घर बहुत मुश्किल से बनते हैं। घर बनाने में कई बार लोगों की उम्र निकल जाती है। उनमें लोग ही नहीं रहते, स्मृतियां भी रहती हैं। वे धीरे-धीरे हमारे साथ जीवित होते चलते हैं। गीतांजलि श्री के जिस उपन्यास ‘रेत समाधि’ को इस साल का बुकर मिला है, उसमें दरवाज़े और दीवारें तक जैसे किरदारों का काम करते हैं। प्रत्यक्षा के उपन्यास ‘बारिशगर’ में घर भी सांस लेता है।
यह बात सबको समझ में नहीं आएगी। जीवन इतना रुक्ष और उसका अनुभव इतना सपाट हो चुका है कि घर के बारे में इस तरह सोचना भी अतिरिक्त रोमानी और भावुकतापूर्ण लग सकता है। कुछ उदार लोग इस बात को एक भावुक कविता की तरह देख सकते है, इससे ज़्यादा नहीं।
लेकिन इसके बावजूद इलाहाबाद में राजनीतिक सामाजिक तौर पर सक्रिय एक परिवार का घर ढहा दिए जाने पर जो राष्ट्रीय उल्लास दिख रहा है, वह डरावना है। इसे बहुसंख्यक आबादी न्याय की तरह देख रही है। उसका कहना है कि यह किसी शरीफ़ आदमी का घर नहीं था, एक पत्थरबाज़ का घर था जिसने इलाहाबाद का माहौल बिगाड़ने की कोशिश की।
लेकिन वस्तुस्थिति क्या है? शुक्रवार सुबह के जावेद मोहम्मद के ट्वीट देख जाइए। उनसे पता चलता है कि वह माहौल बिगाड़ने की नहीं, सुधारने की कोशिश कर रहे थे। वे भीड़ तक जुटाए जाने के ख़िलाफ़ थे। फिर सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार क्यों कर लिया? क्यों बाक़ी लोगों ने ख़ुशी-ख़ुशी मान लिया कि वे तो पत्थरबाज़ और उपद्रवी हैं। क्योंकि जावेद मोहम्मद कभी नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन में शामिल थे। दरअसल बीते दो वर्षों में बहुत सारे लोग अलग-अलग आरोपों के नाम पर इसलिए सलाखों के पीछे भेजे गए कि उन्होंने कभी सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन किया था। यह प्रतिशोधी राजनीति आज जावेद मोहम्मद के ख़िलाफ़ अपनाई जा रही है तो उनको पराया मान कर बहुत खुश न हों, व्यवस्थाएं धीरे-धीरे आपकी ओर भी आएंगी, आपके घर के लिए बुलडोज़र लगाएंगी।
लेकिन इसको भी छोड़ते हैं। कुछ देर के लिए सरकार का तर्क ही मंज़ूर कर लेते हैं। जावेद मोहम्मद पत्थरबाज़ थे। लेकिन उनको सज़ा देने का हक़ किसको था? क़ानून को। इसकी एक पूरी प्रक्रिया थी। सरकार उन्हें अदालत में पेश करती, सबूत देती, अदालत सज़ा देती। लेकिन यह सबकुछ नहीं किया गया। क्योंकि अदालतें दावों से नहीं, सबूतों से फ़ैसला करती हैं और इस मामले में सबूत शायद जावेद मोहम्मद के साथ होते।
जब सत्ताएं खुद न्याय करने निकलती हैं तो ऐसे ही करती हैं। वे पहले विरोध का एक माहौल तैयार करती हैं, एक विराट जन अदालत मीडिया की मार्फ़त अपने ढंग से जुर्म तय करती है और सज़ा भी तय कर लेती है। जावेद मोहम्मद को यही सज़ा दी गई है। सरकार ने भीड़तंत्र के सरदार की तरह काम किया है। इसके लिए भी झूठ का सहारा लिया है। पुलिस कह रही है कि जावेद मोहम्मद का घर गिराने से उसका कोई वास्ता नहीं है। यह प्रयागराज विकास प्राधिकरण का फ़ैसला है जिसने अवैध निर्माण पर एक महीने पहले ही नोटिस दिया था। यह दावा संदिग्ध है, यह सबको मालूम है। सब जान ही नहीं, बता भी रहे हैं कि पत्थरबाज़ का घर ढहा कर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दंगाइयों को कितना कड़ा संदेश दिया है।
यही बात सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली है। इस पूरी कार्रवाई में न केवल प्रशासनिक तौर-तरीक़ों की अवहेलना हुई है बल्कि लोकतांत्रिक मर्यादा की धज्जियां भी उड़ाई गई हैं। बल्कि इस प्रक्रिया में जो बहुत गहरी संवेदनहीनता है और उसके समर्थन में लग रहा जो दानवी अट्टहास है, वह हमारे नागरिक विवेक को कठघरे में खड़ा करता है।
