ग्रेटर हैदराबाद म्यूनिसपल कॉर्पोरेशन के चुनाव नतीजों के बाद एक फिर बहस शुरु हो गई है कि ‘मुस्लिम पार्टी’ की वजह वोटों का ध्रुवीकरण हुआ है। यह बहस पहली बार शुरु नहीं हुआ है, बिहार चुनाव के नतीजों के बाद भी इसी तरह की बहस शुरु हुई थी। लेकिन सोचने वाली बात ये है कि क्या वाकई इसमे मुस्लिम पार्टी ‘सेक्यूलर’ दलों की बार ज़िम्मेदार है या समाज उसी दिशा में जा चुका है। इसे समझने के लिये बीते कुछ वर्षों में हुए चुनाव के परिणाण पर नज़र डालते हैं।
गुजरात के पिछले इलेक्शन सिर्फ कांग्रेस और भाजपा थी और कांग्रेस के डर का ये आलम था की बाक़ायदा ताकीद करी गयी किसी टोपी वाले को मंच पर न रखा जाए, इसी रणनीति के तहत राहुल गांधी कभी मंदिर जा रहे थे कभी जनेऊ दिखा रहे थे। कांग्रेस के चाण्क्य कहे जाने वाले दिवंगत सांसद अहमद पटेल इसी ‘डर’ से पूरे चुनाव में गाड़ी के बाहर तक नही निकले, लेकिन जब नतीजे आए तो गुजरात के सूरत शहर जहां भाजपा चुनाब प्रचार तक नही कर पाई उनमें से भी ज़्यादातर सीटें भाजपा जीत गयी। क्योंकि रात में ही हवा चल गई कि अगर भाजपा हार गई तो मियां सर पे सवार हो जायेगा। समाज नफरती कैंसर में मुब्तिला है जिसको कीमो की ओवर हालिंग चाहिए और ये पार्टिया मलहम लगा रही है।
क्या करें विपक्षी पार्टियां
विपक्षी राजनैतिक पार्टियों को दूसरे के सर पर अपनी असफलता को फोड़ने से बेहतर है कि इसकी विवेचना करे की उनका मुकाबला सिर्फ राजनैतिक पार्टी से नही एक बड़े विशाल सामाजिक संगठन से है जो साल भर लोगों के बीच मे रहता है और मेहनत करता है। राजनैतिक गठबन्धन से सामाजिक चेतना नहीं बनती न समाज की सोच बदलती है जो हर रोज़ नफरत का ज़हर पीते पीते बनी है। कोंग्रेस ने सेवा दल को इंदिरा गांधी के दौर में खुद ही खत्म कर दिया था, अब जो कार्यकर्ता हैं उसकी सोच और भाजपा के कार्यकर्ता की सोच में कोई खास अंतर नहीं है। सब को ये लगता है अल्पसंख्यक वोट तो हमारे साथ है ही मजबूरी में साथ में सॉफ्ट हिंदुत्व का तड़का लगा लेने से कुछ बहुसंख्यक वोट मिल जाएगा और इस तरह सत्ता की सीढ़ियां चढ़ जाएंगे। इसी गलतफहमी का शिकार TRS भी थी जितने यज्ञ KCR ने किए शायद ही किसी और ने किए हों। लेकिन नतीजा क्या निकला 2016 में चार सीटें जीतने वाली भाजपा हिंदुत्व कार्ड खेलकर दूसरी बड़ी पार्टी बन गई, और यज्ञ करने वाले के.सी.आर आज अपना मेयर बनाने के लिये ओवैसी से जोड़ तोड़ कर रहे हैं।
CAA के प्रदर्शनकरियो पर मुक़दमों से लेकर राधिका वेमुला के साथ जो हैदराबाद में हुआ वो सबने देखा, यही बीमारी सपा बसपा और राजद की है, उन्हें भी लगता है कि मुसलमान जाएगा कहां और अगर कोई उनके मसलो पर बात करे उनको करंट से लग जाता है। इन सब दलों को समझना चहिये की फांसीवाद का नशा जिधर चढ़ता है कम से कम 15 साल रहता है। और वो भी जब जाता है जब राजनीतिक तिकड़म से अधिक समाज को बदलने में मेहनत की जाए और नफरत और ज़हर को खत्म किया जाए। वरना उनका मुक़ाबला नफरत के उन व्यापारियों से है जिनके पास राजनीतिक ताक़त के साथ साथ सामाजिक ताक़त भी है। इसलिए उनके पन्ना प्रमुख के सामने मौजूदा विपक्षी दलों के पास ज़मीनी स्तर पर सामाजिक समरसता का काम करने वाला कार्यकर्ता नहीं होंगे तो यही होता रहेगा। चुनाव के नतीजे वैसे ही आऐंगे जैसा भाजपा चाहती है, और हर चुनाव के नतीजों के बाद हार का ठीकरा किसी ‘दल विशेष’ के सर पर फोड़ा जाएगा।
(लेखक सोशल एक्टिविस्ट एंव यूनाईटेड अगेंस्ट हेट अभियान के सदस्य हैं)