लंबे लंबे डग और लंबी लंबी हिट! क्रिकेट की तरह राजनीति में भी सफलता की यही कुंजी हो गई है। जब विवियन रिचर्ड्स अपना बल्ला लहराता क्रीज की तरफ आता था तो सामने वाली टीम आधी हिम्मत हार जाती थी। यूपी की राजनीति में यह दृश्य एक बार फिर जीवंत हो गया है। प्रियंका गांधी के लखीमपुर से बनारस तक के सफर ने सबसे ज्यादा अखिलेश यादव को हिला दिया। कल तक गठबंधन को ना कह रहे अखिलेश अब गठबंधन के लिए सार्वजनिक रूप से कह रहे हैं। फेस सेविंग के लिए साथ में यह भी कह रहे हैं कि हमारी शर्तों पर होगा। गठबंधन तो सब अपनी शर्तों पर ही करते हैं। लेकिन साथ में सामने वाले की शर्तें भी मानते हुए। अखिलेश पहले गठबंधन का मजाक बना रहे थे। कुछ लोगों ने 2012 की याद दिलाकर यह खुशफहमी पैदा कर दी थी कि इस बार भी वही माहौल है। और उनकी साइकल चलेगी। इसीलिए सोशल मीडिया पर वे 2022 और बाईसिकिल का हेशटेग चला रहे थे।
यूपी में इस बार यह मजेदार सीन है कि तीन बड़े नेता अपने नजदीकी लोगों से इस तरह घिरे हैं कि उन्हें सिर्फ हरा ही हरा दिख रहा है। यूपीए के समय में सोनिया गांधी को भी कुछ लोगों ने इसी तरह घेर रखा था। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी एक अपवाद हैं। वे आसपास के लोगों की इस तरह की सब अच्छा है बात पर यकीन नहीं करते। वे खुद जानते हैं कि इसका यह नुकसान यह फायदा है। उन्हें मालूम है कि किसानों को कुचलने के क्या परिणाम हो सकते हैं। और मनीष गुप्ता के परिवार और वैश्य समाज से आज चाहे जितने धन्यवाद कहलाओ उसकी ह्त्या को न वैश्य समाज भूलेगा और परिवार के भूलने का तो सवाल ही नहीं है।
तो उत्तर प्रदेश की तीन सबसे बड़ी पार्टियों के नेता मुख्यमंत्री योगी, अखिलेश और मायावती अभी तक इस खुशफहमी में डूबे हुए थे कि एक, कांग्रेस कहीं नहीं है, दूसरे, बाकी दो भी कमजोर हैं। मगर प्रियंका के क्रीज पर पहुंचते ही सारी फिल्डिंग बिखर गई। हाफ पिच पर आकर उन्होंने दो ही लंबी हिट लखीमपुर और बनारस मारीं कि सामने वाले कप्तानों की सारी प्लानिंग, रणनीति बिखर गई। एक तो उनके यह समझ में आ गया कि कांग्रेस गया वक्त नहीं है। दूसरे यह कि बाकी दो कमजोर हों तो हों हम भी कोई बहुत मजबूत विकेट पर नहीं खड़े हैं।
गठबंधन की जरूरत का स्वीकार इसीलिए सहारनपुर में अखिलेश ने किया। वे समझ गए कि प्रियंका भाजपा विरोधी वोट का बड़ा हिस्सा झटक सकती हैं। ऐसा ही मायवती के साथ हुआ। पहली बार उन्हें लगा कि दलित खिसक सकते हैं। कांग्रेस के पंजाब में दलित सीएम बनाने का असर दिखाई देने लगा है। उत्तराखंड में दलित नेता यशपाल आर्य सरकार छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए। हरीश रावत वहां भी दलित सीएम की मांग करने लगे हैं। मायावती अपनी राजनीति के इस समय सबसे खराब दौर में हैं। एक तरफ ईडी, आईटी का डर दूसरी तरफ राजनीति पूरी तरह खत्म हो जाने का खतरा। मायावती ऐसे द्वंद में क्या फैसला लेंगी। कहना मुश्किल है। मगर उनका समाज फैसला ले सकता है। वह फिर अपनी पुरानी हमदर्द पार्टी कांग्रेस की तरफ लौट सकता है।
कांग्रेस की अपील व्यापक है। हर जाति धर्म पर इसका असर होता है। बनारस की रैली में उमड़ी भीड़ में समाज के सभी वर्गों के लोग थे। कांग्रेस के पुराने दिनों की तरह जब सब का समर्थन उसे मिलता था। जमींदारों, राजा महाराजाओं, व्यापारियों और पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए पंजाबियों, सिंधियों के अलावा समाज का कोई वर्ग ऐसा नहीं था जो कांग्रेस के साथ नहीं हो। लेकिन मंदिर मंडल की विभाजनकारी राजनीति ने लोगों को छोटे छोटे खेमों में बांट दिया। कोई नेता, पार्टी ऐसी नहीं बची जो उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक सबका प्रतिनिधित्व करती हो। कभी कांग्रेस देश के हर राज्य में लोगों का विश्वास जीतती थी। नेहरू, इन्दिरा और राजीव गांधी तक कांग्रेस की स्वीकार्यता पूरे देश में थी। और देश की मजबूती, एकता और अखंडता के लिए यह अच्छी बात होती थी। आज अपने सर्वक्षेष्ठ समय में भी प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा दक्षिण के अधिकांश और बंगाल सहित