सुसंस्कृति परिहार
‘हिंदुस्तान की कहानी’ में पं.जवाहरलाल नेहरू एक जगह लिखते हैं ‘पिछली बातों के लिये अंधी-भक्ति बुरी होती है, साथ ही उनके लिए नफ़रत भी उतनी ही बुरी है। इसकी वजह यह है कि इन दोनों में से किसी पर भविष्य की बुनियाद नहीं रखी जा सकती। वर्तमान का और भविष्य का लाजमी तौर से भूतकाल से जन्म होता है और उन पर उसकी गहरी छाप होती है। इसको भूल जाने के मानी हैं इमारत को बिना बुनियाद के खड़ा करना और कौमी तरक्क़ी की जड़ को ही काट देना। राष्ट्रीयता असल में पिछली तरक्क़ी, परम्परा और अनुभवों की एक समाज के लिए सामूहिक याद है।’
पंडित नेहरू जी ने जिस तरह से प्राचीन साहित्य और मिथकों आदि का बहुत गहराई से अध्ययन किया था वह विलक्षण है।पंडित जवाहरलाल नेहरू के बारे में कुछ लोगों की यह धारणा है कि वे भले ही पैदा भारत में हुए हों, चिंतन और रहन-सहन से वे पूरी तरह यूरोपीय थे। नेहरू जी के बारे में इस तरह की गलत धारणा फैलाने में दक्षिणपंथी विचारों में विश्वास करने वाले संगठनों एवं समूहों की महत्वपूर्ण भूमिका है। दकियानूसी और हिंदुत्ववादी ताकतों ने इस तरह के भ्रम को विस्तार देने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि इस तरह का भ्रम अज्ञानता अथवा प्रायोजित प्रयासों पर आधारित है। ऐसे तत्व यदि नेहरू जी के विचारों का, उनकी पुस्तकों का, अध्ययन करते तो उनका यह भ्रम दूर हो सकता है।
गलतफहमी दूर करने नेहरू जी विभिन्न ग्रंथों के बारे में राय जानना बहुत ज़रूरी है पहले वेदों को ही लें वेदों की चर्चा करते हुए पं. नेहरू कहते हैं कि‘शुरू की अवस्था में आदमी के दिमाग़ ने अपने को किस रूप में प्रकट किया था और वह कैसा अद्भुत दिमाग़ था। वेद शब्द की व्युत्पत्ति व्युद धातु से हुई है जिसका अर्थ जानना है और वेदों का उद्देश्य उस समय की जानकारी को इकट्ठा कर देना था। उनमें बहुत सी चीजें मिली-जुली हैं। स्तुतियां हैं और बड़ी ऊँची प्रकृति संबंधी कविताएं हैं। उनमें मूर्तिपूजा नहीं है। देवताओं के मंदिरों की चर्चाएं नहीं हैं जो जीवनी-शक्ति और जिंदगी के लिये इकरार उनमें समाया हुआ है वह गै़र मामूली है। शुरू के वैदिक आर्य लोगों में जिंदगी के लिये उमंग थी, वे आत्मा के सवाल पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते थे।’महाभारत के बारे में नेहरू जी लिखते हैं-
‘महाकाव्य की हैसियत से रामायण एक बहुत बड़ा ग्रन्थ जरूर है और उससे लोगों को बहुत चाव है लेकिन यह महाभारत है जो दरअसल दुनिया की सबसे खास पुस्तकों में से एक है। यह एक विराट कृति है। परंपराओं और कथाओं का और हिंदुस्तान की कदीमी राजनैतिक और सामाजिक संस्थाओं का यह एक विश्व-कोष है। महाभारत में हिंदुस्तान की बुनियादी एकता पर जोर देने की बहुत निश्चित कोशिश की गई है। महाभारत एक ऐसा बेशकीमती भंडार है कि हमें उसमें बहुत तरह की अनमोल चीजें मिल सकती हैं। यह रंगबिरंगी घनी और गुदगुदाती जिंदगी से भरपूर है। इस मामले में यह हिंदुस्तानी विचारधारा के दूसरे पहलुओं से हटकर है जिसमें तपस्या और जिंदगी से इंकार पर जोर दिया गया है। महाभारत की शिक्षा का सार यदि एक जुमले में कहा जाए तो है- ‘दूसरे के लिये तू ऐसी बात न कर जो खुद तुझे अपने लिए पसंद न हो।
