यादों में रफ़ी : उसके जैसा फ़नकार आया ही नहीं, गायकी से कहीं ज्यादा बड़ी है जिसकी शख़्सियत

सैय्यद इज़हार आरिफ़

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

24 दिसंबर 1924 को जन्मे मुहम्मद रफ़ी की आज पुण्यतिथि है। रफ़ी के बारे में मैं अक्सर लिखता  रहा हूँ मगर उनकी अच्छाइयों और श्रेष्ठता की कहानी कहीं खत्म ही नहीं हो पाती  है,  एक ऐसा गायक जिसकी मिसाल पूरे संसार में आजतक नहीं मिल सकी। एक बार रफी साहब का नंबर आया रेडियो प्रोग्राम  “जयमाला” प्रस्तुत करने के लिए जिसे फिल्म स्टार्स रेडियो पर फौजी भाईयों के लिए पेश करते थे जिसमे वो अपने पसंदीदा गाने सुनवाते थे। रफ़ी साहब ने हाथ जोड़कर क्षमा याचना के साथ कहा “आप जो चाहें, जहाँ चाहें मुझे गवा सकते है मगर रेडियो या माइक पर बोलना मेरे लिए असंभव है” इसकी वजह थी उनका शर्मीलापन! जयमाला तो उन्होंने बाद में प्रस्तुत कर दिया मगर उनका शर्मीलापन और विनम्रता सदैव क़ायम रही।

जब प्रॉपर्टी डीलर ने लौटाए पैसे

रफ़ी साहब के एक क़रीबी मित्र ने अपने किसी जानपहचान वाले से ज़मीन खरीदने के लिए उसे पैसे दिया जिसे वो हड़प गया। जब ये बात उस साहब को पता चली वो उन्होंने अपने मित्र रफ़ी साहब से इसका ज़िक्र किया। रफ़ी साहब ने उसकी बात सुनकर थोड़ा सोचा और फिर कहा के मुझे याद पड़ता है के वहां का डीएम मेरा दोस्त है, मैं उससे बात करके देखता हूँ। रफ़ी साहब से अपने मित्र डीएम से फ़ोन पर बात करके पूरी बात बताई और सहायता करने को कहा। डीएम ने उत्तर दिया के एक बार यहाँ आकर तुम खुद उससे बात करलो फिर वो जो जवाब देता है उसके आधार पर कार्यवाही करेंगे ।

रफ़ी साहब और उनका वो मित्र वहां पहुंच कर एक होटल में रुके और उस बिल्डर को बुलावा भेजा जिससे ज़मीन का सौदा  हुआ था। कई बार बुलाने के बाद भी वह बिल्डर नहीं आया। तब ये लोग निराश हो गए इन्होने ये बात डीएम साहब को भी बताई। अगले दिन सुबह रफ़ी साहब की फ्लाइट थी। सुबह जब वो निकलने की तैयारी कर रहे थे तभी डोर-बेल बजी, दरवाज़ा खोला तो सामने वही बिल्डर खड़ा था और अपने सामने रफ़ी के देखकर उसके चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव थे। रफ़ी साहब ने उससे बात शुरू की तो वह बोला ये मेरा धंधा है मगर क्योंकि इसके लिए रफ़ी साहब आये है इसीलिए मैं मिलने चला आया। मैं वादा करता हूँ के आपको दोबारा आने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी। मैं आपका पैसा आपके घर भिजवा दूंगा और उसने दो-तीन किस्तों में पैसा वापिस कर दिया।

रफ़ी की दरियादिली

बी आर चोपड़ा साहब ने 1951 की फिल्म अफसाना  अपना कॅरिअर शुरू किया था लेकिन  रिकॉर्ड तोड़ सफलता उन्हें फिल्म ; नया दौर  से मिली जिसमे फिल्म के गीत सुपर ऊपर हिट रहे, जिसमे उड़े जब जब ज़ुल्फ़ें तेरी कवारिओं का दिल  मचले, ये देश है वीर  जवानो का अलबेलों का मस्तानो का, मांग  साथ तुहारा  मैंने मांग लिया संसार, आदि आदि। चोपड़ा साहब ने अपना खुद का प्रॉडक्शन हाउस पिछले साल ही बना लिया था लेकिन वह मुकम्मल नहीं था इसलिए उन्होंने रफ़ी साहब को बोला के हम एक कॉन्ट्रैक्ट कर लेते है आगे से तुम सिर्फ बी आर फिल्म्स के लिए ही गाओगे तुम्हारी समस्त इनकम का भुगतान मैं तुम्हें कर दिया करूंगा। रफ़ी साहब एक दयालु आदमी थे जो काम बजट वाली फिल्मो के  लिए मात्र टोकन अमाउंट एक रूपए में भी गा देते थे और दोस्तों का बहुत ख्याल  रखते थे। इसके साथ ही संगीतकारों की पहली पसंद भी वो ही हुआ करते थे। उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा के आप जब भी मुझे कहेंगे मैं गा दूंगा लेकिन दूसरे लोगों  साथ एकदम छोड़ देना मेरे लिए संभव नहीं। कुछ ज़िद्दी प्रवृति के होने के  कारण चोपड़ा साहब ने उनपर दबाव डाला लेकिन रफ़ी साहब ने हाथ जोड़कर उन्हें मना कर दिया। इसपर चोपड़ा साहब नाराज़ हो गए और उन्होंने फिर रफ़ी के साथ काम न करने का फैसला कर लिया।

