पुष्परंजन का सवाल: टीवी पर नफ़रत रोकने की पहली ज़िम्मेदारी किसकी?

अमीर लियाक़त हुसैन कराची से प्रसारित ‘बोल टीवी‘ के एंकर रहे हैं। पाकिस्तानी एंकरों में इसकी प्रतिस्पर्धा रहती है कि राष्ट्रवाद का रायता कौन, कितना फैला सकता है। अमीर लियाक़त के शो का नाम था, ‘ऐसे नहीं चलेगा।‘ कार्यक्रम कुख्यात हुआ, तो लियाक़त हुसैन बजाय सबक़ लेने के, अपने हौसले बुलंद करते चले गये। जो गेस्ट उनसे असहमत होता, ‘गद्दार‘ या ‘काफ़िर‘ जैसे शब्द चिपकाने में ज़रा भी देर नहीं करते। इससे आहत मानवाधिकार कार्यकर्ता जिब्रान नासिर ने पाकिस्तान इलेक्ट्रोनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी (पीईएमआरए) में एंकर अमीर लियाक़त की शिकायत की। इसे सही पाये जाने के बाद जनवरी 2017 में पीईएमआरए ने एंकर अमीर लियाक़त पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। ‘कोई शो नहीं कर सकते। बतौर गेस्ट भी टीवी पर नहीं बैठ सकते। रिपोर्टर, एक्टर, इन ऑडियो, वीडियो वीपर, प्रोमो, विज्ञापन कहीं भी यह शक्ल नहीं दिखनी चाहिए।‘  ऐसा कड़क आदेश था पाकिस्तान इलेक्ट्रोनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी का।

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पाकिस्तान में ‘पीईएमआरए‘ इतना ताक़तवर इसलिए है, क्योंकि उसे टीवी चैनलों को लाइसेंस देने और उन्हें रद्द करने का अधिकार प्राप्त है। 12 जुलाई 2016 को एक और घटना की चर्चा ज़रूरी है। इमरान ख़ान की तीसरी शादी की ग़लत ख़बर चलाने की वजह से 13 टीवी चैनलों पर पांच लाख का ज़ुर्माना लगाया गया। उन दिनों ‘दुनिया न्यूज़‘ को छोड़कर बाक़ी 12 चैनलों को इमरान ख़ान की पार्टी, ‘ पाकिस्तान तहरीक़े इंसाफ ‘ ने माफी दे दी थी। बावज़ूद इसके, ‘पीईएमआरए‘ ने सबसे ज़ुर्माना वसूला। ‘पीईएमआरए‘ का तर्क़ था कि इस ज़ुर्माने से चैनल वालों को आचार संहिता की याद आती रहेगी। 1 मार्च 2002 को संसद में बाकायदा बिल पास कर पाकिस्तान इलेक्ट्रोनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी (पीईएमआरए) की बुनियाद रखी गई थी। इमरान के शासन में अनुच्छेद-19 को संशोधित कर ‘पीईएमआरए‘ के अधिकार क्षेत्र को विस्तार देकर सोशल मीडिया को भी लगाम लगाने की चेष्टा हुई थी।

अब सवाल यह है कि भारत में सेल्फ़ रेगुलेशन के नाम पर जो गड़बड़झाला चल रहा है, वह कितना सही है? क्या हमारे टीवी वाले सचमुच ‘स्व-नियमन‘ को मानते हैं? इसे मीडिया की आज़ादी कहें, कि उच्चश्रृंखलता? सूचना प्रसारण मंत्रालय ने 2019 तक 920 चैनलों लाइसेंस दे रखा था। इसमें सौ-डेढ़ सौ चैनलों को मई 2022 तक और जोड़ लीजिए। चैनल इसलिए खुलते हैं कि विज्ञापन के पैसे बटोरे जा सके। ब्राडकॉस्ट आडियंस रिसर्च कौंसिल (बार्क) की रिपोर्ट है कि टीवी चैनलों पर विज्ञापनों की बाढ़ में तेज़ी से बढोत्तरी हो रही है। ‘बार्क‘ के अनुसार, 2021 की पहली तिमाही में टीवी पर 4175 विज्ञापनदाता थे, जो 2022 में इसी अवधि में बढ़कर 4259 हो गये। सबसे अधिक 54 प्रतिशत विज्ञापन हिंदी चैनल वाले बटोर रहे हैं। शायद यही कारण है कि धूम-धड़ाका सबसे अधिक हम इसी मुहल्ले में देखते हैं।

