हमारे स्टूडेन्ट विदेश में बेबस हैं और हम! विश्व गुरु बनने का ढोल पीट रहे हैं!

लिखने का मन नहीं कर  रहा! क्या लिखें? जब परिस्थितियां इतनी बुरी नहीं थीं, तब राजेन्द्र यादव ने लिखा था न लिखने का कारण। आज आप कुछ भी लिखो, न लिखो भक्त कहते हैं यूक्रेन क्यों गए थे? और भक्त तो ठीक है गोदी मीडिया भी ठीक यही सवाल करता है और ज्यादा तल्खी से करता है कि किसने कहा था आपको विदेश जाकर पढ़ने के लिए? मतलब गए हो तो भुगतो! प्रधानमंत्री मोदी ने भी यही कहा था कि क्या 600 किसान मेरे लिए मरे? मणिपुर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने सबके सामने भरी जनसभा में यह कहा। और सबसे दुखद, चिन्ताजनक बात यह है कि लोग ये बातें सुन रहे हैं और मान रहे हैं कि सही तो है, क्यों गए थे विदेश पढ़ने? अब मोदी इसमें क्या कर लेगा?

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इंसान भेड़ों में बदल गए हैं। कभी कहा जाता था कि जादू से आदमी को बकरा बना लिया जाता है। और फिर जरूरत पड़ने पर आदमी। अब यह तो पता नहीं कि वापस आदमी कैसे बनेगा। यह तो बनाएंगे नहीं। कोई और वापस भारत को फिर महान भारत बनाए। जनता को वापस उसका विवेक, बुद्धि, चेतना लौटाए ऐसा पता नहीं कब होगा। कहानियों में तो कोई राजकुमार आता था और जादू का असर खत्म करके लोगों को वापस इंसान बना देता था। यहां भी हम उस नए वक्त का इंतजार कर रहे हैं कि जब टीवी चैनलों, व्हट्सएप मैसेजों और सत्ताधारी दल के बनाए नरेटिव (झूठी कहानियां) को तोड़कर कोई फिर से सत्य की सत्ता स्थापित करेगा।

कभी कभी लगता है कि वह समय आ रहा है। आखिर झूठ कब तक चलेगा। दुनिया के इतिहास में यह बार बार साबित हुआ है कि झूठ, नफरत, मूर्खता पर एक्सपायरी डेट नहीं लिखी होती। अचानक ही उनका अंत हो जाता है। परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि फिर उसमें कोई इवेंट मैनेजमेंट, ट्रिक, बातों का असर, नफरत का भड़काऊ माहौल कुछ नहीं चलता और अपने आप ही सारे झूठ के महल भरभरा कर गिर जाते हैं। आज यूक्रेन में फंसे बच्चे जिस तरह मदद मांग रहे हैं, उनके दिल हिला देने वाले वीडियो आ रहे हैं यब वही है जिसे तुलसीदास ने कहा था-

“तुलसी आह गरीब की कबहूं ने निष्फल जाए

मरी खाल की स्वांस से लौह भसम होई जाए।“

अगर इन बच्चों की, जो कई दिन के भूखे प्यासे हैं, माइनस डिग्री के टेम्प्रेचर में सड़क पर पड़े हुए हैं। और वहां भी पुलिस से पिट रहे हैं, लड़कियों के बाल पकड़कर घसीटा जा रहा है। और भी खराब खबरें आ रही हैं। एक छात्र मर गया। पर हम द्रवित नहीं होते तो फिर यह समझ लेना चाहिए कि हम बातें चाहे जितनी करें, मानव अच्छे नहीं हैं। मानवीय मूल्य खो चुके हैं। मजदूर जब पैदल चले थे तब भी, किसान सड़क पर मरे तब भी, कोरोना में मरे और चिता भी नहीं मिली तब भी हम ऐसे ही निष्ठुर बने रहे। फिर किस बात का रोना रोते हैं कि अंग्रेज आए हम पर कब्जा कर लिया। इन हालातों को देखकर तो लगता है कि हम खुद ही उनके सामने बिछ बिछ गए होंगे।

अगर बच्चों के दर्द से भी संवेदना नहीं जागती तो और उल्टे उन पर ही आरोप लगाने लगते हैं कि उन्होंने एडवाजरी क्यों नहीं मानी। यह दुष्ट पड़ोसी का वैसा ही तर्क हुआ कि हमने तो आपके बच्चे को मना किया था मगर उसने एडवाइज नहीं मानी। अरे भाई माना कि एडवाइज नहीं मानी तो गिरे हुए बच्चे को उठा तो लेते। मगर नहीं बच्चे की मदद करने के बदले वह यही कहता रहता है कि मेरी बात नहीं मानी। अपनी बातों का महत्व, उसकी गंभीरता खुद नष्ट करके बहाना यह है कि हमारी नहीं सुनी।

