मुस्तफा कमाल अतातुर्क: कई किरदारों में जीता एक किरदार, आधुनिक तुर्की का निर्माता या फिर…

फ़ायक़ अतीक़ किदवई

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कमाल अतातुर्क यानी मुस्तुफा कमाल पाशा जो किसी के लिए हीरो है तो किसी के लिए विलेन लेकिन तुर्क के लिए वो हीरो है जो शायद आप उसे बिना जाने समझ नही पाएंगे। मेरे लिए वो एक द्वंद है, मैं उसके व्यक्तित्व को लेकर हमेशा उलझा रहता हूँ। हालांकि धर्म के लिहाज़ से देखे तो बेहद बुरा इंसान और राष्ट्र निर्माण के हिसाब से देखो तो नायक।

आज जिस आख़िरी ऑटोमन सुल्तान के हम कसीदे पढ़ते हैं विश्व युद्ध मे जर्मनी का साथ देने के बाद जब हार गए तो उन्होने मित्र राष्ट्रों से वो समझौते किये जो कोई राष्ट्रप्रेमी तो नही कर सकता था, चाहे वो कुस्तुन्तुनिया समझौता हो, लंदन संधि हो, जेन द मरीन समझौता हो या और भी। जबकि मित्र राष्ट्रों ने तुर्क बंटवारे को खाका पहले ही बना लिया था, सुल्तान अपनी सल्तनत को कायम रखना चाहते थे, हार के बाद सबकुछ गंवा देना सिर्फ सुल्तान बने रहने के लिए किसी शर्म से कम नही था जो उस समय युवा तुर्क समझ रहे थे,

गाँधी जी के ख़िलाफ़त आंदोलन के समय भारत के मुस्लिमो ने सुल्तान के लिए चंदा भेजा था और ब्रिटिश सरकार से अपील की थी कि सुल्तान को हटाया न जाये। भारत उसे अब भी धर्म के तराज़ू में देख रहा था, आपको हैरत होगी उस समय तुर्क लोग भारत के मुस्लिमो से नाराज़ थे कि सिर्फ सुल्तान के मुस्लिम होने की वजह से भारत का मुस्लिम सपोर्ट कर रहा जबकि वो चाहते थे कि तुर्क एक स्वतंत्र देश हो जहाँ गणराज्य स्थापित हो। टर्की में मित्र देशो की सेनाओं और ग्रीक के शासन को चुनाती देने के लिए जो व्यक्ति तुर्क लोगो का नेतृत्व कर रहा था वो मुस्तुफा कमाल पाशा ही था। शिवास सम्मेलन होने तक जो पहली समिति बनाई गई उसका वो सदर बना, पता है आपको उसमे क्या शर्ते थी?

तुर्की का किसी तरह का विभाजन न हो, विदेशियों को निकाला जाए और ईसाइयों को वो अधिकार नही दिए जाएं जो उसे तुर्क से ऊपर रखते हो, विदेश से ऐसी कोई आर्थिक मदद नही ली जाए जो तुर्की की स्वतंत्रता, अखंडता संप्रभुता को नष्ट करने के लिए हो ऐसे तमाम नियम बनाये जो ये बताते है कि वो इस्लाम ईसाईयत या किसी भी धर्म से ऊपर तुर्क पहचान को रखता था। उसकी नकारात्मक छवि को जो दिखाता है वो उसका तानाशाही रवैया है, मेरे विचार से तुर्की को थोड़ा सा नेहरू चाहिए था, और भारत को थोड़ा सा मुस्तुफा कमाल पाशा।

बाक़ी वो विवादस्पद तो है ही उसके विरोध में लिखने वाले तर्क को आप नकार नही सकते और न उसके समर्थन में लिखने वाले को पूरी तरह से। उसके बदलाव को कामयाबी इसलिए मिली कि तुर्क लोगो का उसे समर्थन था और याद रखिये उस समय भी वो एक मुस्लिम होने से ज़्यादा तुर्क कहलाना ज़्यादा पसंद करते थे। इस्लामी विद्वान डॉक्टर इसरार अहमद ख़ुद कहते थे कि आज जो टर्की बचा है वो कमाल पाशा की ही वजह से बचा है। बावजूद इसके दूसरा पक्ष उन्हें यूरोप की कठपुतली भी कहता है।

