विपक्ष सड़क पर संघर्ष, चुनाव जीतने जैसी कई चीजें नहीं कर पा रहा मगर सही उम्मीदवार चुनने जैसा सामान्य काम भी नहीं कर पा रहा। राष्ट्रपति चुनाव में सबको मालूम है कि विपक्ष का उम्मीदवार हारेगा। मगर यह चुनाव लड़ा जाता है नरेटिव बनाने के लिए। कुछ समय के लिए मीडिया में अपने मुद्दे सेट करने के लिए। और खासतौर पर ऐसे समय जब मीडिया पूरी तरह बैंड पार्टी बन गया हो उस समय 26 जनवरी या 15 अगस्त के बहाने उससे दो चार देशप्रेम के गाने बजवाने के लिए।
आज मीडिया में कहीं पर भी राष्ट्रपति चुनाव नहीं है। भाजपा को उसकी जरुरत नहीं है। जितना माहौल बनाने के लिए थी उसने बना लिया। पहला आदिवासी उम्मीदवार बताकर भाजपा से असहमत लोगों का भी समर्थन ले लिया। क्या भक्त और मीडिया, भाजपा विरोधी भी इसे मास्टर स्ट्रोक मानकर विपक्ष से कहने लगे कि अपना उम्मीदवार वापस ले लीजिए। पहले आदिवासी उम्मीदवार को निर्विरोध बनने दीजिए।
सब भूल गए कि अभी एक चुनाव पहले ही इसी भाजपा ने पीए संगमा को पहला अदिवासी बताकर राष्ट्रपति का चुनाव लड़वाया था। संगमा भाजपा के बहुत प्रिय लोगों में से थे। उन्होंने भाजपा के मनपसंद इशु सोनिया गांधी के विदेशी मूल का सवाल उठाया था। मगर दस साल में ही सब भूल गए कि न तो भाजपा की उम्मीदवार द्रोपदी मुर्मू पहली महिला हैं और न ही पहली आदिवासी उम्मीदवार। मगर भाजपा को नरेटिव गढ़ना आता है और हमारे यहां मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी उसमें फंसने को हमेशा तैयार होता है तो इस बार भी वह लहालोट है कि भाजपा ने पहली बार आदिवासी उम्मीदवार दिया है और इसका समर्थन किया जाना चाहिए।
तो भाजपा को तो माहौल बनाना आता है मगर कांग्रेस और दूसरे विपक्ष को उसका तोड़ करना और अपना अजेंडा सेट करना क्यों नहीं आता है? इस समय माहौल है सीमा की सुरक्षा का, युवाओं के रोजगार का। अग्निवीर एक ऐसी योजना सरकार लेकर आई कि पूर्व सेना अधिकारियों से लेकर युवा सबमें गहरा असंतोष है। भारतीय सेना अभी तक हर विवाद से बची हुई थी। लेकिन अब सेना के विशेषज्ञ दो तरह की सेना हो जाने पर गंभीर सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि युद्ध की स्थिति में एक पूर्ण प्रशिक्षित सेना एक अर्द्ध प्रशिक्षित अग्निवीरों के साथ नहीं लड़ सकती। बहुत सारे सवाल हैं। सेना के अलग, युवाओं के अलग।
ऐसे में विपक्ष अगर कोई सेना के पूर्व अधिकारी को उम्मीदवार बनाता तो माहौल बन सकता था। वह राष्ट्रीय हित में सवाल उठा सकता था। देश की सुरक्षा के लिए बहुत घातक बताई जा रही इस योजना पर एक सार्थक बहस हो सकती थी। मगर विपक्ष द्वारा बिना सोचे समझे एक के बाद एक नाम उछाले जाने से सारा माहौल खत्म हो गया। गोपाल गांधी, फारुख अब्दुल्ला और फिर यशवंत सिन्हा। क्या हैं ये नाम? राष्ट्रपति के लिए ऐसे सामान्य नामों की एक लंबी लिस्ट बन सकती है। मगर इन नामों से माहौल नहीं बन सकता। गोपाल गांधी और फारुख अब्दुल्ला ज्यादा समझदार निकले, किनारा कर गए। मगर यशवंत सिन्हा के पास और कोई काम नहीं था इस बहाने थोड़ी चर्चा मिल जाए यह सोचकर वे आ गए। मगर इससे विपक्ष की राजनीति को क्या फायदा होगा?
