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देश की बरबादी के जिम्मेदार राजनेता ही नहीं हम भी हैं

उत्तर प्रदेश में चुनाव अब अंतिम दौर में है, कौन जीतेगा, क्यों जीतेगा, ये विश्लेषण लगातार आ रहे हैं. कुछ लोग ज़मीनी हक़ीकत बयान कर रहे हैं तो कुछ लोग सियासी दलों के लिए ज़मीन तैयार कर रहे हैं. ये सही मौक़ा है कि आम नागरिक के तौर पर हम हमारी हैसियत को समझें. मैं कुछ प्रश्नों के इर्द गिर्द आपसे विचार करने का आग्रह करता हूँ-

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  1. आज जब देश में हर वो बुनियादी अधिकार जो हमें जीने की गारंटी देता है, हमसे छिनता जा रहा है तब भी जाति और धर्म के इर्द गिर्द ही चुनाव का पूरा अभियान क्यों जारी है?
  2. प्रियंका गाँधी को जाति और धर्म की सियासत के ख़िलाफ़ बोलते देख कर अच्छा लग रहा है, जबकि इस सियासत को अब तक कांग्रेस भी इस्तेमाल करती रही है, आखिर ये क्या वजह है कि प्रियंका गाँधी को आज ख्याल आया कि ये सियासत नहीं होनी चाहिए?
  3. उत्तर प्रदेश में प्रियंका गाँधी को पसंद करने के बावजूद लोग उन्हें वोट नहीं दे रहे हैं, कांग्रेस की ये हालत कैसे हो गयी?
  4. उत्तर प्रदेश में सियासी मुहीम को देखते हुए, एक नागरिक की हैसियत से हमारे लिए सबक क्या निकलता है?

अब इन सवालों पर विचार करते हैं. हम अक्सर राजनेताओं को कोसते हैं कि वो जाति और धर्म को सियासत में इस्तेमाल करते हैं. यहीं पर ये भी सोचना चाहिए कि क्या नागरिक के तौर पर हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है, हम जाति और धर्म के नाम पर उन्हें वोट क्यों देते हैं? याद कीजिये, 2019 के चुनाव में हमने भाजपा को पहले से ज़्यादा सीटें दी हैं, जबकि उन्होंने 12014 में किये गये अपने किसी भी वादे को पूरा नहीं किया था. यहाँ बहुत से लोग कहेंगे कि ऐसा पुलवामा हमले की वजह से हुआ, लेकिन यहीं पर ये भी सोचने की ज़रूरत है कि पिछले कुछ सालों में तमाम आतंकवादी हमले भाजपा के ही शासन काल में हुए हैं और उनकी जाँच भी विवादित रही है, आज भी कितने ही सवाल हैं जिनका ज़वाब नहीं मिला है. क्या देश की जनता इसे देख नहीं रही थी? अगर देख रही थी तो फिर भाजपा को लगातार आगे क्यों बढ़ाती रही?

जनता कोई रोबोट नहीं होती, उसकी अपनी चेतना है, और इसी चेतना के आधार पर वो अपने फैसले करती है. राजनेता दो तरह से काम करते हैं, एक तो वो जनता की वर्तमान चेतना का इस्तेमाल करते हुए उसे सियासी मकासिद के लिए इस्तेमाल करते हैं दूसरे शिक्षा के ज़रिये जनता की चेतना को उन्नत करने का प्रयास भी करते हैं. जनता की चेतना को उन्नत करने का प्रयास इस बात पर निर्भर करता है कि शासक वर्ग आम लोगों पर खर्च करने के लिए कितना सक्षम है और ऐसा करने के पीछे उनकी नियत क्या है !

