नवेद शिकोह का लेखः हिंदू और हुसैन के बीच यज़ीद बनकर आ गया कोरोना

मोहर्रम शुरू हो गया है. दुनिया में मशहूर लखनऊ की अजादारी इस बार बेरंग होगी. कोरोना महामारी के मद्देनजर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने मोहर्रम के तमाम आयोजनों पर प्रतिबंध लगा दिया है. सिर्फ आशूर (दस मोहर्रम) के दिन  नियमों के पालन के साथ ताजिए दफ्न करने की इजाजत मिली है.  इस कड़े फैसले से बहुसंख्यकों में बहुसंख्यक वर्ग ज्यादा निराश और उदास हैं. भारत में अज़ादारी का एक खूबसूरत रिवाज है. यहां मोहर्रम के बाहरी आयोजनों में बड़ी संख्या में हिन्दुओं की सहभागिता होती है. खासकर पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों की इमाम हुसैन और कर्बला के तमाम शहीदों के प्रति ज्यादा श्रद्धा(अकी़दत) है. इसलिए इन अकीदतमंदों की बड़ी तादाद मोहर्रम के जुलूसों, मातम के आयोजनों, इमामबाड़ों, दरगाहों, कर्बलाओं में नजर आती है.

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इस बार का मोहर्रम बहुसंख्यकों के बहुसंख्यक वर्गो दलितों-पिछड़ों को ज्यादा रुलायेगा. दरअसल इन अक़ीदतमंदों की आस्था के सम्मान में ही लखनऊ की अजादारी में भव्यता को तमाम रंग दिये गये थे.  कोरोना के कारण तमाम जुलूसों और आयोजनों पर प्रतिबंध के कारण करोड़ों गैर मुस्लिम भाई-बहनों की आस्था ज़रूर बेचैन होगी.  अट्ठारहवीं सदी में अवध के बादशाहों, नवाबों, जागीरदारों, रियासतदारों ने हजरत इमाम हुसैन के प्रति हिंदू अजादारों की अक़ीदत के सम्मान में लखनऊ की अजादारी को भव्य आकार दिया था. वरना अजादारी तो शिया अपने घरों में ही मनाते रहे हैं. अजादारी का सड़कों पर जुलूस की शक्ल में आना हो, पंडालों में नजर आना हो, सबील़ो और लंगरों के तमाम मोहर्रमी रंग हिंदू अज़ादारों के सम्मान में ही शुरु किये गये थे.

कोरोना काल की तमाम बंदिशों में  घरों की अज़ादारी ज्यादा कुछ प्रभावित नहीं होगी. ईरान स्थित शिया समुदाय की सबसे बड़ी धार्मिक अथारिटी ने भी शिया समाज को फतवा दिया है कि सरकारी गाइड लाइन पर चलकर कोरोना वबा के चलते भव्यता के साथ अजादारी ना करें. इसलिए मोहर्रम के आयोजनों पर प्रतिबंध बहुसंख्यक हिन्दू समाज के बहुसंख्यक दलित-पिछड़े समुदाय  को ज्यादा निराश कर रहा है. धर्म युद्ध किसी एक धर्म के लिए नहीं सृष्टि की मानवता के लिए होता है. मोहर्रम माह में कर्बला की ऐतिहासिक जंग इस्लाम को बचाने के लिए ही नहीं मानव कल्याण के लिए लड़ी गयी थी. इंसानियत को बचाने वाले कर्बला के वाक़िये को याद करना इस्लामी  नहीं इंसानी फितरत है.