भगवत गीता के बारे में नेहरू एक प्रसिद्ध विदेशी विद्वान विलियम बाण्डहॅबोल्ट के विचारों को उद्धृत करते हुये कहते हैं,‘यह सबसे सुंदर और अकेला दार्शनिक काव्य है जो किसी भी जानी हुई भाषा में नहीं मिलता है। बौद्धकाल से पहले जब इसकी रचना हुई तब से लेकर आज तक इसकी लोकप्रियता और प्रभाव नहीं घटा है और आज भी इसके लिये पहले जैसा आकर्षण बना हुआ है। इसके विचारों और फिलसफे को हरेक संप्रदाय श्रद्धा से देखता है और अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या करता है। संकट के समय जब आदमी का दिमाग संदेह से सताया हुआ होता है और अपने फर्ज़ के बारे में दुविधा उसे दो तरफ़ खींचती है, वह रोशनी और रहनुमायी के लिये गीता की तरफ़ और भी झुकता है क्योंकि यह संकट-काल के लिये लिखी हुई कविता है। चूंकि आज के हिंदुस्तान में मायूसी छायी हुई है और उसके चुपचाप रहने की भी एक हद हो गई है इसलिये फल की आशा किये बिना काम में लगे रहने का संदेश इस समय अत्यधिक प्रासंगिक लगता है। दरअसल गीता का संदेश किसी संप्रदाय या जाति के लिये नहीं है। क्या ब्राह्मण, क्या निम्न जाति, सभी के लिये है। गीता में कहा गया है कि सभी रास्ते मुझ तक आते हैं।
इसी तरह उपनिषदों के संबंध में नेहरू लिखते हैं ‘ये छानबीन की, मानसिक साहस की और सत्य की खोज के उत्साह की भावना से भरपूर हैं। यह सही है कि यह सत्य की खोज मौजूदा जमाने के विज्ञान के प्रयोग के तरीकों से नहीं हुई है फिर भी जो तरीक़ा अख्तियार किया गया है उसमें वैज्ञानिक तरीक़े का एक अंश है। हठवाद को दूर कर दिया गया है उनमें बहुत कुछ ऐसा है जो साधारण है और जिसका आजकल हम लोगों के लिये कोई अर्थ या प्रसंग नहीं है। खास जोर आत्मबोध या आत्मा-परमात्मा के ज्ञान पर दिया गया है। इन दोनों का मूल एक ही बताया गया है। उपनिषदों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें सच्चाई पर बड़ा जोर दिया गया है। सच्चाई की सदा जीत होती है, झूठ की नहीं। सच्चाई के रास्ते से ही हम परमात्मा तक पहुंच सकते हैं।
उपनिषदों की यह प्रार्थना मशहूर है ‘असत्य से मुझे सत्य की ओर ले चल, अंधकार की ओर से प्रकाश की ओर मुझे ले चल, मृत्यु से मुझे अमृत्व की ओर ले चल।’ उपनिषदों में एक सवाल का बहुत अनोखा लेकिन मार्के का जवाब दिया गया है। सवाल यह है कि यह विश्व क्या है? यह कहां से उत्पन्न होता है? और कहां जाता है? इसका उत्तर है-स्वतंत्रता से इसका जन्म होता है। स्वतंत्रता पर ही यह टिका है और स्वतंत्रता में ही वह लय हो जाता है। सारे संसार में ऐसी कोई रचना नहीं है जिसका पढ़ना इतना उपयोगी, इतना ऊँचा उठाने वाला हो जितना उपनिषदों का है। वे सबसे ऊँचे ज्ञान की उपज हैं।’ प्रसिद्ध पश्चिमी दार्शनिक सोपेनहार के विचारों को उधृत करते हुए नेहरू कहते हैं ‘उपनिषदों के हरएक शब्द से गहरे मौलिक और ऊँचे विचार उठते हैं और इन सब पर एक ऊँची पवित्र उत्सुक भावना छाई हुई है। उपनिषदों को पढ़ने से मेरी जिंदगी को शांति मिलती है। यही मेरे मौत के समय भी शांति देंगे।’