इसे समझने के लिए थोडा पीछे चलते हैं. जनाब जवाहर लाल नेहरू ने उस समय देश को दुनिया में बलंद मकाम दिलाया जब दुनिया दो गुटों में बटी हुई थी और आजाद भारत बेहद कमज़ोर था. उन्होंने देश के बुनियादी ढ़ांचे को बेहतर बनाया, आज भी कितने ही यूनिवर्सिटीज, अस्पताल, स्कूल आदि हम उसी दौर के इस्तेमाल कर रहे हैं. इन सब के बावजूद वो क्या कारण थे कि नेहरू जी अपने ही देश में हिन्दू साम्प्रदायिकता पर सख्त नहीं हो पाए. याद रहे नेहरू जी अपने वक़्त के वैश्विक नेता थे, आज भी दुनिया में भी उनके स्तर के नेता बहुत कम हैं, उन्होंने दुनिया के बड़े मुल्कों का इस्तेमाल भारत के हितों के अनुकूल किया, किसी भी देश के सामने घुटने नहीं टेके. लेकिन देश के अन्दर वो हिन्दू साम्प्रदायिकता के सामने झुकते हुए नज़र आते हैं, उन्हीं के पार्टी के नेता यहाँ उनके सामने खड़े नज़र आते हैं.

नेहरू जी के बाद मोहतरमा इंदिरा गाँधी भी अपने तौर पर और दुनिया के समक्ष एक मज़बूत नेता साबित हुईं, अमेरिकी दादागिरी के सामने उन्होंने भी झुकने से इंकार किया और देश की सीमाओं को सुरक्षित किया, लेकिन वो भी साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर देश के अन्दर न सिर्फ़ झुकती हैं बल्कि इस साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल भी करती हैं. देश के अलग अलग भागों में मुसलमानों पर हमले और हमलावरों पर कोई कार्यवाही न करना या नाममात्र की कार्यवाही करना इस दौर की अहमतरीन घटनाएँ हैं. इसी साम्प्रदायिकता कि सियासत में उनकी जान भी जाती है. यहाँ हम एक और चीज़ देखते हैं, हिन्दू साम्प्रदायिकता जहाँ मुकम्मल शक्ल लेती हुई दिखती हैं वहीँ मुस्लिम साम्प्रदायिकता को भी उभारने और उसके इस्तेमाल की कोशिश होती है. जमा मस्जिद का इमाम सियासत में दखल देना शुरू करता है, इसके बदले महज़ तनख्वाह पर गुज़र करने वाला इमाम जामा मस्जिद के आसपास अपनी मिलकियत खड़ी करता है और सरकारें उसकी लूट को नज़रन्दाज़ करती हैं. राजीव गाँधी तक हम यही देखते हैं कि ये दुनिया के पैमाने पर मज़बूत नेता के तौर पर उभरते हैं और देश के अन्दर हिन्दू साम्प्रदायिकता के सामने घुटने टेकते हैं. इसके बाद के दौर की सियासत में हम हिन्दू साम्प्रदायिकता को एक मुकम्मल सियासी ताक़त के तौर पर देश में हावी होते हुए देखते हैं, और ये सिलसिला आज तक कायम है.

हम अक्सर कांग्रेसी हुकूमतों को इसके लिए कोसते हैं, लेकिन यहीं पर ये भी सोचने की जिम्मेदारी है कि जो नेहरू दुनिया की महाशक्तियों के सामने तन के खड़ा होता है और अपना एक अलग गुट बनाता है वो देश के भीतर साम्प्रदायिक ताकतों के सामने नरम क्यों पड़ जाता है? जो इंदिरा गाँधी अमेरिका के मंसूबो को रौंदते हुए पाकिस्तान के दो टुकड़े कर देती हैं उन्हें महाराष्ट्र में चुनाव जीतने के लिए सावरकर को सम्मान देने की ज़रूरत क्यों पड़ जाती है? आधुनिक भारत के निर्माण का सपना लेकर सियासत में उतरने वाले राजीव गाँधी को हिन्दू साम्प्रदायिकता के जिन्न को बोतल से आज़ाद करने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? यहीं नहीं वो मुस्लिम साम्प्रदायिकता को भी सहलाते हुए नज़र आते हैं. इसके बाद की भारत की सियासत के धर्म और जाति के दलदल में लगातार धंसने की ही सियासत है.

