किसान आंदोलन के नौ माह – भाजपा के छल, छद्म और पाखण्ड के विरुद्ध खड़ा भारत

बादल सरोज

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26 अगस्त को नौ महीने पूरे करने वाले किसान आंदोलन ने भाजपा के ब्रह्मास्त्र आईटी सैल और पाले-पोसे कारपोरेट मीडिया के जरिये किये जाने वाले दुष्प्रचार और उसके जरिये उगाई जाने वाली नफरती भक्तों की खरपतवार की जड़ों में भी, काफी हद तक, मट्ठा डाला है।

भारतीय जनता पार्टी और उसके रिमोट के कंट्रोलधारी आरएसएस और कारपोरेट के गठबंधन वाले मौजूदा निजाम की दो जानी-पहचानी धूर्तताएं हैं। एक तो यह कि इसने बड़ी तादाद में भारत में रहने वाले – खासकर सवर्ण मध्यमवर्गीय – मनुष्यों को उनके प्रेम, स्नेह, संवेदना और जिज्ञासा तथा प्रश्नाकुलता के स्वाभाविक मानवीय गुणों से वंचित कर दिया है। उन्हें नफरती चिंटू में तब्दील करके रख दिया है। देश के किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन को लेकर संघी आईटी सैल के जरिये अपने ही देश के किसानों के खिलाफ इनका जहरीला कुत्सा अभियान इसी की मिसाल है।

इस झूठे प्रचार को ताबड़तोड़ शेयर और फॉरवर्ड करने वाले व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी से दीक्षित जो शृंगाल-वृन्द है, इसे अडानी-अम्बानी या अमरीकी कम्पनियां धेला भर भी नहीं देती। इनमें से ज्यादातर को तीनों कृषि क़ानून तो दूर क से किसान और ख से खेती भी नहीं पता। इनमे से दो-तिहाई से ज्यादा ऐसे हैं, जिनकी नौकरियाँ खाई जा चुकी हैं, आमदनी घट चुकी है और घर में रोजगार के इन्तजार में मोबाइल पर सन्नद्ध आईटी सैल के मेसेजेस को फॉरवर्ड और कट-पेस्ट करते जवान बेटे और बेटियां हैं, फिर भी ये किसानों के खिलाफ अल्लम-गल्लम बोले जा रहे हैं। क्यों?

इसके पीछे कारपोरेट की काबिलियत और आरएसएस की मेहनत है। इन दोनों ने मिलकर इन्हे और समाज के एक हिस्से को पर्याप्त खूँखार और आत्मघाती बना दिया है। इन दिनों जब कथित मौद्रीकरण के नाम पर देश के पिज़्ज़ा पीसेज बनाकर सेल लगाई जा रही है, तब भी ये उसकी हिमायत करते पाए जा रहे हैं – रेल, बैंक, डिफेंस बेचने वाले पर मुदित और चूड़ी बेचने वाले पर क्रोधित हो रहे हैं। (इनमे से कुछ इन दिनों एक और विभाजन की बात करने भी लगे हैं।) इनकी नफरत मुसलमानों भर के खिलाफ नहीं है। स्कूल-कालेज के बच्चों के खिलाफ है, पढ़े-लिखे लोगों के खिलाफ है, मजदूर के खिलाफ है, किसान के खिलाफ है, दलित के खिलाफ है, आदिवासी के खिलाफ है। ओबीसी हैं तो दूसरों के खिलाफ है, सवर्ण है तो दूसरे सवर्णो के भी खिलाफ है, महिला के खिलाफ तो पूरी तरह बजबजा ही रही है।

तर्क, तथ्य और असहमति-भीरुओं की बुद्धिहीनता से इनकी आसक्ति इस कदर है कि ये सिर्फ अडानी, अम्बानी जैसे ठगों या मोदी, शाह जैसे उनके चाकरों के लिए ही नहीं भिड़ते, ट्रम्प और नेतन्याहू के लिए भी लड़ मरते हैं। इन्हें चौतरफा विफलतायें नजर नहीं आतीं। इन्हें अपने आराध्यों की कथनी और करनी में आकाश पाताल का अंतर समझ नहीं आता। इन्हें यह भी समझ नहीं आता कि ठीक जो बात दिल्ली से बोली जाती है, उसकी एकदम उल्टी बात इन्हीं के नेता भोपाल और हरियाणा से बोल रहे हैं रहे हैं। यह सिर्फ हास्यास्पद ही नहीं, शरारतपूर्ण है। ऐसा करना जनता और देश ही नहीं, खुद अपने भक्तों के साथ भी छल, छद्म और पाखण्ड है। मगर भक्तों की प्रजाति में शामिल होने की मुख्य शर्त ही विवेक और तार्किकता को ताले में बंद करके रख देना है।