रामायण के संबंध में नेहरू जी प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासकार मिशले के विचारों को उद्धृत करते हुए कहते हैं ‘जिस किसी ने भी बड़े काम किये हैं या बड़ी आकांक्षाएं की हैं, उसे इस गहरे प्याले से जिंदगी और जवानी की एक लंबी घूंट पीना चाहिए। रामायण मेरे मन का महाकाव्य है। हिंद महासागर जैसा विस्तृत, मंगलमय सूर्य के प्रकाश से चमकता हुआ, जिसमें देवीय संगीत है और कोई बेसुरापन नहीं है। वहां एक गहरी शांति का राज्य है और कशमकश के बीच भी वहां बेहद मिठास और इंतहा दर्जे़ का भाई-चारा है जो सभी ज़िंदा चीज़ों पर छाया हुआ है। रामायण मोहब्बत, दया, क्षमा का अपार और अथाह समुंदर है।ये तमाम विचार हस्तक्षेप से उद्धृत किए गए हैं।
स्वाधीनता संग्राम में नेहरू ने कुल 9 साल कारागार में बिताये। वह लाहौर, अहमदनगर, लखनऊ और नैनी जेलों में रहे। वहीं इनका अध्ययन और लेखन परिपक्व हुआ। कारागार के समय का उन्होंने सकारात्मक सदुपयोग किया। वह सुबह 9 बजे से लिखना पढ़ना शुरू करते थे और देर रात तक उनका यह क्रम चलता रहता था। जेल के एकांत और अवकाश ने उन्हें देश के इतिहास, सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं के अध्ययन और पुनर्मूल्यांकन का अवसर दिया। उनका लेखन आत्ममुग्धता के लिए नहीं, बल्कि देश की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करने के लिए था, जिस से देश का स्वाभिमान जागृत किया जा सके। उन्होंने कुल चार पुस्तकें लिखीं।1921 में पहली पुस्तक लिखी गयी, पिता के पत्र पुत्री के नाम जिसमें उन्होंने प्रागैतिहासिक काल का विवरण दिया है। 1934-1935 में उनकी क्लासिक कही जाने वाली पुस्तक विश्व इतिहास की एक झलक आयी। 1936 पं. जवाहर लाल नेहरू की आत्मकथा, ‘माई ऑटोबायोग्राफी’ और 1946 में दर्शन, इतिहास और संस्कृति को लेकर लिखी गयी पुस्तक भारत एक खोज प्रकाशित हुई।
उनके इतिहास बोध को समझने के पूर्व उनकी पुस्तकों के बारे में जानना आवश्यक है।कुल मिलाकर नेहरू का इतिहास बोध, भारतीय संस्कृति की तरह विराट और विशाल तो था ही, गंगा की तरह अविरल प्रवाहयुक्त और सार्वभौम भी था उनके बारे में तरह तरह के ऊल-जलूल वक्तव्य देने वालों को चाहिए वे उन्हें पढ़ें खासतौर पर पर भारत एक खोज को। जिसमें उन्होंने भारत देश की संस्कृति और उसके विस्तार पर बड़े ही अन्वेषण पूर्ण विचार रखे हैं और इसे जानने पढ़ने के बाद यह महत्वपूर्ण बात कही कि “राष्ट्रीयता असल में पिछली तरक्क़ी, परम्परा और अनुभवों की एक समाज के लिए सामूहिक याद है।”