी. उनका एक शेर हर उस मौके पर पढ़ा जाता रहा जब जब भारत की सियासत ने विपक्ष की आवाजों को ‘पाकिस्तान भेजने’ की बात कहीं तब तब राहत इंदौरी का शेर पढ़ा गया कि –
सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है।
ऐसे तेवर सिर्फ राहत इंदौरी की शायरी में ही देखने को मिल सकते हैं, उनका जन्म एक जनवरी को मध्यप्रदेश के इंदौर में एक मजदूर परिवार में हुआ था। यह भी अजीब संयोग है कि राहत उस रोज़ पैदा हुऐ जिस रोज पूरी दुनिया जश्न में डूबकर नये साल का जश्न मनाती है। राहत साईनबोर्ड लिखने का काम करते थे, उनकी बेहद खूबसूरत लिखावट लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती थी। कौन जानता था कि एक रोज़ साईन बोर्ड लिखने वाला यह बच्चा इंदौर को पूरी दुनिया में पहचान दिलायेगा।
शायर बनने का किस्सा
एक मुशायरे के दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जां निसार अख्तर से हुई. राहत ने ऑटोग्राफ लेते वक्त अपने शायर बनने की तमन्ना जांनिसार अख्तर के सामने जाहिर कर दी, इस पर जां निसार अख्तर साहब ने कहा कि पहले पांच हजार शेर मुंह जुबानी याद कर लें फिर अपनी शायरी खुद ब खुद लिखना शुरू कर दोगे। इस पर राहत ने तपाक से जबाव दिया कि पांच हजार शेर तो मुझे याद है. अख्तर साहब ने जवाब दिया- तो फिर देर किस बात की है. बस फिर क्या धीरे धीरे राहत इंदौरी की शायरी शहरों में जलवे बिखेरने लगी, और एक वक्त ऐसा आया कि किसी भी मुशायरे की कामियाबी की ज़मानत राहत इंदौरी की मौजूदगी देने लगी, मुशायरों की दुनिया के बादशाह के तौर पर जाने जाने वाले राहत इंदौरी ने उर्दू अदब में पीएचडी की। उन्होंने लंबे समय तक उर्दू शायरी को पढ़ाया भी है। अपनी इंक़लाबी शायरी के जरिये लोगों के मन मस्तिष्क को झंझोड़ कर रख देने वाले डॉक्टर राहत इंदौरी ने बॉलीवुड फिल्मों में भी गाने लिखे हैं। मुन्नाभाई एमबीबीएस, ज़हर, खुद्दार, सर, इश्क मीनाक्षी, मिशन कश्मीर, बेगम जान समेत कई दर्जन फिल्मों में हिट गाने लिखे हैं।
वे गाने जो राहत ने लिखे
यार ज़रा माहौल बना,
ये क्या हुआ कैसे हुआ
हाँ जुदाई से डरता है दिल
दिल को हज़ार बार रोका रोका रोका
देखो देखो जानम हम दिल अपना तेरे लिए लाये
नींद चुराई मेरी किसने ओ सनम
हमसफ़र चाहिए उम्र भर चाहिए
ढलने लगी है रात कोई बात कीजिये
यूँ ही दिल को अगर गुदगुदाते रहो
दुनिया में दिलाई शायरी को पहचान
डॉक्टर राहत इंदौरी एक ऐसा नाम है जिसने उर्दू अदब के हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवाया है, उन्होंने शायरी पढ़ाई, शायरी की, और किताबें भी लिखीं। राहत इंदौरी ने शायरी को नई पहचाना दिलाई, उनकी शायरी ने बताया कि शायरी से जवाब कैसे दिया जाता है। उनका एक शेर है –
अबकि जो फैसला होगा वो यहीं पर होगा
हमसे अब दूसरी हिज़रत नहीं होना वाली।
यह एक ऐसा शेर है जिसे भारत और पाकिस्तान में एक जैसी संवेदनाओं के साथ सुना जाता है। उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस को कुछ यूं बयां किया है कि –
टूटती रहती है मुझमें हर दिन मस्जिद
इस बस्ती में रोज़ दिसंबर आता है।
राहत इंदौरी ने काफी समय पहले एक मुशायरे के मंच से कहा था कि शायरी उमा भारती की तकरीर नही है, शायरी लता मंगेसकर की आवाज की तासीर है, शायरी मोदी का गुजरात नही है, शायरी मुंशी प्रेमचंद का देहात है। दरअस्ल वे कहना चाह रहे थे शायरी इंसानी जख्मों पर उस मलहम का नाम है जो उसे जिंदगी से मिलते हैं। शायरी इंक़लाब का भी नाम है तभी तो राहत कहते हैं कि –
सौदा यहीं पे होता है हिन्दोस्तान का
संसद भवन में आग लगा देनी चाहिये।
कुल मिलाकर जब आपको इंक्लाबी शायरी सुननी हो तो राहत को सुनिये, जब आपको इश्क करना हो तो राहत को सुनिये, जब आपको सवाल उठाने हों तो भी राहत को सुनिये और जब आपको अपनी मुफलिसी का एहसास करना हो तो भी राहत को सुनिये। दरअस्ल राहत की शायरी किसी एक वर्ग विशेष के लिये नही है बल्कि हर उस शख्स के लिये है जो बारी बारी से उन खांचों से निकलकर आता है जिसमें सभी को निकलना है। जैसे राहत कहते हैं कि –
दो गज सही लेकिन यह मेरी मिल्कियत तो है
ऐ मौत तूने मुझको ज़मींदार कर दिया।