रफ़ी और साहिर की जोड़ी

नया दौर के  बाद उनकी सुपर हिट धूल का फूल के म्यूजिक डायरेक्टर दत्ता नाइक थे। इस फिल्म के गाने गए थे महेन्दर कपूर ने। उस दौर में ज़बरदस्त शोहरत पाई थी तेरे प्यार का आसरा  चाहता हूँ वफ़ा कर रहा हूँ वफ़ा चाहता हूँ जैसे गीतों ने। लेकिन खुद महेन्दर कपूर की गायन प्रतिभा निखारने के लिए महेन्दर कपूर के बड़े भाई भाई उन्हें रफ़ी साहब के घर ही छोड़ आए थे। रफ़ी ने उन्हें खूब तराशा और एक ज़बरदस्त आत्मविश्वास से भर दिया था। इस समय तक साहिर लुधियानवी बी आर कैंप के स्थायी गीतकार बन गए थे और शोहरत के मामले में आसमान छू रहे थे। जहाँ साहिर के जुड़ाव ने बड़े चोपड़ा साहब को आत्मविश्वास से भर दिया था वही अब इसमें एक स्टार और जुड़ गया था वो थे संगीतकार रवि (शर्मा) रवि तो खुद रफ़ी के अनन्य भक्त थे जिन्हें फिल्मो में संगीतकार के रूप में  ब्रेक भी रफ़ी ने ही दिलवाया था मगर बड़े चोपड़ा और रफ़ी के अलगाव को देखते हुए उन्हें महेन्दर कपूर से काम लेना पड़ा और और महेन्दर रवि “साहिर की इस जोड़ी ने गुमराह, हमराज़ और वक़्त में जो कमाल दिखाया वो फ़िल्मी इतिहास में मील का पत्थर बन कर रह गया। फिल्म वक़्त के एक गाने के बार बार रीटेक हो रहे थे थे और रवि, महेन्दर से कही न कही असहमत थे।

एक दो दिन और रिहर्सल के बाद उन्होंने इस बात की चर्चा चोपड़ा साहब से की और उन्हें रिक्वेस्ट की के आप कहें तो ये गाना मैं रफ़ी साहब से गवा लूँ । चोपड़ा साहब हैरान होकर बोले के क्या रफ़ी मेरी फिल्म के लिए गायेगा? जी मैं उन्हें किसी तरह मना लूंगा। अब रवि ने रफ़ी साहब को  बोला के मेरा ये गाना तो आपको ही आना पड़ेगा। क्या चोपड़ा इसके लिए सहमत हो जायेगा रफ़ी ने पूछा । रवि  बोले मैंने उनसे बात कर ली है , उन्होंने मेरे ऊपर छोड़ दिया है अगले दिन रफ़ी साहब पहुंच गए और एक बार की रिहर्सल में बाद ही; ओके करा दिया जिसे सुनने के बाद तो बड़े चोपड़ा साहब भी अवाक् रह गए। गाना था ” वक़्त से दिन और रात वक़्त से कल और आज वक़्त की हर शय गुलाम , वक़्त का हर शय पे राज “।

छू लेने दो नाज़ुक होठों को

इसके बाद एक फिल्म और आयी जो गुलशन नंदा  के उपन्यास पर आधरित  और पन्नालाल माहेश्वरी तथा राम माहेश्वरी ने प्रोड्यूस और डायरेक्ट थी फिल्म का नाम था काजल। क्या गाने थे,क्या  गाने थे ” छू लेने दो नाज़ुक होंठों को कुछ और नहीं है जाम है, ये ये ज़ुल्फ़ अगर खुलके बिखर  जाये तो अच्छा । वास्तव में ये कमाल रवि + साहिर+रफ़ी  ही कर सकते थे। ये बम्पर सफलता देखते हुए रवि ने एक बार फिर चोपड़ा  साहब से बात करके रफ़ी को फिल्म “आदमी और इंसान” के एक गाने एक गाने के लिए फिर रफ़ी को बुलाया । अब इसके बाद यश चोपड़ा जो बड़े भाई बी आर चोपड़ा  के अधिकतर फिल्मो के डायरेक्टर हुआ करते थे उन्होंने अपना खुद का एक प्रोडक्शन हाउस खोल लिया था ” यशराज बैनर्स ” और इनके झंडे तले उनकी पहली फिल्म थी राजेश  खन्ना, शर्मिला टौगोर और राखी की गुलशन नंदा के उपन्यास पर आधरित फिल्म ;दाग (जब भी जी चाहे नए दुनिया बसा लेते है लोग, एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते है लोग)

बड़े चोपड़ा  साहब अपने बैनर तले बागबान , बाबुल और भूतनाथ जैसी  फिल्मे देखकर 2006 तक सक्रिय रहे लेकिन 2008 में उनका निधन हो गया। रफ़ी के निधन के बाद वो अक्सर कहा करते थे रफ़ी जैसा सिंगर और अच्छा इंसान अब हो ही नहीं सकता।

(लेखक सिंधू केसरी के संपादक हैं)