टीवी इंडस्ट्री का पुराना फार्मूला है, ‘जो दिखता है, वही बिकता है।‘ अब इस दिखने-दिखाने के लिए क्या कुछ करना पड़ता है, उसकी कहानी में जाना, समय बर्बाद करना है। मूुल मुद्दा है, इस देश में अखबार, पत्र-पत्रिकाएं आचार संहिता के ज़रिये कमोबेस कंट्रोल में हैं, तो सहस्त्रमुखी टीवी नियंत्रित क्यों नहीं है? आप टेलीविज़न की भाषा और अखबार की भाषा से ही तुलना कर लीजिए। मनलायक ख़बर न मिले, अखबार पढ़ने से विरक्ति हो सकती है। टीवी पर बहस या हिंसक कार्यक्रम तो आपको दिमाग़ी रूप से बीमार करता है, या फ़िर ब्लडप्रेशर बढ़ा देता है। वहां ‘दिखता है‘ के वास्ते गलाकाट प्रतिस्पर्धा चल रही है।

गोकि, विज्ञापन के ज़रिये पैसे यू-ट्यूब भी दे रहा है, वहां भी डॉलर की आशा में तथाकथित चैनल खरपतवार की तरह गांव की गली से लेकर दिल्ली तक उग आये हैं। सहस्त्र टांगों वाले कनखजूरे चैनलों को ‘सेल्फ रेगूलेशन‘ के ज़रिये नियंत्रित कर लेंगे क्या? स्व नियमन (सेल्फ रेगूलेशन) शब्द ही अपने आप में एक भद्दा मज़ाक है। सरकारों ने  टेलीग्राफ एक्ट-1885, 1993 में बना इंडियन वायरलेस टेलीग्राफी एक्ट, फ़िर 1995 में केबल टीवी नेटवर्क नियमन क़ानून के हवाले से प्रसारकों को नियंत्रित करने की दिखावटी चेष्टा की थी।  कायदे से हिसाब तो आठ साल की होनी चाहिए कि नये निज़ाम में इस देश का टीवी उद्योग कितनी ज़िम्मेदारी से काम कर रहा है?

अगस्त 2021 में ब्राडकास्टर एंड डिज़ीटल एसोसिएशन (एनबीडीए) जैसी संस्था को नई पैकिंग के साथ पेश किया गया। यदि ये बिना दाँत के साबित हो रहे हैं, तो उन्हें भंग क्यों नहीं करते? 70-80 चैनल ‘एनबीडीए‘ के सदस्य हैं, बाकी चैनल स्व नियमन के आधार पर चल रहे हैं। ‘एनबीडीए‘ में भी जो दबंग सदस्य हैं, उनके चैनल किसी नियमन की परवाह नहीं करते। सरकार के समक्ष टीवी इंडस्ट्री पर नकेल न कसने की विवशता क्या केवल इसलिए है कि इनमें से शत-प्रतिशत सत्ता समर्थक हैं? ‘साडे नाल रहोगे तो ऐश करोगे‘ का ख़मियाज़ा सिस्टम नहीं, अंततः संपूर्ण समाज और देश भुगत रहा है।

एक अपुष्ट ख़बर बीजेपी के हवाले आई कि सितंबर 2014 से 3 मई 2022 तक उसके डाटा बैंक में मौजूद बाइट्स में 2700 ऐसे बयान थे, जो विद्वेष फैलानेवाले अतिसंवेदनशील थे. इस आधार पर 38 नेताओं को चेतावनी दी गई है कि इससे बाज़ आयें। अब सवाल बाक़ी पार्टियों से भी है, कि क्या उनके प्रवक्ताओं-नेताओं ने टेलीविज़न और सोशल मीडिया पर उन्माद फैलाने का काम नहीं किया होगा? देश के सभी दलों को आत्म निरीक्षण करना चाहिए।

