पलश सुरजन का सवाल: क्या हम ज़िंदा देश हैं?

रूस और यू क्रेन के बीच छिड़ी जंग का तनाव भारत में भी महसूस किया जा रहा है। जिन अभिभावकों के बच्चे युद्धग्रस्त क्षेत्रों में फंसे हुए हैं, उनके लिए तो ये दिन नर्क की यातना भोगने समान ही हैं और जिनका इन बच्चों से कोई सीधा नाता नहीं है, वे संवेदनशील लोग भी उनकी दशा देखकर चिंता में हैं। दो-तीन दिन पहले सुमी में फंसे छात्रों का एक वीडियो आया था, जिसमें वे भारत सरकार से मदद की गुहार लगाते हुए कह रहे हैं कि उनके पास अब खाने-पीने का भी इंतज़ाम नहीं है और बाहर जाने की हालत नहीं है क्योंकि लगातार गोलीबारी हो रही है। इसके बाद एक और वीडियो सामने आया, जिसमें कई बच्चे एक साथ खड़े हैं और बता रहे हैं कि अब वे छह सौ किमी दूर स्थित सीमा पर जाएंगे और इस दौरान अगर उन्हें कुछ होता है तो इसकी ज़िम्मेदार भारत सरकार होगी।

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दरअसल रूस ने नागरिकों की रिहाई के लिए छह घंटे का युद्ध विराम किया था, जिसके बाद इन बच्चों ने खुद ही लड़ाई वाले इलाके से निकलकर सीमा तक जाने का निश्चय किया, ताकि वहां से भारत लौटने का इंतजाम हो सके। जब बचाव का कोई और विकल्प नहीं मिला, तो मजबूरी में बच्चों को बर्फ और ठंड के बीच छह सौ किमी पैदल चलने का फैसला करना पड़ा। हालांकि इस फ़ैसले में काफ़ी जोखिम है, क्योंकि बच्चे को कोई सैन्य प्रशिक्षण नहीं मिला है, न ही उनके पास इतना रसद-पानी या बाकी संसाधन होंगे कि वे इतनी लंबी यात्रा करें। लेकिन जब ज़िंदगी बचाने का सवाल सामने आया तो फिर यह ख़तरा उठाना ही पड़ा।

दो साल पहले लॉकडाउन के वक़्त प्रवासी मज़दूरों को तपती गर्मी में ऐसे ही लौटना पड़ा था। तब भी उनकी मदद के लिए सरकार आगे नहीं आई थी। हालांकि कुछ स्वयंसेवी संगठनों और समाजसेवियों ने उनकी मदद की। उन मजदूरों की दुर्दशा दर्ज करने के लिए मीडिया भी उनके साथ कई जगहों पर चला, कुछ लोगों ने इस पर लेख लिखे, किताबें लिखीं, वृत्तचित्र बनाए। सरकार की लापरवाही से उपजी एक त्रासदी बाकायदा विवरणों के साथ दर्ज हो गई।

मज़दूर अपने देश में ही शरणार्थियों की तरह इधर से उधर मदद के लिए भटके, इसलिए शायद उन्हें मदद मिल भी गई। मगर यूक्रेन पराई जमीन है, जहां देश के अपनत्व का अहसास केवल दूतावास ही दे सकता था। लेकिन दूतावास यानी भारत सरकार इसमें बुरी तरह असफल रही। सूमी से पैदल छह सौ किमी की यात्रा करने निकले बच्चों की परेशानियां दर्ज करने वाला कोई नहीं है। अपने साथ हुए अन्याय का लेखा-जोखा खुद उन्हें ही दर्ज करना होगा। कुछ वर्षों बाद शायद इन दोनों त्रासदियों की तुलना भी हो कि किसमें किसे अधिक तकलीफ हुई, अधिक नुक़सान हुआ। कैसी विडंबना है कि हमारे सामने सरकार निर्मित दो त्रासदियों की तुलना करने की नौबत आ गई है, जबकि वादा तो अच्छे दिनों का था।

