यूपी में विपक्षी एकता का पासा फेंककर प्रियंका ने खेला बड़ा दांव

शकील अख्तर

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कांग्रेस स्मार्ट खेल रही है! स्मार्ट खेलने का मतलब अपनी सीमित शक्ति में बेस्ट दावों का उपयोग। भारतीय पहलवान विदेशों में यही करके जीत हासिल करते हैं। शक्ति (स्टेमना) भौगोलिक परिस्थितियों (गर्म इलाके) की वजह से कम होती है। मगर हुनर कम नहीं होता। प्रियंका गांधी ने अपने उत्तर प्रदेश के पहले चुनावी दौरे में यही दिखाया है। वे गठबंधन का फिलर( प्रस्ताव) छोड़ आई हैं। अब अगर किसी को राज्य में योगी की सरकार से प्राब्लम होगी तो वह साथ आएगा, नहीं तो जनता जानती है कि अकेले अकेले यूपी में कोई योगी को नहीं हरा सकता। इस समय हिन्दुवादी लहर पर मोदी से ज्यादा योगी सवार हैं। और अगर कहीं यह लहर कमजोर पड़ती दिखती है तो इसे गति देने के लिए औवेसी और मुन्नवर राना हर समय तैयार खड़े हैं।

ऐसे में प्रियंका जानती है कि अगर राज्य की जनता में यह मैसेज चला गया कि भाजपा को हराने के लिए विपक्षी एकता के अलावा और कोई रास्ता नहीं है तो जनता के दबाव में शायद समाजवादी पार्टी समझौते के लिए आगे आए। बसपा से अभी किसी को उम्मीद नहीं है कि वह ऐसा कोई भी कदम उठाएगी जिससे भाजपा नाराज हो। हां कांग्रेस और सपा दोनों को उम्मीद दलित समुदाय से है कि वह हाथरस और दलित अत्याचार के अन्य मामलों में मायावती की निष्क्रियता को याद करके उनसे मुक्त होने की तरफ बढ़े।

मायावती की बैचेनी

मायावती जिनकी पूरी ताकत दलित समर्थन है इस समय बैचेनी की स्थिति में है। पिछली बार उसका बड़ा हिस्सा लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में भाजपा के साथ गया था। मगर उनकी जो दो सबसे बड़ी जरूरतें थीं सुरक्षा और आरक्षण उन दोनों में उसे समस्याओं का समाना करना पड़ा। मायवती ट्वीट के अलावा और वह भी ट्वीट में सलाह के तौर पर कि उचित हो कि शासन इसका संज्ञान ले के अतिरिक्त और कुछ करती नहीं दिखीं। जबकि प्रियंका और राहुल दो बार बलात्कार की शिकार दलित लड़की के परिवार से मिलने हाथरस गए। प्रियंका ने अपने हाथों पर पुलिस की लाठियां रोकीं और राहुल को धक्के देकर पुलिस ने गिराया। सोनभद्र के सामुहिक आदिवासी नरसंहार मामले में मृतकों के परिवारों से मिलने जाने जाने से प्रियंका को रोका गया। पुलिस ने रात भर बिना बिजली, पानी वाले चुनार गेस्ट हाउस में रखा। फिर भी प्रियंका पीड़ित परिवारों तक पहुंचीं। उनका दर्द सुना। उनके लिए इंसाफ की आवाज उठाई। उस समय लोगों को इन्दिरा गांधी की भी याद आ गई। जो 1977 में दलित नरसंहार के बाद हाथी पर बैठकर बेलछी पहुंची थीं। तो प्रियंका के हर जगह जाने से कांग्रेस को उम्मीद है कि अब शायद वह समय आ गया है जब दलित वापस कांग्रेस की तरफ आ सकते हैं। पिछले तीन दशक से यूपी में दलित बसपा के साथ हैं। वे कांशीराम के संघर्ष पर विश्वास करके बसपा के साथ आए थे। कांशीराम ने उनमें इतनी हिम्मत भर दी थी कि वे नारे लगाते थे,  “तिलक, तराजु और तलवार….! “ और “चढ़ गुंडन की छाती पर मोहर लगाना हाथी पर“ मगर जल्दी ही हकीकत से उनका सामना हो गया। मायावती समझौतावादी हो गईं। चार साल से वे घर में बैठी हैं। अब जब विधानसभा चुनाव की आहट आई तो वे सतीश मिश्रा के जरिए राजनीति करने की कोशिश कर रही हैं।

ब्राह्मणों को साधने की कोशिश

ब्राह्मण सम्मेलन एक ऐसी ही कोशिश है। 2007 में यह सफल हुई थी। क्योंकि मायावती रियल विपक्ष दिखती थीं। मगर आज वे विपक्ष में हैं इसे कोई मानने को तैयार नहीं। और अगर वे विपक्ष में नहीं हैं सत्ताधारी भाजपा के साथ हैं तो फिर राजनीति का सबसे बुद्धिमान माने जाने वाला ब्राह्मण उनके साथ क्यों जाएगा? दलित भी यही सोच रहा है कि हमारे वोट से ताकतवर बनकर अगर मायावती किसी और मजबूत करेंगीं तो हमें क्या फायदा? वोटर अब अपना वोट आगे बेच देने वाले को नहीं देता है। राजनीतिक चातुर्य हर समुदाय में आ गया है। ऐसे में या तो मायावती राजनीतिक सच्चाई को पहचान कर खुद को मजबूत करने के लिए विपक्षी एकता पर विचार करेंगीं। या फिर खुद को भयंकर असुरक्षा में फंसा लेंगी।