इस गिरोह की दूसरी खूबी है दो जुबानों से एक साथ बोलना। उधर मोदी-शाह देश भर के किसानों की मांगों को ठुकराते हुए कारपोरेट खरीदी की हिमायत में लगे हैं, कह रहे हैं कि इससे किसानो को अपनी फसल देश भर में कहीं भी बेचने का हक़ मिल जाएगा। अमृतसर का किसान अपने चावल अलेप्पी में और गोरखपुर का किसान अपना गेंहू चेन्नई में बेच सकेगा — इधर उन्हीं की पार्टी के हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर बोल रहे हैं कि राजस्थान का किसान अपना बाजरा हरियाणा बेचने आएगा, तो उसके खिलाफ कार्यवाही होगी।

मध्यप्रदेश वाले शिवराज सिंह तो उनसे भी दो जूते आगे निकल गए और बोले कि किसी और प्रदेश का किसान अपनी फसल मध्यप्रदेश बेचने आया, तो उसकी गाड़ी जब्त करके जेल भेज दी जाएगी। यह दोमुंहापन अनायास नहीं है। इसे योजना बनाकर, सोच कर किया जाता है। लोगों को गुमराह करने और उनके हर तबके को किसी-न-किसी बात से बहकाने की कला में भाजपा और संघ निर्लज्ज भी हैं, पारंगत भी हैं। कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया के वर्चस्व के चलते इन बयानों की विवेचना और आलोचना पूरी तरह बंद होने से इनका छल, छद्म और पाखण्ड बिना किसी जाँच परख के चलता रहता है। मगर हमेशा ऐसा नहीं हो सकता।

 

किसान आंदोलन ने काफी हद तक इस उन्मादी और झूठे प्रचार की मारकता कम की है। उसने न सिर्फ इसके खंडन का काम किया है, बल्कि अपने सन्देश और तर्कों को ले जाने वाले नए जरिये भी तैयार किये हैं। लोगों के बीच असलियत ले जाने, उन्हें उसके आधार पर संगठित और आंदोलित करने और झूठ के कुहासे को नारों की गूँज से उड़ा देने का वैकल्पिक तंत्र विकसित किया है। अपने नूतन तरीके निकाले हैं। हर वर्ग संघर्ष में शोषित लड़ाके अपने माध्यम ढूंढ़ ही लेते हैं। प्राचीनकाल में स्पार्टकस की अगुआई में हुए रोमन साम्राज्य के खिलाफ दासों के विद्रोह के समूचे इलाके में फ़ैल जाने के पीछे उनके सन्देश भेजने की मौलिकता थी।

भारत में भी इसके अनेक उदाहरण हैं — जैसे 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की खबर और उसमें हिस्सा लेने के आव्हान का आनन-फानन पूरे देश में पहुँच जाना। इसके लिए आजादी के लड़ाकों ने कितना मौलिक और ठेठ देहाती तरीका अपनाया था। हर बगावती गाँव पांच रोटी बनाता था और उन पर नमक और गोश्त की डली रखकर अगले पांच गाँवों के लिए भेज देता था। उनमें से सहमत होने वाले गाँव फिर पांच रोटी बनाकर इसी प्रक्रिया को जारी रखते थे। अंग्रेजों की खुफिया फ़ौज और उसके चाटुकार सामंत समझ ही नहीं सके और रोटियों ने उनके तख़्त उछाल दिए। गरज यह कि जनता हुक्मरानों के मीडिया की मोहताज नहीं रहती — वह खुद अपने तरीके चुनती है।

इसलिए आत्ममुग्ध और आत्मरत कारपोरेटी-हिन्दुत्विये कितने ही अपने स्वर्ग में बने रहें, इनके किये कुछ नहीं बनने वाला। इनके विरोध तथा गद्दारी के बावजूद देश ने आजादी हासिल कर ही ली थी। इनके माफियां मांगने के बावजूद जनता ने इमरजेंसी से मुक्ति पा ही ली थी। इनके विरोध के बावजूद बदलाव की ताकतें अपना रास्ता ढूंढ लेती हैं। किसान आंदोलन ने इस रास्ते की तलाश की है।

किसान आंदोलन की यह खासियत इस बात की आश्वस्ति देती है कि इतिहास रचा जा रहा है – इतिहास रचा जाएगा – और जो अहंकारी उसके खिलाफ साजिश रचेगा, उसे इतिहास के कूड़ेदान के हवाले कर दिया जाएगा।

(लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक तथा अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं, संपर्क 94250-06716)