आयशा सुल्ताना के बहानेः व्यक्ति पर टिप्पणी करना राष्ट्रविरोधी कैसे हो गया? क्या BJP खुद एक राष्ट्र है?

कृष्णकांत

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लक्षद्वीप की फिल्मकार आयशा सुल्ताना पर राजद्रोह का मुकदमा हो गया। उन्होंने एक चैनल पर बहस के दौरान लक्षद्वीप के प्रशासक प्रफुल्ल खोड़ा पटेल पर टिप्पणी की थी। बहस के दौरान आयशा ने कहा था कि जिस तरह चीन ने महामारी फैलाई उसी तरह भारत सरकार ने लक्षद्वीप के लोगों के ख़िलाफ़ जैविक हथियार का इस्तेमाल किया है।

बीजेपी का कहना है कि ‘मुझे लगता है कि उन्होंने एक राष्ट्रविरोधी बयान दिया है।’ क्या बीजेपी का हर व्यक्ति अपने आप में राष्ट्र है? इस टिप्पणी में ऐसा क्या है जिसके लिए राजद्रोह का मुकदमा होना चाहिए? व्यक्ति पर टिप्पणी करना राष्ट्रविरोधी कैसे हो गया? अगर कोई प्रशासक जन भावनाओं के विरुद्ध कोई सनक भरा फैसला लेता है तो जनता को उसकी आलोचना का अधिकार है। अगर टिप्पणी अपमानजनक है तो मानहानि का मुकदमा होना चाहिए।

लक्षदीप के प्रशासक प्रफुल पटेल ने वहां कई विवादित फैसले लिए हैं। पटेल ने लक्षद्वीप में बीफ बैन कर दिया है। शराब पर वहां पहले से पाबंदी थी जिसे हटा दिया। केरल और गोवा में बीफ खिलाने का वादा करने वालों ने लक्षद्वीप में बीफ बैन क्यों किया, यह कोई नहीं जानता। गुजरात में शराब बैन करने वाली पार्टी के गुजराती पटेल ने लक्षद्वीप में शराब से पाबंदी क्यों हटाई, ये वह भी नहीं जानता। उन्होंने एक नया विकास प्राधिकरण बनाने का प्रस्ताव दिया है जो लक्षद्वीप के किसी भी इलाके को डेवलपमेंट ज़ोन घोषित करके ज़मीन का अधिग्रहण कर सकता है। जनता इन फैसलों के विरोध में है।

राजद्रोह कानून अंग्रेजों का सबसे कारगर हथियार था। दुर्भाग्य से हमारे भूरे अंग्रेज इस दमनकारी काले कानून का खूब दुरुपयोग कर रहे हैं।कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश में दो टीवी चैनलों पर राजद्रोह के मामले की सुनवाई की। कोर्ट ने आंध्र प्रदेश पुलिस को कार्रवाई करने से रोकते हुए कहा कि राजद्रोह से सम्बंधित आईपीसी की धारा 124ए की व्याख्या करने के ज़रूरत है। कोर्ट ने साफ किया है कि किसी बयान को देशद्रोह नहीं माना जा सकता है। भले ही वह देश के किसी भी हिस्से में चल रही सत्ता की आलोचना में ही क्यों ना हों। यहां हालत ये है कि सारे चिंटू पिंटू अपने को राष्ट्र माने बैठे हैं।

इस कानून में सुधार करके या तो इसे नागरिकों के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल करने से रोका जाए या फिर इस कानून को रद्द किया जाना चाहिए। नेताओं को ये बताए जाने की जरूरत है कि वे ईश्वर नहीं हैं। न ही यह देश उनकी जागीर है। उनकी सनक का खामियाजा जनता भोगती है तो जनता को हर प्रशासक के बारे में अपनी राय रखने का अधिकार है।

(लेखक कथाकार एंव पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)