राहत का यह शेर उन लोगों के लिये है जिनके पास जमींदारी नहीं रही, या फिर वे लोग जो किराये के मकानों में रहे। उन्हीं के लिये राहत इंदौरी ने कहा कि ‘ऐ मौत तूने मुझको जमींदार कर दिया’। मरहूम शायर अनवर जलालपुरी राहत इंदौरी के लिये अक्सर एक शेर पढ़ा करते थे-
चंद लकीरें हवा में खींच दी मैंने
उसने पूछा था कि तस्वीर ए खुदा कैसी है।
फिर इस शेर को समझाते हुए बताते हैं, चूंकि इस्लाम में तस्वीर ए खुदा का कोई कंसेप्ट नही है, इसलिये उंगलियों को हवा में घुमाया और इशारा किया लाईलाहा इल्ललाह मुहम्महद रसूल्लाह. मशहूर शायर इक़बाल अशहर राहत इंदौरी के बारे में कहते हैं उनका लिखने का लहजा भी अलग था जो उनके पढ़ने के लहजे के साथ एक मुकम्मल शक्ल हासिल करता। अस्ल में वे आवाज़ से तस्वीर बना रहे होते थे जो हमारे दिल में उतर रही होती थी।
कुछ अशआर
अपनी पहचान मिटाने को कहा जाता है
बस्तियाँ छोड़ के जाने को कहा जाता है
पत्तियाँ रोज़ गिरा जाती है ज़हरीली हवा
और हमें पेड़ लगाने को कहा जाता है
नए सफर का नया इंतज़ाम कह देंगे
हवा को धूप चरागों को शाम कह देंगे
किसी से हाथ भी छुपकर मिलाइए वर्ना
इसे भी मौलवी साहब हराम कह देंगे
सूरज सितारे चाँद मेरे साथ मेँ रहे
जब तक तुम्हारे हाथ मेरे हाथ में रहे
शाख़ों से टूट जायें वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे
आंख में पानी रखो, होठों पे चिंगारी रखो
जिंदा रहना है तो, तरकीबें बहुत सारी रखो
ले तो आये शायरी बाज़ार में राहत मियां
क्या ज़रूरी है के लहजे को भी बाज़ारी रखो
कल तक दर दर फिरने वाले, घर के अन्दर बैठे हैं
और बेचारे घर के मालिक, दरवाज़े पर बैठे हैं
खुल जा सिम सिम याद है किसको, कौन कहे और कौन सुने
गूंगे बाहर चीख रहे हैं, बहरे अन्दर बैठे हैं
नदी ने धूप से क्या कह दिया रवानी में
उजाले पाँव पटकने लगे हैं पानी में
अब इतनी सारी शबों का हिसाब कौन रखे,
बहुत सवाब कमाए गए जवानी में
हर एक लफ्ज़ का अंदाज़ बदल रखा है
आज से हमने तेरा नाम, ग़ज़ल रखा है
मैंने शाहों की मोहब्बत का भरम तोड़ दिया
मेरे कमरे में भी एक ताज महल रखा है।
दरअस्ल राहत पैदा ही शायरी के लिये हुए थे, उनकी बेबाकी उनकी साफगोई और बगैर किसी डर और गुस्सा ज़ाहिर किये अपनी बात रखना उनकी शायरी की पहचान बन चुकी थी। एक बार जश्ने-जम्हूरिया (स्वतंत्रता दिवस) के मौके पर लाल क़िले में मुशायरा हुआ करता था. इस मुशायरा में भारत के सभी नामचीन शायर पहुंचते थे. प्रोफेसर मलिक जादा मंजूर अहमद की संचालन (निज़ामत) में होने वाले इस मुशायरा का अपना एक अलग अदबी मुकाम था. इसी मुशायरे में डॉ. राहत इंदोरी ने जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्लाह बुखारी की तरफ इशारा करते हुए ग़जल पढ़ी-
इबादतों की हिफाज़त भी उनके जिम्मे हैं
जो मस्जिदों में सफारी पहन के आते हैं।
ये मसनदों की सियासत स्याह चश्मा है
जिसे इमाम बुखारी पहन के आते हैं।
इस मुशायरा के बाद राहत इंदौरी को कई सालों तक लाल क़िले के मुशायरा मे नहीं बुलाया गया. जब प्रोफेसर अखतरुल वासे उर्दू अकादमी, दिल्ली के अध्यक्ष बने तब राहत इंदौरी को दोबारा लाल क़िला में 2011 के मुशायरा मे बुलाया गया. लेकिन राहत इंदौरी ने बगैर किसी डर के उसी गज़ल से अपनी शायरी की शुरूआत की जिसे पढ़ने की वजह से राहत इंदौरी को लंबे समय तक लाल किले में नहीं बुलाया गया था। राहत इंदौरी पर पाकिस्तान के मशहूर शायर शकेब जलाली का यह शेर बिल्कुल सही बैठता है कि –
शकेब अपने ताअर्रूफ के लिये ये बात काफी है
हम उस रस्ते नहीं चलते जो रस्ता आम हो जाये।
राहत को सुनना हो तो फिर उसी अंदाज में सुनिये जिस अंदाज में राहत पढ़ते थे, उनके चेहरो को देखिये, बॉडी लैंग्वेज को देखिये, हाव भाव देखिये, और समझिये कि किस तरह वे जब वो मंच पर शायरी करने के लिये आते थे तो शायरी में खो जाते थे। अगर खुद को सिर्फ राहत इंदौरी पर केन्द्रित करके शायरी सुनेंगे तो यकीनन ‘राहत’ मिलेगी. लेकिन राहत के चले जाने से उर्दू शायरी का जो नुक़सान हुआ उसकी भरपाई शायद ही हो पाए। वे बहुत कुछ छोड़ गए हैं। उन्होंने क़रीब 500 ग़ज़लें तो लिखी होंगी। उनका लिखा उर्दू और देवनागरी में उपलब्ध है।