कोरोना को जब मोबाइल की टार्च, मोमबत्ती से भगा रहे थे तो भाजपा के महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने इन्दौर में कहा था कि कुछ लोगों ने मोमबत्ती नहीं जलाई इसीलिए इन्दौर में कोरोना फैला। एडवाइजरी नहीं यह तो कानून बनाया कि मास्क अनिवार्य है। मगर प्रधानमंत्री मोदी, केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह कई सार्वजनिक स्थानों पर बिना मास्क के दिखे। और राहुल गांधी जिन्होंने पूरी तरह मास्क लगाने के नियम का पालन किया उन पर सवाल उठाए कि यह खाना भी मास्क लगाकर खाएंगे। इस स्तर पर जाकर आप विदेश में फंसे बच्चों से उल्टा सवाल कर रहे हैं कि वापस आने की एडवाइजरी क्यों नहीं मानी?

एयर इंडिया जिसे प्राइवेट हाथों में दे दिया उससे नहीं पूछा कि तुमने तीन गुने किराए क्यों बढ़ा दिए? मध्यम वर्ग के बच्चों को ऐसा समझ रखा था जैसे कोरोना की शुरुआत में सब बड़े उद्योगपतियों ने अपने बच्चों को प्राइवेट प्लेन से विदेशों से भारत बुलवा लिया था। दो चार तो ऐसी घटनाएं भी हुईं कि कई सौ पैसेन्जर ला सकने वाले बोइंग में किसी सेठ का एक बच्चा ही बैठकर वापस आया। तो ऐसे ही पढ़ रहे स्टूडेन्ट्स को समझ रहे थे। देश में अपने घर गांव से दूर रहकर शहरों में पढ़ रहे बच्चों की तरह ही विदेश में पढ़ रहे ये बच्चे भी एक एक पैसा बचाकर किफायत से ही नहीं कई बार परेशानी उठाकर भी रहते थे।

सवाल सरकार से पूछा जाना चाहिए था कि जब बाकी देश अपने बच्चों को निकाल ले गए तो तुम क्या कर रहे थे? मगर डर इतना है कि हम उल्टे बच्चों से पूछ रहे हैं कि तुम क्या कर रहे थे? राहुल गांधी से पूछ रहे हैं। यहां तक कि महात्मा गांधी से पूछ रहे हैं कि तुमने तो बिना खड्ग, बिना ढाल देश को आजादी दे दी थी अब बच्चों को क्यों नहीं ला पा रहे?

यह कौन सा नया भारत बना रहे हैं हम! विश्व गुरु बन रहे हैं, मगर हमारे स्टूडेन्ट विदेश में बेबस हैं। पिट रहे हैं। जब चारों तरफ से आलोचना हुई, यूपी में दो राउन्ड के चुनाव बचे हैं तो चार मंत्रियों को भेजने की घोषणा कर दी। हेडलाइन मैनेजमेंट। टीवी वाले चिल्लाने लगे। बड़ा कदम। अरे मंत्री वहां जाकर क्या करेंगे? ऐम्बेसी के अधिकारी ही सही से काम करते तो यह नौबत ही नहीं आती। और भेजना था तो एक अच्छा अफसर बहुत था। मगर अच्छे अफसर हैं कहां? उन्हें तो खुड्डे लाइन पहुंचा दिया गया है। जो भक्त बन गए हैं वे ही सब अच्छी कुर्सियों पर बैठ गए हैं। भक्तों का काम जैसे सोशल मीडिया पर, चौराहों पर चाय और पान की दुकानों पर सबको गालियां देना और सरकार की हर बात का बचाव करना होता है वैसे ही हर इन्सटिट्यूट में अफसरशाही में भक्त हो गए हैं। जिनका काम केवल वाह वाह करना है। या राहुल और नेहरू को गालियां देना।

ऐसी ही स्थितियों में जब जो आज तक नहीं हुआ था, भारतीय बच्चे विदेश में प्रताड़ना के कभी शिकार नहीं हुए थे, हर देश में भारतीय स्टूडेंट की एक प्रतिष्ठा थी तब उनके विवशता भरे वीडियो देखकर, मैसेज पढ़कर लगता है क्या लिखें!

न लिखने के कारण अनगिनत हैं। मगर लिखने का भी कारण है कि जनता तो एक दिन जागेगी। निराश वह भी बहुत है। डर भी है। मगर कब तक। मरता क्या न करता कि नौबत कभी कभी न कभी आएगी। तब तक लिखने वालों को उसे जगाते रहना होगा। हिम्मत दिलाते रहना होगा। कम हो गए लिखने वाले। मगर जितने भी हैं, उनका सत्य का एक शब्द, अफवाहें फैलाने वालों, झूठ बोलने वालों के हजारों शब्दों पर भारी पड़ेगा। आज नहीं तो कल। कल नहीं तो परसों। मगर पड़ेगा जरूर। यही विश्वास है जो न लिखने के कारण पर लिखने के कारण बनाता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)