मोहर्रम की अज़ादारी के सांस्कृतिक रंग, अदब, शिल्प, सुर, लय, अनुशासन, तहज़ीब, सौहार्द, अनेकता में एकता, समरसता…  ये सब इस्लामी नहीं बल्कि इंसानी जज़्बों के रंगों के रंग हैं. मुख्य बात ये है कि भारत में मोहर्रम मनाने वालों में मुसलमानों से ज्यादा तादाद गैर मुस्लिम्स की है. भारत के बीस करोड़ मुसलमानों में शिया समुदाय सहित मुसलमानों के अन्य फिरक़ों समेत बमुश्किल दस करोड़ मुसलमान मोहर्रम की सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल   होते हैं, जबकि भारत के दस करोड़ से अधिक हिंदू और दूसरे गैर मुस्लिम मोहर्रम की अजादारी में सम्मानित होते हैं. ये पहला मौक़ा है जब कोरोना वायरस ने यज़ीद बनकर अज़ादारी के सांस्कृतिक रंगों को फीका करने की कोशिश की है.

हर बरस मोहर्रम आता ही नहीं है, दोहराता भी है. कर्बला, इमाम हुसैन और यज़ीद की सूरतें बदलती रहती हैं. किरदार और फितरत दोहराती है. इस बार रावण की तरह यजीद के कई सिर नजर आ रहे है. कोरोना यजीद का मुख्य चेहरा है. बाकी मौलवी धर्म की सियासत की तलवारें उठाये हैं. कयादत वाली ताक़त की कुर्सी के लिए मोहर्रम शुरू होते ही सोशल मीडिया पर वीडियो वार चल रहा है.

ये तो सच है कि इस्लाम और इंसानियत को बचाने के लिए कर्बला के शहीदों ने जिस यज़ीदी फौज के जुल्म सहे थे वो सारे के सारे यज़ीदी मुसलमान थे. शिया थे या सुन्नी थे या किस फिरक़े के थे, ये अलग विषय है, पर मौजूदा यजीदी डीएनए वाले शियों का मुखौटा भी लगायें हैं और सुन्नी मसलक का भी. शिया वर्ग में बड़े धार्मिक नेता की कुर्सी की होड़ में होती तकरारें यज़ीदी डीएनए की झलक दिख रही है. दूसरा वर्ग शहादतों के ग़म मोहर्रम की मुबारकबाद देकर यजीदी डीएनए की दलील दे रहा है. दरअसल हर दौर में मोहर्रम माह हर बरस कुछ झूठे और कथित मुसललमानों को ही एक्सपोज़ भी करता है.

मोहर्रम सिर्फ एक महीने का नाम नहीं है. शहादत की बुलंदी का नाम है. पाबंदियों का नाम है. इंसानियत और सत्य की जीत का नाम है. त्याग, समर्पण, धैर्य और अत्याचार के विरुद्ध खड़े हो जाने का भी नाम है. शिद्दत की प्यास में पानी को चुल्लू में लेकर पानी को फेक देने का भी नाम है.  अधर्म,आतंकवाद और ताकतवर से ताकतवर सत्ता की तानाशाही के खिलाफ सवाल उठाने का भी नाम है.

मोहर्रम सत्ता के दुरुप्रयोग के परिणामों की भी याद दिलाता है. धर्म के नाम पर हुकुमत करने की भी पोल खोलता है.  ये महीना चौदह सौ साल पुराने इतिहास की परतें खोलते हुए याद दिलाता है कि इस्लाम को नुकसान पंहुचाने वाले मुसलमान ही थे. तमाम कथित ईमान वाले मुसलमान हर दौर में बेइमान साबित हुए. ऐसे  मुसलमानों ने ही इस्लाम को कितनी चुनौतियां दीं. धर्म के नाम पर सियासत की. बादशाहत की और लोगों को गुमराह करते रहे. मोहर्रम माह में जो हुआ था वो खत्म नहीं हुआ. मुसलमानों के रसूल हजरत मोहम्मद मुस्तफा के नाती इमाम हुसैन का पैग़ाम आज भी इंसानियत की यूनिवर्सिटी का सिलेबस बना हुआ है.  क्रूर, अत्याचारी, तानाशाह मुस्लिम बादशाह यजीद का डीएनए भी मजहब की नकाबों के भीतर आज भी झलकता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं, ये लेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है)