ख़िलाफ़त आंदोलन से पहले टर्की के ख़लीफ़ा ने भारत की पहली Gov in exile को अंग्रेज़ो के विरुद्ध असलहा समेत हर मदद करने का वादा किया था, डिफेंस मिनिस्टर गाज़ी पाशा ने इसे जारी भी कर दिया लेकिन हेजाज़ से भारत आते समय पकड़कर माल्टा जेल भेज दिया गया, उनका नाम ही असीर मालटा पड़ गया था। अगर सुलतान अब्दुल हमीद बे ने फिलस्तीन से दस्तबरदार होने का फैसला ले लिया होता तो उनकी हुकूमत भी बची रहती और बल्कि ज़ियोनिस्ट लॉबी ने सल्तनत का कर्ज़ अदा करने और नेवी को आधुनिक करने की भी पेशकश की थी।

अरब देशों के तेल पर साम्राज्यवादियों की नज़र थी जो ऑटोमन एम्पायर के रहते सम्भव नही थी पर सवाल ये है कि क्या कमाल पाशा को लाकर ऐसा सम्भव हो सकता है मुझे नही लगता, कठपुतली तो असल मे अरब में बैठाऐ गए थे। अक्ल लगाओ जो आपके तेल को लूटेगा वो आपके धर्म के ख़िलाफ़ जाकर काम नही करेगा,  जबकि कमाल पाशा तो टर्की को उस यूरोप की तरह बनाना चाहते थे जो उनके देश को Sick man of Europe कहते थे हालांकि अंत तक वो कहते रहे।

कमाल पाशा अरब से नाराज़ उसने उस नाराज़गी का गुस्सा धर्म पर निकाल दिया, ऐसा नही कि उसने इस्लाम के खिलाफ जाकर ईसाइयों को बढ़ावा दिया। वो प्रगतिशील था लेकिन दोहरे चरित्र का नही, यहाँ का मैं उदहारण देता हूँ प्रधानमंत्री धार्मिक कर्मकांड करने के बाद देश को मॉडर्न करने की बात करते है, इन्हे मुस्लिम औरतों को न्याय दिलाना है पर अपनी बीवी को छोड़कर बैठे है। अगर आपको वाकई में भारत को आधुनिक बनाना था तो क्या आपको खुद नही बदलना था? आप नेहरू कभी नही बन सकते उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद को सोमनाथ जाने से ये कहकर रोका था कि एक सेक्युलर देश के राष्ट्रपति को धार्मिक जगह का उद्घाटन करने नही जाना चाहिए, ये एक सलाह थी आदेश नही।

नेहरू एकतरफा सोच नही रखते थे, जब वो तुर्की के दौरे पर जा रहे थे तो अबुल कलाम ने उन्हें ये कहकर कुरान भेंट करनी चाही की तुर्की के प्रधानमंत्री को भेंट दे दे तो उन्होंने ये कहकर मना कर दिया कि सेक्युलर देश के प्रधानमंत्री को धार्मिक किताबे भेंट नही देनी चाहिए। मुस्तुफा कमाल पाशा ने नकाब हिजबपर रोक लगाई पर वो ख़ुद आधुनिक था पर यहाँ आपको मालूम है कि मसला आधुनिकता है ही नही वरना जो लोग हिजाब के विरुद्ध लिख रहे है क्या उन्होंने प्रधानमंत्री के धार्मिक कर्मकांडो की आलोचना की?? या कभी प्रदर्शन किया कि आप संवैधानिक पद पर बैठकर किसी एक ही धर्म को रिप्रिजेंट नही कर सकते।

बाक़ी कमाल पाशा मेरे लिए द्वंद है उनके चरित्र को लेकर ऐसा ही विवाद रहेगा पर मेरा उनसे विरोध केवल इसबात को लेकर रहेगा कि उन्होंने जबरन काम किया जैसे संजय गांधी ने नसबंदी का, इसलिए सबसे बेहतर नेहरू का ही तरीका है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)