अब ऊपर उठाये गये सवालों के ज़वाब तलाशने की कोशिश करते हैं. हम देश की दुर्दशा के लिए सिर्फ़ राजनेताओं को जिम्मेदार मान लेते हैं, जबकि इसके लिए हमारी भी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. हमारी चेतना इतनी पिछड़ी हुई है कि हम शिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा से कहीं ज़्यादा महत्व जाति और धर्म को देते हैं. मुसलमान इस देश में अपने धर्म की वजह से सबसे ज़्यादा सताया गया धार्मिक समूह है लेकिन इस कौम ने रोज़गार, तालीम या सुरक्षा के लिए कभी कोई राजनितिक अभियान नहीं छेड़ा, यहाँ तक दूसरे राजनितिक अभियानों में भी इस कौम की भागीदारी न के बराबर रही लेकिन शाहबानो मामले में इन्होने सत्ता को झुकने के लिए मजबूर कर दिया. अभी CAA विरोधी आन्दोलन में पहली बार इस कौम ने कोई ढंग की सियासत की है, लेकिन यहाँ भी अगर उनके अस्तित्व पर ही संकट न आ जाता तो शायद वो बाहर न निकलते.

पिछले 35 सालों की सियासत में धर्म के साथ जाति आधारित सियासी पार्टियाँ वजूद में आयीं और इन्होने सियासत में बड़ा मुकाम हासिल किया, ये तभी हुआ जब हमने जाति के आधार पर इन्हें चुना, अगर हमें शिक्षा, सुरक्षा और रोज़गार के आधार पर चुनाव किया होता तो देश की सियासी फ़िज़ा कुछ और होती. इसी दौर में जाति आधारित नरसंहार भी हुए, इन्हें भी “कहीं से” इतना समर्थन तो मिला कि ये बेख़ौफ़ शूद्र जातियों की हत्या करते रहे और कानूनी तौर पर इन्हें कोई नुकसान भी नहीं हुआ. यानि मुस्लिम विरोधी सम्प्रद्यिकता और शूद्र जातियों पर जुल्म लगभग सामानांतर चलने वाली सियासी मुहिम है. कमाल ये है कि शूद्र विरोधी सियासत के करने वाले मुस्लिम विरोधी सियासत में शूद्रों का भी समर्थन हासिल कर लेते हैं.

एक और पहलू को देख लेते हैं, एक समय कांग्रेस पूरे देश में जनता की पार्टी बनकर उभरती है, ऐसा इसलिए होता है कि उसे स्वाभाविक रूप से ‘देश को आज़ाद करवाने वाली पार्टी’ के रूप में देखा जाता है. नेहरू जी, इंदिरा जी और राजीव जी के एक मज़बूत नेता होने के बावजूद जैसे जैसे ‘देश को आज़ाद करवाने वाली पार्टी’ की छवि धूमिल होती है, कांग्रेस कमज़ोर पड़ने लगती है. इसी दौर में जाति और हिन्दू धर्म पर आधारित सियासत परवान चढ़ती है. कांग्रेस का कमज़ोर होना और सवर्ण हिन्दू सियासत का मज़बूत होना, लगभग एक साथ होता है. इसके जवाब में जाति आधारित सियासत उठती जरूर है लेकिन जब वृहत्तर ‘हिन्दू छतरी’ को ‘बचाने’ का सवाल खड़ा होता है तो ‘शूद्र’ (दलित और पिछड़ा) भी सवर्ण हिन्दू साम्प्रदायिकता के साथ खड़े हो जाते हैं और इस तरह सवर्ण हिन्दुओं की सियासत करने वाली भारतीय जनता पार्टी सत्ता हासिल कर लेती है. 2019 में भाजपा को उसके काम के लिए बहुमत नहीं मिला था बल्कि हिन्दू राज की कामना करने वाले भारतीय मानस ने उन्हें ‘हिन्दू राज’ बनाने के लिए वोट दिया था. यानि आम भारतीय के लिए धर्म और धर्म से बढ़कर जाति प्यारी है, शिक्षा, सुरक्षा और रोज़गार अभी उसकी प्राथमिकता में नहीं है.

