प्रज्ञा विघटनकारी, सांप्रदायिक राजनीति का असली चेहरा हैं और भाजपा की सोच का प्रतिनिधित्व करती है!

राम पुनियानी

प्रज्ञा सिंह ठाकुर भारत के सत्ताधारी दल भाजपा की कोई साधारण सदस्य नहीं हैं। वे मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से पार्टी की लोकसभा सदस्य हैं और उन्हें संसद की रक्षा मामलों की समिति का सदस्य नियुक्त किया गया था। नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताते वाले उनके वक्तव्य के बाद उन्हें इस समिति की सदस्यता से हटा दिया गया।

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प्रज्ञा सिंह का नाम सबसे पहले मालेगांव बम धमाकों के सिलसिले में सुर्ख़ियों में आया। इस आतंकी हमले में छह लोग मारे गए थे। महाराष्ट्र पुलिस के प्रतिभाशाली और अनुभवी अधिकारी हेमंत करकरे, जो बाद में 26/08 (2008) के मुंबई आतंकी हमले में मारे गए, मालेगांव हमले की जांच कर रहे थे। जांच के दौरान उन्हें पता चला कि जिस मोटरसाइकिल का उपयोग धमाके करने के लिए किया गया था, वह प्रज्ञा सिंह ठाकुर की थी। इसके बाद प्रज्ञा की गिरफ़्तारी हुई। जांच में इस षड़यंत्र की और कड़ियों सामने आईं और पुलिस ने कई अन्य लोगों को भी गिरफ्तार किया। प्रज्ञा, मालेगांव बम धमाके मामले में आरोपी हैं और इस समय चिकित्सकीय आधार पर ज़मानत पर हैं।

करकरे पर टिप्पणी

प्रज्ञा एक बार फिर तब चर्चा में तब आईं जब उन्होंने कहा कि करकरे ने उन्हें शारीरिक प्रताड़ना दी थी और उनके श्राप के कारण ही करकरे को अपनी जान गंवानी पड़ी। पार्टी के शीर्ष स्तर से दबाव के चलते उन्हें अपना यह दावा वापस लेना पड़ा। उसके बाद उन्होंने फ़रमाया कि नाथूराम गोडसे देशभक्त थे, देशभक्त हैं और देशभक्त रहेंगे। इसके बाद उन पर फिर दबाव डाला गया और एक बार फिर उन्होंने अपना वक्तव्य वापस लिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि वे प्रज्ञा को कभी माफ़ नहीं कर पाएंगें।

अब प्रज्ञा ने वर्ण व्यवस्था पर अपने विचारों से अखिल विश्व को अवगत कराया है। इसी महीने की 13 तारिख को उन्होंने कहा कि शूद्रों को शूद्र कहलाना इसलिए बुरा लगता है क्योंकि वे ‘अज्ञानी’ हैं और भारत की सामाजिक व्यवस्था से परिचित नहीं हैं। क्षत्रिय महासभा द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रज्ञा ने कहा कि हमारे धर्मशास्त्रों ने समाज को चार श्रेणियों में विभाजित किया है। उन्होंने यह भी कहा कि “क्षत्रियों का यह कर्त्तव्य है कि वे ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करें ताकि उनके बच्चे सेना में भर्ती होकर देश के लिए लड़ सकें और देश की सुरक्षा को मजबूती दे सकें।” यह हो सकता है कि एक बार फिर उन पर दबाव डाल कर उन्हें यह वक्तव्य वापस लेने पर मजबूर कर दिया जाए। परन्तु जो कुछ उन्होंने कहा वे उनके व्यक्तिगत विचार नहीं हैं। वे सांप्रदायिक राष्ट्रवादियों की सोच को प्रतिबिंबित करते हैं।

करकरे ने मालेगांव मामले की पेशेवराना और सूक्ष्म जाँच की थी। परन्तु अब प्रचारित यह किया जा रहा है कि यूपीए-2 सरकार हिन्दू राष्ट्रवादियों को इस मामले में फंसाना चाहती थी। इस प्रकरण में दो आरएसएस कार्यकर्ता अब भी जेल में हैं। अन्यों को या तो ज़मानत मिल गई है या उन्हें बरी कर दिया गया है। इसका कारण यह है कि अभियोजन को इस मामले को ढील देने को कहा गया है। मुंबई की अदालत में इस मामले में सरकारी वकील रोहिणी सालियन ने जब यह निर्देश मानने से इंकार कर दिया तो उन्हें हटा दिया गया।

जहाँ तक गोडसे का सवाल है, प्रज्ञा के अनेक विचारधारात्मक साथी खुलेआम गांधीजी के हत्यारे का महिमामंडन करते रहे हैं और देश में कई स्थानों पर गोडसे के मंदिर बन गए हैं। हिन्दू महासभा की पूनम पांडे ने 30 जनवरी 2019 को महात्मा गाँधी की हत्या की घटना का पुनर्सृजन किया था।