2002 में भी भाजपा के प्रधानमंत्री थे। भाजपा की सारी राजनीति ही प्रतीकात्मक होती है। वास्तविकता से ध्यान हटाकर बहलाने के लिए। कलाम को उम्मीदवार बना दिया। अल्पसंख्यक के नाम पर कांग्रेस ने भी समर्थन कर दिया। मगर लेफ्ट आजाद हिन्द फौज की कैप्टन लक्ष्मी सहगल को ले आया। एक माहौल बन गया। आजादी के आंदोलन के मूल्य जीवित हो गए। और उस आंदोलन में भाजपा का क्या रोल था इस पर बात होने लगी। राजनीतिक रूप से भी लेफ्ट को फायदा मिला। और पहली बार उसे सर्वाधिक सीटें मिलीं। 53 सीटें लाकर यूपीए सरकार बनाने में उसका योगदान सबसे बड़ा हो गया।
चुनाव नरेटिव की चीज होता है। राजनीतिक दल कई बार इसीलिए लड़ते हैं कि यह समय अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का सर्वोत्तम समय होता। उन्हें अपनी हार मालूम होती है। मगर बात पहुंचाने में सफलता मिल जाती है। राष्ट्रपति चुनाव इस लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण होता है। गोदी मीडिया बहुत बेशरम हो गया है मगर फिर भी अभी इतना नहीं हुआ है कि राष्ट्पति चुनाव में विपक्ष के उठाए मुद्दों को पूरी तरह इग्नोर कर सके।
सबको मालूम है कि राष्ट्रपति चुनाव सत्ता पक्ष ही जीतता है। 2007 में भैरोंसिंह शेखावत गच्चा खा गए थे। कहने लगे कि सुषमा स्वारज ने कहा है वह अतिरिक्त वोटों का इंतजाम कर लेंगी। सामने प्रत्याशी तो कमजोर थीं। पहली महिला उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल। मगर कांग्रेस को तो माहौल बनाना कम आता है। उसके नेता इन्टरेस्ट भी नहीं लेते। केवल अपने लिए ही वह सर्वोत्तम प्रदर्शन करते हैं। पार्टी के लिए नहीं। मगर उस समय संसदीय कार्य मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी थे। व्यवाहरिक राजनीति के मास्टर। कांग्रेस की तरफ से उन्होंने मोर्चा संभाला और जीता।
सरकार को हराना कितना मुश्किल होता है यह इसीसे समझा जा सकता है कि 1969 में राष्ट्रपति के चुनाव तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने निर्दलीय वीवी गिरी को चुनाव जीतवा दिया था। कांग्रेस के प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी थे। मगर इन्दिरा जी उन्हें प्रतिक्रियावादी मानती थीं। उन्होंने मजदूरों के लिए काम करनेवाले प्रगतिशील विचारधारा के वीवी गिरी का समर्थन किया और जीता दिया। पूरे देश में एक माहौल बन गया। पुराने कांग्रेसियों ने जिनका संगठन पर कब्जा था इन्दिरा को पार्टी से निकाल दिया। मगर वे इन्दिरा गांधी थीं। इसे अवसर की तरह लिया। कांग्रेस( इ) बनाकर सारे प्रतिक्रियाविदयों को एक झटके में उठाकर बाहर फेंक दिया। देश में प्रगतिशील राजनीति की रफ्तार को फिर तेज कर दिया। राजा रानियों के प्रिविपर्स, प्रिवलेज खत्म कर दिए। बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। अनाज की जमाखोरी, कालाबाजारी करने वालों को खत्म करने के लिए हरित क्रांति की नींव रख दी। इतना अनाज पैदा किया कि एक तरफ जमाखोरों का काला धंधा खत्म हो गया दूसरी तरफ अनाज के नाम पर ब्लैकमेल करने वाले अमेरिका की दादागिरी खत्म कर दी। तभी अमेरिका के राष्ट्पति निक्सन इतना बौखलाए कि इन्दिरा गांधी का गालियां तक देने लगे। और इन्दिरा ने इसका ऐसा जवाब दिया कि दुनिया का भूगोल ही बदल दिया। अमेरिका के प्रिय पाकिस्तान के दो टुकड़े करके एक नया देश बना दिया। उस समय अमेरिका ने धमकी दी थी कि अगर इन्दिरा नहीं रुकीं तो वह अपना सातवां समुद्री बेड़ा भेज देगा। मगर उसे मालूम नहीं था कि वे इन्दिरा हैं। धमकी से और ज्यादा हिम्मती हो जाती हैं, उन्होंने वह ऐतिहासिक वाक्य कहा कि सातवां नहीं आठवां बेड़ा भी भेज दो तब भी हिन्दुस्तान की सेना को कोई नहीं रोक सकता।
सोचिए सेना में कैसा जोश आया होगा। आज उसी सेना की ताकत कम करने की बात हो रहा है। सरकार अग्निवीर योजना पर बात करने को भी तैयार नहीं है। फौजी बनने के लिए रात दिन मेहनत कर रहे युवाओं के किसी सवाल, चिंता का जवाब नहीं दिया जा रहा है। दो बड़े इशु हैं। एक सेना को दो स्तर की बनाकर कमजोर करने की बात दूसरे युवाओं को चार साल बाद 22 -23 साल की उम्र में रिटायर करके एक अलग तरह की नई बेरोजगार पीढ़ी बनाने की बात। और कोई तरीका नहीं था इस पर चर्चा का। राष्ट्रपति चुनाव मौका बन सकता था। मगर विपक्ष ने गवां दिया।