आज एक राजनीतिक शक्ति होने के कारण ही सभी राजनीतिक दल उनका लिहाज करते हैं। लेकिन अगर उनके पास दलित समर्थन ही नहीं रहेगा तो जिन मामलों में इन्हें कार्रवाई होने का अंदेशा है वह कोई सरकार क्यों रोकेगी? मायावती आज अपने उपर संभावित कार्रवाइयों के डर की वजह से ही सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में बोलती हैं और हर समस्या का दोष कांग्रेस या सपा सरकार पर रख देती हैं। जब तक यह भरम  रहेगा कि मायवती पर कार्रवाई करने का मतलब

दलितों को नाराज करना है कोई सरकार उन पर हाथ नहीं डालेगी। मगर जैसे ही यह भ्रम टूटेगा, दलितों से इतर बाकी समुदायों को खुश करने के लिए कोई भी सरकार सबसे पहले मायावती पर ही हाथ डालेगी। यूपी के चुनाव का केन्द्रीय तत्व मायावती हैं। सिर्फ उनके पास 10 प्रतिशत सालिड जाटव वोट है। बाकी कोई भी पार्टी यूपी में यह दावा नहीं कर सकती कि उसका इतना प्रतिशत वोट पक्का है। भाजपा जिस हिन्दुत्ववादी वोट के भरोसे 2017 में जीती थी उसे कोरोना में हुई गांव गांव में मौतें, चिकित्सा सुविधाओं का अभाव, कानून व्यवस्था ने दुविधा में डाल दिया है।

हिंदु मुस्लिम ध्रवीकरण से भाजपा को उम्मीदें

ब्राह्मण, यादव, जाट जो 2017 में जोश में थे अब खुद को पीड़ित बता रहे हैं। अब केवल हिन्दु मुसलमान ही वह आधार है जिस पर भाजपा की सारी उम्मीदें टिकी हुईं हैं। इसीलिए ध्रुविकरण के लिए वह औवेसी और शायर मुन्नवर राना का इस्तेमाल करती है। औवेसी जब यह चुनौती देते हैं कि वे योगी को दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बनने देंगे तो इसका क्या असर होता है? इसी तरह मुशायरों में भारी लोकप्रियता कमाए शायर मुन्नवर राना जब यह कहते हैं कि अगर योगी दोबारा मुख्यमंत्री बन गए तो वे यूपी छोड़ देंगे किसके पक्ष में जाता है? हिन्दु मुस्लिम राजनीति के लिए यह बयान आग में घी की तरह हैं। भाजपा को सबसे बड़ी उम्मीद यही है कि चुनावों में और कोई मुद्दा नहीं चलेगा केवल हिन्दु मुसलमान के आधार पर ही माहौल बनेगा। और अगर ऐसा हुआ तो मायावती का दलित वोट जो है तो करीब 20 प्रतिशत मगर जिसमें से 10 प्रतिशत जाटव उनका मजबूत वोट माना जाता है से लेकर सपा का यादव वोट जो करीब 9 प्रतिशत और पश्चिमी यूपी का प्रभावशाली जाट, जिसकी दम पर चरणसिंह देश के प्रधानमंत्री बन गए थे, क्या फिर भाजपा के साथ नहीं चला जाएगा?

अस्तित्व का चुनाव

प्रियंका गांधी ने इन्हीं राजनीतिक परिस्थितियों को समझते हुए यूपी में सबके साथ आने की बात कही है। हालांकि इससे यूपी के कांग्रेसी खुश नहीं हैं। वे पार्टी को मजबूत करने के लिए अकेले चुनाव लड़ना चाहते हैं। लेकिन प्रियंका जानती हैं कि आज की राजनीतिक परिस्थितियों में अलग अलग लड़कर न कांग्रेस मजबूत होगी और न ही कोई अन्य विपक्षी पार्टी। किसानों के नाम पर जो राकेश टिकैट आज भाजपा को हराने की बात कर रहे हैं वे भी अगर किसी तालमेल में नहीं आएंगें तो किसानों का कोई फायदा नहीं होगा।

यूपी में यह सबके लिए अस्तित्व का चुनाव है। भाजपा के लिए जरूर नहीं है, मगर मुख्यमंत्री योगी के लिए है। दिल्ली में बैठे प्रधानमंत्री मोदी और उनके बाद उनका राजनीतिक स्थान लेने के लिए तैयार अमित शाह की पैनी निगाहें यूपी पर लगीं हैं। योगी अगर जीतते हैं तो उनकी अगली मंजिल दिल्ली होगी। संघ के लिए वे मोदी और अमित शाह से बड़े हिन्दु ब्रांड बन गए हैं। लेकिन अगर योगी हारते हैं तो उनका राजनीतिक सफर यहीं खत्म हो जाएगा। हिन्दुओं में इतनी जल्दी, इतनी व्यापक अपील बनाने वाले और प्रबल महत्वाकांक्षी योगी को फिर भाजपा के नेता ही निशाने पर ले लेंगे। तो योगी, मायावती और खुद प्रियंका के लिए यूपी का यह चुनाव राजनीतिक अस्तित्व का सवाल है। जिसमें जीतने वाले या अच्छा प्रदर्शन करने वाले को मिलेगा तो कुछ ज्यादा नहीं, मगर हारने वाले के लिए राजनीति में रहना मुश्किल हो जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)