पुष्परंजन
‘ मैं….पुत्र/पुत्री एतद द्वारा घोषणा करता हूं कि मैं अफग़ान/बांग्लादेशी/पाकिस्तानी नागरिकता प्राप्त हिंदू, सिख, जैन, पारसी, ईसाई अल्पसंख्यक समूह से संबंधित हूं। भारत में शरण लेने के वास्ते हमें विवश किया गया, क्योंकि हमें किसी धार्मिक अभियोजन में फंसा दिये जाने का भय था।‘ यह उस आवेदन की भाषा है, जिसके ज़रिये इन मुल्कों से भागकर आये ग़ैर मुस्लिम शरणार्थियों को उम्मीद बंधी है। लेकिन क्या वास्तव में अफग़ानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से आये ग़ैर मुस्लिम शरणार्थियों को आबोदाना और आशियाना के अवसर प्राप्त हो रहे हैं? यह सवाल अंतरराष्ट्रीय फोरम पर पूछना और भी कठिन है, क्योंकि भारत ने 1951 के ‘यूएन रिफ्यूज़ी कन्वेंशन‘ और 1967 में बने प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर से इंकार किया था, इसलिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित शरणार्थी संरक्षण फ्रेमवर्क को मानने के लिए वह बाध्यकारी नहीं है।
लोगों को 15 अगस्त 2021 का मंज़र याद नहीं जब दक्षिण दिल्ली के वसंत विहार स्थित संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयोग (यूएनएचसीआर) के कार्यालय पर 13 दिनों से विस्थापित घरना दे रहे थे। वो अफग़ानिस्तान से आये लोग थे, जिन्हें शरणार्थी कार्ड चाहिए था। हमसा विजयराधवन जो कभी ‘यूएनएचसीआर‘ में चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर रह चुकी हैं, बताती हैं कि आयोग के समक्ष दुविधा है कि अफ़गानिस्तान से हम सीमा साझा नहीं करते, इस तकनीकी दिक्कत की वजह से उन्हें ‘ब्लू बुक‘ नहीं जारी किया जा रहा।
‘ब्लू बुक‘ या ‘ब्लू पेपर‘ मिल भी जाए, तो उससे सारी समस्याओं का समाधान नहीं है। इन शरणार्थियों के बैंक अकाउंट ‘ब्लू बुक‘ के आधार पर नहीं खुल सकते। खाता खुलवाने के लिए बैंक वाले आधार कार्ड मांगते हैं। बैंक अकाउंट नहीं, तो पैसे ट्रांस्फर होंगे नहीं। अब सवाल यह है, उन्हें अफगानिस्तान से ढोकर लाने के बाद की समस्याओं से भारत सरकार वाबस्ता क्यों नहीं है? मार्च 2021 तक भारत में रह रहे विस्थापितों के बारे में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयोग ब्योरा देता है कि श्रीलंका से आये 94 हज़ार 505, तिब्बत से आये 73 हज़ार 404, म्यांमार से आये 22 हज़ार 459 शरणार्थी, अफग़ानिस्तान से आये 15 हज़ार 217 व अन्य 3, 629 विस्थापित उसकी सूची में हैं। मार्च 2021 में 41 हज़ार 315 पनाह लेने वाले ‘यूएनएचसीआर‘ में रजिस्टर्ड किये गये, इनमें 54 फीसद म्यांमार से और 37 प्रतिशत अफग़ानिस्तान से उजड़े हुए लोग थे।
‘यूएनएचसीआर‘ ने भारत में दो लाख, 8065 लोगों को ‘पॉपुलेशन ऑफ कंसर्न‘ की सूची में रखा है। ‘यूएनएचसीआर‘ को 30 मार्च 2021 तक जो आर्थिक सहायता संयुक्त राष्ट्र से मिली है, वह केवल 1.3 मिलीयन डॉलर है, जो ज़रूरत का केवल 11 फीसद है। इस राशि से दिल्ली व चेन्नई कार्यालय, 28 नेशनल स्टाफ, 6 इंटरनेशनल स्टाफ, और 32 ‘एफिलिएट वर्क फोर्स‘ शामिल हैं। यूएनएचसीआर को सहयोग देने में केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधिकारी, आठ एनजीओ, और बहुत सारे प्राइवेट डोनर्स तत्पर दिखते हैं। मगर फिर भी ‘यूएनएचसीआर‘ का दिल्ली कार्यालय मानता है कि यह नाकाफी है, 89 फीसद सहायता हमें और चाहिए।
