अशोक पांडे
एक स्कूल में प्रिंसिपल हमीदा बेगम की पांच बेटियां थीं। पति रबानी नदीम अफगानिस्तानी फ़ौज में बड़े अफसर थे। 1990 के दशक में तालिबान के आने पर अफगानिस्तान की बरबादी का जो दौर शुरू हुआ वह आज नहीं निबटा। साल 2000 में तालिबान ने रबानी नदीम को अगुवा कर उनका क़त्ल कर दिया। अपनी और बच्चियों की जान बचाने की खातिर हमीदा किसी तरह छिपते-छुपाते पाकिस्तान के शहर पेशावर पहुँचीं। आसरे की तलाश में परिवार पेशावर से कराची आया। वहां भी कुछ न बना तो इस्लामाबाद। यहाँ से उनकी मंजिल बना लन्दन जहाँ पहले से रह रहे उनके कुछ रिश्तेदारों ने मदद करने का वादा किया हुआ था।
पाकिस्तान में एजेंटों और स्मगलरों की मदद से उनके और बेटियों के फर्जी पासपोर्ट तैयार कर उन्हें इटली पहुंचा दिया गया। इटली में उन्हीं के जैसे करीब दर्जन भर शरणार्थियों के साथ मोटे तिरपाल से ढंके एक ट्रक में बिठाकर उन्हें लन्दन की तरफ रवाना कर दिया गया। कुछ दिन की लगातार यात्रा के बाद उन्हें एक जगह उतर जाने को कहा गया। उन्हें उम्मीद थी सामने बिग बेन नजर आएगी लेकिन वे लोग एक बियावान जंगल के बीच छोड़ दिए गए थे। आने-जाने वालों से पूछताछ करने पर पता चला वे डेनमार्क आ पहुंचे हैं। डेनमार्क की सरकार ने इन सभी को सैंडहोम के शरणार्थी शिविर में भेज दिया। कुछ समय बाद ये लोग वहां से उत्तरी डेनमार्क के आल्बोर्ग स्थित एक बड़े शिविर में शिफ्ट किये गए।
ऐसे मुश्किल समय में हमीदा की एक बेटी नादिया कुल दस साल की थी। 2 जनवरी 1990 को अफगानिस्तान के हेरात नगर में जन्मी इस बच्ची ने एक ऐसा जीवन शुरू किया जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। आल्बोर्ग के शरणार्थी कैम्प के ठीक बगल में एक क्लब था जहाँ उसी की उम्र की लड़कियां फुटबॉल खेला करती थीं। उन्हें देखते हुए नादिया नदीम को फुटबॉल का शौक लगा। नादिया के पिता खुद बढ़िया हॉकी खेलते थे और अपने देश की टीम से खेल चुके थे। नादिया के एक जन्मदिन पर वे उसके लिए फुटबॉल लेकर आये थे। इस लिहाज से फुटबॉल उसके लिए कोई नई चीज नहीं थी।
बारह साल की उम्र में वह आल्बोर्ग नगर की लड़कियों की टीम से खेल रही थी। अठारह की होने तक उसने स्थानीय से राष्ट्रीय फुटबॉल तक का सफ़र पूरा कर लिया था। अठारह की होने पर उसे डेनमार्क की नागरिकता हासिल हुई और वह ट्रेनिंग के लिए अमेरिका गयी। आज नादिया को डेनमार्क की नेशनल टीम की तरफ से खेलते बारह साल हो चुके हैं। वह इंग्लैण्ड वीमेंस सुपर लीग में मैनचेस्टर सिटी की तरफ से खेलती है। डेनमार्क की तरफ से खेलने वाली वह पहली विदेशी खिलाड़ी हैं। एक शानदार फॉरवर्ड-स्ट्राइकर के तौर पर उसके नाम 73 अंतर्राष्ट्रीय गोल दर्ज हैं। जीवन के सबसे मुश्किल और अँधेरे वक्त से गुजरने के बाद अजनबी भाषा, जन और भूगोल के बीच रहते हुए सफलता के शिखर पहुँचने का नादिया के असंभव सफ़र के बारे में बीस-तीस पंक्तियों में क्या लिखा जा सकता है?
बहरहाल यूनेस्को ने उसे ‘चैम्पियन फॉर गर्ल्स एंड वीमेंस एजूकेशन’ का दर्जा दिया हुआ है क्योंकि उसने खेलों में जेंडर-आधारित भेदभाव के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी है। 2018 में फ़ोर्ब्स पत्रिका ने इंटरनेशनल स्पोर्ट्स की सबसे ताकतवर स्त्रियों की लिस्ट में नादिया नदीम को बीसवें नंबर पर रखा है। अपनी खुद की वेबसाइट में नादिया अपने परिचय में लिखती हैं – “फुटबॉल खेलने के अलावा मैं आरहुस यूनिवर्सिटी में मेडिकल की पढ़ाई भी कर रही हूँ और जल्दी ही आप मुझे डॉ। नादिया नदीम कह सकेंगे। मैं धाराप्रवाह नौ भाषाएँ बोल सकती हूँ और मुझे लगातार नई चुनौतियाँ स्वीकार करना अच्छा लगता है। मेरे जीवन का एक ही लक्ष्य है – चाहती हूँ मैं जो भी करूं उसमें मुझसे बेहतर कोई न हो!” पूरे संसार की बहादुर बेटी-बहन है नादिया नदीम, उसके ख़्वाब हम सब के भी हैं। यकीनन वह उन्हें पूरा करेगी। आमीन!
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)