इस समय देश-दुनिया में बहस, विष उगलने वाले बंटी-बबली प्रवक्ताओं के बयान पर हो रही है। मगर, बहस इसपर भी होनी चाहिए कि लाइव शो में एक एंकर की भूमिका कैसी हो? आग भड़काने वाली, या आग बुझाने वाली? हज़रत मोहम्मद को अपमानित करने वाले शब्द जब बोले जा रहे थे, उस समय शो होस्ट करने वाली एंकर को क्या तत्काल हस्तक्षेप कर उसे नहीं रोकना चाहिए था? ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। भारतीय टीवी इंडस्ट्री में ऐसी लक्ष्मण रेखा को लांधने की चेष्टा लगातार हुई है।

 शुक्रवार को जुमे की नमाज़ से दो दिन पहले गृह मंत्रालय को इंटेलीजेंस इनपुट मिला हुआ था कि बड़े पैमाने पर फितना हो सकता है। क्या सरकार एहतियातन टीवी चैनलों को दिशा निर्देश भेज नहीं सकती थी कि ऐसे समाचार से परहेज़ करें, जो लोगों को भड़काता हो? पिछले 72 धंटों से देशव्यापी उन्माद का माहौल बना है। इस बारूद में माचिस लगाने से बचा जा सकता था। झारखंड में शनिवार को दो ने दम तोड़ दिया। क्या उसमें मीडिया की भूमिका की भी समीक्षा होनी चाहिए?

इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी नायकत्व की प्रतिस्पर्धा है। सड़क पर भीड़ के आगे ‘गन माइक‘ लेकर जो रिपोर्ट कर रहा होता है, उसे अपनी नौकरी और जान, दोनों बचानी है। सबसे बड़ा खिलाड़ी स्टूडियो में बैठा एंकर है। जो मोदी पर सवालों के तीर छोड़ता है, वो हीरो है। अपने मीडिया हाउस की विश्वसनीयता का ब्रांड है। दुनियाभर के भक्त उसने बटोर लिये हैं। इतराते-बलखाते वो बोलता है, ‘मुझे भक्त नहीं चाहिए। नेति-नेति।‘ उसके शब्द, विचार बन जाते हैं। दूसरी ओर, एंकरों का जो हरावल दस्ता मोदी के समर्थन में है, उनमें भी एक से एक तुर्रम ख़ाँ हैं।

इस देश में एंकर के शो पर कम विमर्श होता है, उसकी सेलरी और पहुंच पर ज़्यादा परिचर्चा होती है। ‘मीडिया सुपारीबाज़ों‘ को कह दिया जाता है, आप स्व नियमन तय कर लीजिए। समानांतर सत्ता चलाइये। क्योंकि आप विजुअल मीडिया हैं। अखबार वाले सेकेंड क्लास सिटीजन हैं, उन्हें दंगों में ‘समुदाय विशेष‘ जैसी शब्दावली के इस्तेमाल का सख्त निर्देश है। सेल्फ रेगुलेशन केवल आपके लिए है। आप तनाव के समय खुलकर हिंदू-मुसलमान बोलिये। एक ही देश में दो मीडिया नीति। इस देश की सरकार समग्र मीडिया नीति क्यों नहीं बनाती? पाकिस्तान इलेक्ट्रोनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी (पीईएमआरए) बन जाना संभव है, मगर हमें संकोच है। भारतीय मीडिया को अफ्रीका के पैटर्न पर चलाना है, तो स्वागत है आपका।

स्व-नियमन के शिकार अफ्रीकी़ देश सर्वाधिक नस्लवादी दंगे और अस्थिरता की चपेट में आये हैं। उसके पीछे ग़ैर ज़िम्मेदार टीवी और सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। अस्थिरता रोकने की दृष्टि से सोशल मीडिया को नकेल पहनाने की कोशिशें दो साल पहले से अफ्रीका ने शुरू कर दी है। तंज़ानिया ने ‘ऑनलाइन कंटेन्ट रेगुलेशंस‘ 2020 में पास किया था। उसकी देखा-देखी इथियोपिया, टोगो, युगांडा, लोसेथो, ज़िम्बाब्वे और बुरकिना फासो ने भी क़ानून बनाकर ट्विटर, व्हाट्स अप, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म की बाड़बंदी कर रखी है।