60 के दशक से ही तिब्बती शरणार्थी हमारी चीन कूटनीति के काम आते रहे। 70 के बाद, बांग्लादेशी व रोहिंग्या शरणार्थी राजनीतिक माहौल गरमाने के लिए इंधन का काम करते रहे। शरणार्थियों का सबसे बड़ा हिस्सा तमिलनाडु में है, जो उत्तर भारत के लोगों की संवेदना और सरोकार का विषय नहीं बना। जो लोग पर्यटन के वास्ते तमिलनाडु जाते हैं, कभी श्रीलंका से आये शरणार्थी कैंपों का रूख़ कर लें। यक़ीन मानिये, हिल जाइयेगा। ये लोग उसी कालखंड में श्रीलंका से आये थे, जब कश्मीर से पलायन शुरू हुआ था।
27 अगस्त 2021 को तमिलनाडु विधानसभा को संबोधित करते मुख्यमंत्री एम.के. स्तालिन ने जानकारी दी थी कि 1983 से अबतक श्रीलंका से तीन लाख 4269 शरणार्थी आ चुके हैं, जिनमें से 18 हज़ार 944 परिवारों के 58 हज़ार 822 लोग तमिलनाडु के 29 ज़िलों के 108 कैंपों में रखे गये हैं। 34 हज़ार 87 लोग अलग से किन्हीं ठिकानों पर रह रहे हैं। सरकार 58, 822 लोगों के वास्ते सुविधाएं देने पर 371 करोड़ रूपये ख़र्च कर रही है, जिसमें से 261 करोड़ 54 लाख विभिन्न कैंपों में अधोसंरचना पर राज्य सरकार ख़र्च करेगी।
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी आयोग का चेन्नई कार्यालय बताता है कि 2002 से 2020 के बीच 17 हज़ार 718 तमिल शरणार्थी श्रीलंका प्रत्यर्पित किये जा चुके हैं। यानी, यूएनएचसीआर की सूची में जो 94,505 तमिल शरणार्थी थे, उनमें से 17 हज़ार 718 रिफ्यूज़ी श्रीलंका वापिस भेज दिये गये। बच गये 76 हज़ार 787। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री 3 लाख 4269 शरणार्थी बता चुके हैं, जिनमें से राज्य सरकार की निगाहों में कैंपों में रहने वाले 58 हज़ार 822 और अलग-अलग ठिकानों में रहने वाले 34 हज़ार 087 यानी कुल जमा 92 हज़ार 909 तमिल शरणार्थी सरकार की सूची में हैं। जो लाखों शरणार्थी श्रीलंका वापिस नहीं हो पाये, वो आखि़र कहां और किन हालात में हैं?
शरणार्थी कोई शौक से नहीं बनता। आतंकवाद, दंगे, या फिर युद्ध जैसे हालात उसे विस्थापन को विवश करते हैं। मगर, अब हो यह रहा वह यह कि ज़ख्म के टांके को बार-बार खोलो, और तबतक खोलो, जबतक कि सियासत हासिल हो जाए। क्या इस देश में आये सारे शरणार्थियों को एक जैसी मदद मिल रही है? 27 अगस्त 2021 को मुख्यमंत्री एम.के. स्तालिन तमिलनाडु विधानसभा को संबोधित कर रहे थे, बताया कि अबतक हम जिस शरणार्थी परिवार प्रमुख को हज़ार रूपये की सहयोग राशि दे रहे थे, उसे बढ़ाकर पन्द्रह सौ प्रतिमाह कर दिया है। 750 रूपये पाने वाले युवा शरणार्थी, हज़ार रूपये पाया करेंगे। 12 साल और उससे नीचे के बच्चों को 400 से बढ़ाकर 500 रूपये की आर्थिक सहायता हम देने जा रहे हैं। यह ठीक है कि इन्हें सस्ते चावल, साल में मुफ्त के पांच गैस सिलेंडर सरकार मुहैया करा रही है। फिर भी आप ईमानदारी से बताइये कि उपरोक्त राशि से कैंप में रहने वाले किसी भी शख्स का गुज़ारा हो सकता है क्या? इनमें से अधिकांश लोग तमिलनाडु के विभिन्न शहरों में मज़दूरी-बेलदारी, रिक्शा चलाकर, हाउस हेलपर के रूप में गुज़ारा कर रहे हैं।
कश्मीरी शरणार्थियों के हालात इनसे कई गुणा बेहतर हैं। आप दिल्ली-एनसीआर में एक भी कश्मीरी शरणार्थी को दिखा दें, जो मज़दूरी करता हो, रिक्शा- ठेली चलाता हो। उसकी वजह सरकारों का उनके प्रति संवेदनशील होना भी रहा है। तीन श्रेणियां रही हैं कश्मीरी विस्थापितों की। पहला, जो पीओके से 1947 के बाद आये। दूसरे ‘डीपी‘ वो, जो 1965 और 1971 में छंब से उजड़ कर भारत आये। पीओके और छंब से आये ऐसे 36 हज़ार 384 परिवार थे, जिनपर कोई 2 हज़ार करोड़ ख़र्च कर उन्हें बसाया गया। गृह मंत्रालय के अनुसार, ‘उसमें राज्य शासन ने 308 रूपये दिये, बाक़ी 5 लाख 49 हज़ार 662 रूपये केंद्र सरकार ने दिये।‘ 20 अक्टूबर 2014 को जम्मू-कश्मीर सरकार ने केंद्र को पत्र लिखकर मांग की थी कि 36 हज़ार 384 परिवार जो पीओजेके व छंब से उजड़ कर आये हैं, उनके पुनर्वास के लिए प्रति परिवार 25 लाख रूपये दिये जाएं, जिसपर कुल जमा 9096 हज़ार करोड़ ख़र्च होंगे।