अच्छे दिनों के वादों पर आंख मूंदकर ऐतबार करना और बुरे दिनों को देखने के बाद भी जुबान न खोलने की ग़लती अब हमारे बच्चों पर भारी पड़ रही है। पिछले सात सालों का एक हासिल ये भी रहा है कि इस देश के मध्यमवर्ग ने अपने मुंह को सिलना कुछ और अच्छे से सीख लिया है। यूपीए शासन या उससे पहले एनडीए शासन के वक्त भी देश में कई बातों को लेकर नागरिकों के बीच कई किस्म की नाराज़गी रही, लेकिन उस नाराज़गी के इज़हार पर कभी पाबंदी नहीं थी। हमेशा लोगों ने मुखर होकर सरकार की गलत बातों का विरोध किया और सरकार ने उस विरोध की अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त जगह भी दी। लेकिन अब ऐसा माहौल नहीं है।

सरकार ने तो विरोध के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी ही नहीं है, मध्यमवर्ग ने भी लोकतंत्र में विरोध का अपना हथियार डाल दिया है। वर्ना क्या किसी ज़िंदा देश में यह मुमकिन होता कि हजारों बच्चे दूसरे युद्धग्रस्त देश में फंसे रहें, प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार में व्यस्त रहें, डमरू बजाने, पान खाने में मस्त रहें और जनता चुपचाप सरकार के तमाशे को देखती रहे। जिन मां-बाप के बच्चे यूक्रेन में फंसे हैं, क्या उनके अलावा यह किसी और के लिए दुखी और परेशान होने वाली बात नहीं है। क्या यूक्रेन में बचाव के नाम पर चलाए जा रहे ऑपरेशन गंगा की तमाशेबाजी के खिलाफ इस आजाद देश में कोई धरना-प्रदर्शन, जुलूस नागरिक समाज की ओर से आयोजित हुआ है, जो सरकार को उसकी जिम्मेदारियों की याद दिलाए। क्या यह समय केवल सोशल मीडिया पर दो-चार तस्वीरें और टिप्पणियां करके शांत हो जाने का है। क्या शाहीन बाग और किसान आंदोलन से इस देश के मध्यमवर्ग ने कुछ नहीं सीखा।

अगर नहीं सीखा तो फिर इस बात पर भी अफ़सोस करने का कोई अर्थ नहीं है कि अब भारत में आंशिक लोकतंत्र रह गया है। भारत में लोकतंत्र की गिरावट पिछले कुछ बरसों से जारी ही है। अब अमेरिका की गैर लाभकारी संस्था फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2022 में ग्लोबल फ्रीडम स्कोर के तहत भारत को सौ में से केवल 66 अंक मिले हैं और यहां आंशिक आजादी बताई गई है। मलावी और बोलिविया की जो स्थिति है, वही स्थिति अब भारत की भी है। राजनैतिक अधिकारों के तहत कुल 40 अंकों में से भारत को 33 अंक मिले हैं, जबकि नागरिक अधिकारों के तहत कुल 60 अंकों में से महज 33 अंक ही दिए गए हैं। फ्रंटलाइन डिफेंडर्स और ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स मेमोरियल की रिपोर्ट ग्लोबल एनालिसिस 2021 के अनुसार पिछले वर्ष के दौरान दुनिया के कुल 35 देशों में 358 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ह्त्या की गई, और इसमें कुल 23 हत्याओं के साथ हमारा देश चौथे स्थान पर है।

इस तरह की रिपोर्ट से पता चलता है कि लोकतंत्र की गिरावट के साथ-साथ मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी औऱ नागरिक स्वतंत्रता सब में गिरावट आई है। इस स्थिति के लिए बेशक सरकार ही जिम्मेदार है, क्योंकि उसने अपने विरोध की गुंजाइश कम करने की कोशिश की है। मगर देश के नागरिक भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं, जो इतने आत्मकेन्द्रित हो चुके हैं कि उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पड़ोस के घर में आग लगी है। हम शायद तभी जागेंगे जब आग की तपिश हम तक पहुंचेगी।

(लेखक देशबन्धु के संपादक हैं, यह लेख उनके संपादकीय से लिया गया है)