कांग्रेस के सियासी मुहिम में एक बड़ा बदलाव दिखाई दे रहा है, ये दिखने में हालाँकि बहुत छोटा नज़र आता है लेकिन है बहुत महत्वपूर्ण. अभी ज़्यादा पुरानी बात नहीं है जब राहुल गाँधी को अपना जनेऊ दिखाना पडा था, लेकिन आज प्रियंका गाँधी जनता से बड़े अपनेपन के साथ नाराज़गी जता रहीं हैं क्योंकि लोग धर्म और जाति के आधार पर वोट देते हैं. ये बदलाव ऐतिहासिक है और भारतीय मानस में आये बड़े बदलाव की ओर संकेत करता है.

‘हिन्दू राज’ की कामना में जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया था, उन्होंने देख लिया कि ‘हिन्दू राज’ में उनसे नोकरियां छिन गईं, रोटी रोज़ी मुश्किल हो गयी और जो लोग छोटे मोटे व्यापार करते थे, तबाह हो गये. उन्होंने देखा कि भ्रष्टाचार और अपराध बेतहाशा बढ़ा और चंद पूंजीपति मालामाल हुए, उन्होंने ये भी देखा कि ‘हिन्दू राज’ उनसे सब कुछ छीन लेने पर आमादा है ताकि कुछ पूंजीपतियों की दौलत की हवस को पूरा किया जा सके. एक और बात हुई है, कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों ने अगर जनता का जीना मुहाल किया है तो उनकी चेतना को समृद्ध भी किया है. बहुत से लोगों के सर से ‘हिन्दू राज’ का भूत उतरा है. भले ही मीडिया ने सत्ता के साथ खड़े होने का विकल्प चुन लिया है लेकिन सोशल मीडिया में जनता ने अपनी इस राय को मुखर होकर व्यक्त किया है, आज प्रियंका गाँधी इन्हीं आवाज़ों में अपनी आवाज़ मिला रही हैं.

अब एक और सवाल, तो क्या धर्म और जाति आधारित सियासत का दौर निकल गया? ऐसा लगता तो नहीं है. जाति व्यवस्था में इस देश का मानस पूरी तरह पगा हुआ है, और आज भी ये व्यवस्था बहुत ज़्यादा कमज़ोर नहीं हुई है. बस इतना कहा जा सकता है कि पिछले कुछ सालों में जी पाने की बुनियादी सहूलतों को भी हासिल करने में जो मुश्किलें आयी हैं, उसने इन्हें कमज़ोर जरूर किया है, लेकिन प्रियंका गाँधी ने इस बदलाव को महसूस किया ये जरूर महत्वपूर्ण बात है, अगर इसी दिशा में लगातार सियासत हो तो ये बदलाव कल जनता की चेतना का हिस्सा भी जरूर बनेगा.

अंतिम बात, जब धर्म और जाति ने सियासत में ताक़त हासिल की, तब ये वही दौर था जब दुनिया के पैमाने पर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो रही थी, यानि आम जनता को जो अभी तक सहूलियत हासिल हो रही थी, उसे आगे बढ़ाने में मुश्किलें आ रही थीं बल्कि पूंजीपतियों का संकट कम करने के लिए आम जनता पर कई तरह से दबाव बढ़ रहा था. आज भी ये स्थितियां और ख़राब हुई हैं, यही वजह है कि कांग्रेस या कोई भी पार्टी जनता को उनकी ज़िन्दगी बेहतर करने के लिए कोई प्रोग्राम देने के हैसियत में नहीं है. यानि भले ही प्रियंका गाँधी ने जन-मानस में आ रहे बदलाव को पहचाना है लेकिन उनके या उनकी पार्टी के पास भी जनाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कोई आर्थिक प्रोग्राम नहीं है. दूसरी तरफ़ पूंजीपति युद्ध में अपने संकटों का हल ढूढ़ रहा है और हम देख रहे हैं कि जनता सत्तावर्ग के साथ खड़े होने को तैयार नहीं है. ऐसे में एक ही रास्ता है कि मुनाफ़े पर केन्द्रित अर्थव्यवस्था को ज़रूरत पर केन्द्रित करने की मुहिम को तेज़ किया जाये. इस दिशा में सोचना और रास्ते तलाश करना भी महत्वपूर्ण क़दम है, तो सोचिये!

(लेखक पत्रकारिता से जुड़े हैं)