कुछ देर के लिए यह भी मान लें कि योगी आदित्यनाथ का न्याय इसी तरह काम करता है। चुस्त प्रशासनिक कार्रवाइयों के लिए वे क़ानूनी औपचारिकताओं की परवाह नहीं करते। लेकिन क्या यह सच है? क्या वाकई ग़ैरक़ानूनी कार्रवाइयों से वे इतने विचलित होते हैं? ज्यादा दिन नहीं हुए जब यूपी के लखीमपुर में एक मंत्री पुत्र पर अपनी गाड़ी से चार लोगों को कुचल देने का इल्ज़ाम लगा। मुख्यमंत्री का न्याय चलता तो वह भी किसी गाड़ी से कुचला जाता। लेकिन पुलिस उसे बचाने में लगी रही। कई दिन उसे गिरफ्तार नहीं किया गया। जब गिरफ़्तार किया गया तो अदालत में उसकी जमानत का विरोध नहीं किया गया। जिस मामले में चार लोग मारे गए, वहां किसी का घर नहीं ढहाया गया, जहां कुछ पत्थर चले, वहां एक घर ढहा दिया गया।
यह यूपी और बीजेपी सरकार का न्याय है। इस न्याय की सबसे विचलित करने वाली बात एक पूरे समुदाय के साथ दुश्मनी भरा रवैया है। पिछले पांच साल में इस देश में ऐसे कई आंदोलन हुए जिनमें इससे ज़्यादा जानमाल का नुक़सान हुआ। जो हार्दिक पटेल आज कांग्रेस से होते हुए बीजेपी की शोभा बढ़ा रहे हैं, उनके नेतृत्व में हुए पाटीदार आंदोलन के दौरान अगस्त 2015 में गुजरात में दस लोगों की मौत हुई। वहां किसके घर ढहाए गए?
फरवरी 2016 में जाट आंदोलन चला। बहुत सारे लोगों के भीतर उसकी भयावह स्मृतियां हैं। तीस लोग उसकी चपेट में आकर मारे गए। वहां किसी का घर नहीं ढहाया गया। इसके अलावा हिंसा और दंगों की दूसरी वारदातों की गाज़ भी किन्हीं औरों के घर पर नहीं गिरी।
ध्यान से देखिए तो इलाहाबाद का माहौल जावेद मोहम्मद ने खराब नहीं किया, बल्कि अब सरकार कर रही है। बल्कि वह इलाहाबाद का ही नहीं, पूरे देश का माहौल खराब कर रही है। जो लोग इसे मुसलमानों को सबक सिखाए जाने की घटना की तरह देख रहे हैं, वे बहुत खुश न हों। देर-सबेर ऐसी आक्रामकता उनके घर में भी दाख़िल होगी। दुनिया भर में राजनीतिक बरताव के अनुभव यही बताते हैं। भारत को लोकतंत्र बने रहना है, सभ्यताओं और संस्कृतियों का घर बने रहना है तो उसे घरों की परवाह करनी होगी। किसी का घर तोड़ना दरअसल अपना देश ही तोड़ने की शुरुआत होता है। सरकारों को जोड़ने का काम करना चाहिए तोड़ने का नहीं।
इस सिलसिले में सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली बात कांग्रेस-सपा-बसपा जैसे राजनीतिक दलों की निष्क्रियता है। उन्होंने ख़ुद को सोशल मीडिया के बयानों तक सीमित क्यों रखा है। क़ायदे से इन तमाम दलों को अपने कार्यकर्ताओं के साथ जावेद मोहम्मद के घर के आगे खड़ा हो जाना चाहिए था। दिल्ली में गरीबों की झुग्गी के सामने खड़ी हो गई वृंदा करात ने यह संभव किया ही कि झुग्गियां बचा लीं। क्या यही काम देश को आठ-आठ प्रधानमंत्री देने वाला इलाहाबाद नहीं कर सकता था?
लेकिन ऐसा लग रहा है कि सांप्रदायिकता की आंधी में जैसे सबकुछ उड़ गया है। इस देश में घरों और दिलों के भीतर इतने सूराख हैं कि हम सबकुछ तोड़ने पर तुले हैं। जिस टूट पर हमें दुखी होना चाहिए, उस पर ताली बजा रहे हैं। निजी तौर पर मैं जावेद मोहम्मद और उनके परिवार के आगे शर्मिंदा हूं- उस बेबस नागरिक समाज का हिस्सा होने की वजह से, जो उनका घर टूटता चुपचाप देखता रहा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, और एनडीटीवी में कार्यरत हैं, यह लेख उन्होंने ndtv.in पर लिखा था, जिसे सभार लिया गया है)