पूर्वोत्तर के कई राज्यों में अपनी पैठ नहीं बना पा रहे हैं। मोदी ने 2019 में अपना शिखर छू लिया था। अब उतार की बेला में उनसे ज्यादा चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती। संघ परिवार इस बात को समझ रहा है। मोदी भी समझ रहे हैं। इसीलिए वे पार्टी में किसी और के कद को इतना बढ़ने देना नहीं चाह रहे कि उससे उनका कद कम नजर आने लगे। भाजपा की ध्रुविकरण की राजनीति के पैमाने में योगी, मोदी से ज्यादा कामयाब होते दिख रहे थे। मगर जैसा कि इस राजनीति की सीमाएं हैं। जिन्हें आप उग्र बनाते हैं वे शुरू में आपके हिसाब से शिकार करते हैं। मगर मुंह से खून लग जाने के बाद वे फिर किसी को नहीं बख्शते।
पहले गोरखपुर में वैश्य समाज जो संघ और भाजपा का सबसे पुराना समर्थक है से आने वाले मनीष गुप्ता की पुलिस वालों द्वारा ही निर्मम हत्या हुई और फिर परिवार एवं समाज से ही बड़े बड़े होर्डिंग लगवाकर मुख्यमंत्री को मुआवजे और पत्नी को नौकरी देने के लिए धन्यवाद दिलवाया गया। नौकरी और मुआवजा एक सामान्य सरकारी प्रक्रिया है। लेकिन पुलिस द्वारा वसूली के लिए होटल के कमरे में घुसकर इतना प्रताड़ित करना कि व्यक्ति सिऱ में लगी चोटों से मर जाए असामान्य और नई घटना है। उसके बाद भी पुलिस को बचाना और पीड़ित परिवार के खुद के बचे रहने के लिए ही शुक्र करने को मजबूर करना बहुत ही दर्दनाक और खतरनाक बात है। कानपुर में जहां का मनीष गुप्ता था वहां जो होर्डिंग लगे हैं वे यह संदेश देते हैं कि पुलिस जब गुप्ता, अमन पसंद वैश्य समाज के साथ कर सकती है तो किसी के साथ भी कर सकती है और मुआवजा दिलाकर उसके परिवार से ही आभार प्रदर्शन भी करवा सकती है। यह व्यापारी वर्ग के दबने का और पुलिस के दबदबे का बड़ा खतरनाक उदाहरण बन गया।
इसके बाद किसी को नहीं बख्शने की दूसरी भयानक घटना लखीमपुर में हुई। यहां क्रूरता के सारे रिकार्ड तोड़ दिए गए। केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी ने पहले किसानों को दो मिनट में ठीक करने की धमकी दी और फिर उनके बेटे आशीष मिश्रा ने दो मिनट से भी कम समय में शांति से सड़क पर चल रहे किसानों को अपनी गाड़ी से रौंद दिया। आगे अपनी थार गाड़ी से किसानों को रौंदते हुए निकले और पीछे दो और मंहगी गाड़ियां किसानों के उपर से निकलीं। लोगों को मारने का ऐसा भयानक दृश्य कभी फिल्मों में भी नहीं दिखाया गया था। 3 अक्टूबर 2021 को गांधी जी की जयंती के एक दिन बाद साक्षात दिखा दिया गया। पूरा देश हिल गया।
प्रियंका ने तत्काल फैसला लिया। वे लखनऊ में थीं। खबर मिलते ही लखीमपुर के लिए निकल पड़ीं। उसके आगे की कहानी अब इतिहास बन गई। मंत्री का बेटा जो किसानों को ही दोषी बताकर उन्हें ही फंसाने की साजिश कर रहा था को गिरफ्तार करना पड़ा। इस सफलता के बाद प्रियंका गांधी केन्द्रीय मंत्री की बर्खास्तगी की मांग पर डट गईं। यूपी में सीधा मैसेज जाने लगा कि राज्य और केन्द्र सरकार तथा भाजपा आरोपियों को बचा रही है। यूपी में चार सालों में भाजपा पहली बार दबाव में आई। उसके प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह को बहुत बड़ी सफाई देना पड़ी कि नेतागीरी का मतलब यह नहीं है कि हम लूटने आए हैं, फार्चूनर से कुचलने आए हैं।
इससे बड़ी सफलता प्रियंका की और क्या हो सकती है कि जहां भाजपा सोनभद्र से लेकर हाथरस, गोरखपुर कहीं भी अपनी कोई गलती मानने को तैयार नहीं थी वहां कहना पड़ रहा है कि हम लूटने, कूचलने नहीं आए हैं। प्रियंका इस बढ़त को व्यर्थ नहीं जाने देंगी। वे सोमवार को लखनऊ में गांधी स्टेच्यू पर मंत्री को बर्खास्त करने की मांग को लेकर मौन धरने पर बैठ गईं।
अखिलेश इस तरह सरकार पर दबाव नहीं बना सकते। चार साल में उन्होंने कुछ किया ही नहीं। विपक्ष के मैदान में और कोई नहीं था तो उन्हें ही विपक्ष माना जा रहा था। भाजपा को भी यह सूट करता था। एक जाति विशेष की पार्टी बताकर अखिलेश को हराना उनके लिए आसान था। मगर प्रियंका ने स्टेप आउट करके ताबड़तोड़ बल्लेबाजी से सबके गणित बिगाड़ दिए हैं। यूपी में चुनाव अब दिलचस्प हो गए हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)