भाजपा के पास कोई नायक है नही। अब वो हमारे नायक को उठा रही है, यूँ तो उसके कई उदाहरण मिलते रहते हैं, पर मौजूदा दौर में बाबू कुँवर सिंह विजयोत्सव कार्यक्रम का है। वैसे तो बिहार सरकार उन्हें राजकीय सम्मान के साथ हमेशा याद करती है। वैसे राजकीय सम्मान के साथ बिहार में कई लोगों को याद किया जाता है, चाहे वो कुंवर सिंह हो या पीर अली ख़ान, बाबू जगजीवन राम हों या ग़ुलाम सरवर, सरकार किसी भी रहे इन्हें बिहार सरकार याद करती है।
पर अब ये पार्टी का मामला भी होते जा रहा है। अब भाजपा बड़े पैमाने पर बाबू कुँवर सिंह को सेलिब्रेट करेगी। उनका मेन टार्गेट होगा, राजपूतों को अपने तरफ़ मायल रखना। और इसी तरह भाजपा उनको यानी कुँवर सिंह को अपनी विचारधारा का आइकॉन बना कर पेश करेगी। फिर इसका एक असर ये होगा की मुसलमान कुँवर सिंह से दूर होते चले जाएँगे। जबकि बाबू कुँवर सिंह के साथ उज्जैन वंशी राजपूतों को हटा दिया जाए तो उनके साथ सिर्फ़ मुसलमान दिखेंगे।
बाबू कुँवर सिंह के साथ मुसलमान सिर्फ़ 1857-58 की जंग में नही थे। बल्कि काफ़ी पहले से काम कर रहे थे। जिसमें 1844 का ज़िक्र तो अंग्रेज़ अपने दस्तावेज़ में करते हैं। जहां 1856 में काज़ी ज़ुल्फ़िक़ार अली ख़ां को बाबू कुंवर सिंह का लिखा ख़त उनके बीच के रिश्ते को बख़ूबी ज़ाहिर करता है, वहीं 1844-45 में पीर बख़्श, दुर्गा प्रासाद, मुन्शी राहत अली, ख़्वाजा हसन अली, मौलवी अली करीम, मौलवी नियाज़ अली, बरकतउल्लाह और मीर बाक़र के साथ बाबु कुंवर सिंह का नाम भी बग़ावत में आता है।
लगातार ये लोग साथ काम कर रहे होते हैं, और इसको तरह समझ सकते हैं की जब 1857 में बाबू कुंवर सिंह ने आरा जीतने के बाद वहाँ दो थाना क़ायम किया “पुर्वी थाना और पश्चिमी थाना” जिसकी देख रेख की पुरी ज़िम्मेदारी ‘शेख़ ग़ुलाम यह्या’ के हाथ मे मेजिस्ट्रेट बना कर दे दिया। मिल्की मोहल्ला के ‘शेख़ मुहम्मद अज़ीमुद्दीन’ को पुर्वी थाना का जमादार बना दिया गया, तुराब अली और ख़ादिम अली जो के दीवान शेख़ अफ़ज़ल के बेटे थे को इन थाने कोतवाल बना दिया गया।
कुंवर सिंह जिस जगह गए, उनके साथ मुसलमान चट्टान के साथ खड़े रहे। उनकी शहादत के बाद मोहसिनपुर के ज़मींदार ‘मीर क़ासिम शेर’ और उस्ताद गु़लाम हुसैन ख़ान जैसे लोग बाबू अमर सिंह के साथ खड़े रहे। कुल मिला कर बाबू कुंवर सिंह मुसलमानो के उतने ही बड़े नायक हैं, जितने वो राजपूतों के हैं, इसलिए किसी सियासी पार्टी का उनपर क़ब्ज़ा ना हो, ये बहुत ज़रूरी हैं। बुज़ुर्गों ने उनके साथ मिल कर ख़ून दिया है, जायदाद लुटाईं हैं। इतनी आसानी से उनकी क़ुर्बानी को फ़रामोश नही होने दिया जा सकता है।