धर्म आधारित राष्ट्रवाद का सत्य

धर्म पर आधारित राष्ट्रवादी विचारधारा के झंडाबरदार जाति-वर्ण व्यवस्था को न उगल पा रहे हैं और ना निगल पा रहे हैं। अम्बेडकर ने वर्ण और लैंगिक ऊंचनीच की व्यवस्था को औचित्यपूर्ण ठहराने वाली मनुस्मृति का सार्वजनिक रूप से दहन किया था परन्तु संघ के दूसरे सरसंघचालक एम।एस। गोलवलकर ने मनु की प्रशंसा करते हुए कहा था उनके द्वारा बनाई गयी संहिता आज भी प्रासंगिक और उपयोगी है। संघ के मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ ने भारत के संविधान की इस आधार पर आलोचना की थी कि वह मनुस्मृति पर आधारित नहीं है। कई हिन्दू राष्ट्रवादियों का तर्क था कि मनुस्मृति होते हुए भारत को एक नए संविधान की ज़रुरत ही क्या है।

विघटनकारी विचारधारा के समर्थकों के सामने समस्या यह है कि उन्हें एक ओर ऐसी भाषा में बात करना है जो वर्तमान समय के अनुकूल हो। परन्तु साथ ही उन्हें पुरानी सामाजिक व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने का प्रयास भी करना है। उन्हें एक ओर भारत की संविधान के प्रति अपने निष्ठा भी प्रदर्शित करनी है तो दूसरी ओर संविधान को कमज़ोर भी करना है। उन्हें एक ओर मुसलमानों का दानवीकरण करने के लिए हिन्दुओं को गोलबंद भी करना है तो दूसरी ओर दलितों को पददलित बनाए भी रखना है। जाहिर कि यह सब एक साथ करना एक जटिल और कठिन काम है।

अम्बेडकर का लक्ष्य था जाति का उन्मूलन। परन्तु हिन्दू राष्ट्रवादी ‘सामाजिक समरसता मंचों’ के ज़रिये जाति व्यवस्था को मजबूती देने का काम कर रहे हैं। उनका दावा है कि प्राचीन काल में सभी जातियां बराबर थीं और सभी जातियों के लोग मिलजुलकर एक साथ रहते थे। आगे चलकर मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया और जिन जातियों ने इसका विरोध किया उनका दर्जा नीचा कर दिया गया। हमारे प्रधानमंत्रीजी ने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोग’ में लिखा है कि हाथ से मैला साफ़ करने वाले अपनी आजीविका के लिए नहीं बल्कि ‘आध्यात्मिक आनंद’ के लिए ऐसा करते हैं। सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिये दलितों और आदिवासियों को हिन्दुत्वादियों की जमात में शामिल करने के प्रयास हो रहे हैं और इन समुदायों के लोगों का उपयोग हिन्दू राष्ट्रवाद के सिपाहियों बतौर किया जा रहा है। भाजपा ने सत्ता का लालच देकर कई दलित नेताओं को अपने साथ ले लिया है।

प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने जो कुछ कहा है, वह सत्ताधारियों और आरएसएस के एजेंडा के अनुरूप है। इस विचारधारा के लोग जो कहते हैं, वह उनका मंतव्य नहीं होता और जो उनका मंतव्य होता है, वे उसे व्यक्त नहीं करते। हम सब जानते हैं कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं। वे समानता की बात करते हैं परन्तु जाति और वर्ण व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं।

क्षत्रियों से ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने का आव्हान भी संघ की विचारधारा से मेल खाता है। अतीत में संघ के कई मुखिया परिवार नियोजन कार्यक्रम का इस आधार पर विरोध कर चुके हैं कि इससे मुसलमानों की आबादी बढ़ती है क्योंकि मुसलमान परिवार नियोजन के साधन नहीं अपनाते। मजबूरन इन आजीवन ब्रह्मचारियों को हिन्दू महिलाओं को समझाना पड़ रहा है कि वे ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करें। प्रज्ञा सिर्फ क्षत्रियों से ज्यादा बच्चे पैदा करने को कह रहीं हैं। क्या आगे चलकर क्षत्रियों को सेना की भर्ती में प्राथमिकता दी जाएगी?

प्रज्ञा विघटनकारी, सांप्रदायिक राजनीति का असली चेहरा हैं। यह राजनीति मुसलमानों का हाशियाकरण चाहती है और हिन्दुओं को एक करने का नाटक खेलते हुए जातिगत और वर्ण-आधारित पदक्रम को मजबूती देना चाहती है।

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)