कश्मीरी शरणार्थियों की एक तीसरी श्रेणी है, जो 1990 के दशक में आतंकवाद के शिकार हुए, और उन्होंने घाटी छोड़ देने का फैसला किया था। गृह मंत्रालय की फाइल में इनकी संख्या 62 हज़ार बताई गई है, जिनमें से 40 हज़ार परिवार जम्मू में बस गये। दिल्ली-एनसीआर में 20 हज़ार परिवार बसे, बाकी दो हज़ार कश्मीरी पंडितों का परिवार देश के दूसरे हिस्सों में आबोदाना-आशियाना की तलाश में निकल पड़ा। कश्मीरी विस्थापित परिवार के प्रत्येक सदस्य को ढाई हज़ार रूपये और एक परिवार को अधिकतम दस हज़ार रूपये की आर्थिक सहायता प्रतिमाह दी जाती है। महीने में नौ किलो चावल, दो किलो आटा प्रति व्यक्ति, और प्रति परिवार एक किलो चीनी मुफ्त देने की व्यवस्था सरकार ने कर रखी है। 2004 में प्रधानमंत्री पैकेज के तहत दो रूम सेट वाले 5242 फ्लैट जम्मू के चार लोकेशंस पुरखो, मूथी, नागरोटा, और जगती में दिये। 2008 में सरकार ने घाटी स्थित शेखपुरा के बदगाम में 200 फ्लैट बनाकर कश्मीरी पंडितों को दिये, इसके साथ 31 फ्लैट लोकल विस्थापितों को सरकार ने मुहैया कराये।
कश्मीरी पंडित जैसे भी घाटी में लौट आएं, उस महत्वाकांक्षी योजना के तहत 2461 विस्थापितों को राज्य सरकार में नौकरी और 505 को ट्रांजिट आवास सुविधाएं 2008 में दी गईं। केंद्रीय गृह मंत्रालय से ही जानकारी मिली कि 18 नवंबर 2015 को जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार में तीन हज़ार नौकरियां विस्थापितों के लिए सृजित की गईं, साथ में घाटी में छह हज़ार ट्रांज़िट आवास देने की व्यवस्था की गई। केंद्र सरकार ने दुर्गम पहाड़ी इलाके़ में रहने वाले विस्थापित परिवारों को अधिकतम दस हज़ार रूपये प्रतिमाह, नौ किलो आटा, दो किलो चावल, 10 लीटर किरासन तेल और प्रति मवेशी 300 रूपये चारे के वास्ते देना तय किया था।
कश्मीरी पंडित घाटी में आयें और बसें, इसके निस्बतन पांच ‘जे.एंड के. रिजर्व बटालियन‘ सृजित कर 4340 कांस्टेबल भर्ती किये गये। जेएंड के पुलिस में ‘एसपीओ‘ के वास्ते 25 हज़ार 474 पोस्ट सृजित किये गये, उनमें सर्वाधिक संख्या विस्थापन के शिकार कश्मीरी पंडित परिवारों के युवाओं की बताई जाती है। इन सबके के अलावा देश के शि़क्षण संस्थानों में विस्थापित कश्मीरी छात्रों के लिए आरक्षण, केंद्र सरकार की नौकरियों में उन्हें दी जाने वाली प्राथमिकताओं से कोई भी व्यक्ति देश के शेष शरणार्थियों से तुलना कर ले।
फिर भी लोगों को लगता है कि कश्मीरी पंडितों के लिए सरकारें कुछ नहीं कर रहीं, यह एकतरफा और बेइमानी भरा वक्तव्य है। दो बातें मेरी जिज्ञासा के केंद्र में है। पहला, जिन विस्थापित कश्मीरी पंडितों को प्राइवेट या सरकारी नौकरी मिली हुई है, क्या वो मुफ्त राशन, आवास, हर माह मिलने वाली आर्थिक सहायता का लाभ अब भी उठा रहे हैं? दूसरा, कश्मीरी पंडितों की जो नई पीढ़ी महानगरों में सेटल्ड है, क्या वो सचमुच घाटी में लौटना चाहती है? सरकार सर्वे कराये, और श्वेत पत्र के माध्यम से स्पष्ट करे। क्योंकि जो सहायता दी जा रही है, वो देश के टैक्स पेयर्स का पैसा है!