कैमरून की दमन कथा को दरकिनार कर दें , तो अधिकांश अफ्रीक़ी मेनस्ट्रीम मीडिया स्वच्छंद है। वहां सस्ता, बिकाउ और टिकाउ पत्रकार मीडिया संस्थानों ने ख़ूब पाले। सरकारें पूछतीं नहीं। अफ्रीकी टेलीविज़न पर नस्लभेदी टिप्पणियों की परवाह नहीं। कैमरून में कमाल यह हुआ कि 2014 में आतंकवाद निरोधक क़ानून के दायरे में मीडिया वालों को भी ले आया गया, जो दमनचक्र चलाने का बाइस बन चुका है। भारत में यदि कैमरून जैसा मीडिया क़ानून बने, तो निरंकुश सत्ता द्वारा उसके दुरूपयोग की आशंका बनी रहेगी। लाइव शो में मार-पिटाई के मामले में अरब देशों के टीवी चैनल कुख्यात हैं। इसे हम स्व-नियमन का साइड इफेक्ट कह सकते हैं। अब भारत में भी आये दिन हम स्वच्छंदता, उन्माद, बदज़ुबानी, कभी-कभार हाथापाई देखने लगे हैं। भारतीय समाज इससे प्रभावित हो रहा है, यह जानते के बावजूद हमें ऐसे वायरस पर अंकुश लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ रही।

सोचिए, ‘सेल्फ रेगुलेशन‘ अमेरिकन टीवी इंडस्ट्री में क्यों नहीं है? वहां आप टीवी पर ग़लत विज्ञापन चलाने का दुस्साहस करेंगे, ‘फेडरल ट्रेड कमीशन‘ तुरंत दबोच लेगा। अमेरिकी कोर्ट सिस्टम अखबारों की स्वायत्तता पर नज़र रखती है। टीवी और रेडियो को अदालत और अमेरिकी रेगुलेटरी बॉडी नकेल पहनाये रखती है। सरकार ने ‘ब्राडकास्ट डिसेंसी इंफोर्समेंट एक्ट-2005‘ के ज़रिये 32,500 डॉलर से लेकर सवा तीन लाख डॉलर तक जुर्माना करने का अधिकार ‘फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन‘ को दे रखा है। आपत्तिजनक प्रसारण की वजह से यदि अमेरिका में दंगे-फसाद होते हैं, चैनल वालों से नुकसान की भरपाई 30 लाख डॉलर तक की कराई जा सकती है।

‘ सेल्फ रेगुलेशन ‘ जर्मन मीडिया में भी नहीं है, जहां मैंने सात साल काम किया। जर्मनी में रूंडफुंक-राट (प्रसारण परिषद) है, जिसने एक बार ग़लती पकड़ ली, प्रसारक की ख़ैर नहीं। जर्मन संसद ने ‘नेटवर्क इन्फोर्समेंट एक्ट‘ (नेट्ज़ डीजी) 30 जून 2017 को पास किया था, जिसे 1 फरवरी 2018 से लागू कर दिया गया। इस क़ानून के हवाले से सोशल मीडिया कंपनियों के आगे लक्ष्मण रेखा खींच दी गई कि आप हेट स्पीच को किसी भी सूरत में बढ़ावा नहीं देंगे। किया, तो 5 लाख यूरो तक ज़ुर्माना भरो, या फ़िर लाइसेंस कैंसिल। टीवी इंडस्ट्री की ज़िम्मेदारियों को समझना है, तो केवल एशिया पैसेफिक ब्राडकॉस्टिंग यूनियन (एबीयू) और यूरोपियन ब्राडकॉस्टिंग यूनियन (ईबीयू) के तौर-तरीक़ों को देख-समझ लें।