डॉ. सलमान अरशद
क़ुरआन इस्लाम का प्राथमिक ग्रंथ है। हदीस दूसरे नम्बर पर आती है, हलांकि हदीस को लेकर शिया व सुन्नियों में थोड़े मतभेद भी हैं, लेकिन क़ुरआन पर इन सबकी सहमति है। अहमदिया तक क़ुरआन मानते हैं लेकिन वो ये नहीं मानते की जनाब मुहम्मद स.अ. आखिरी नबी हैं। लिहाज़ा अहमदिया को शिया और सुन्नी दोनों ही मुसलमान नहीं मानते। पाकिस्तान में तो इनके ऊपर जानलेवा हमले तक होते हैं। शिया और सुन्नियों का क़ुरआन एक है लेकिन शिया के नज़दीक सुन्नी और सुन्नियों के नज़दीक शिया सच्चे मुसलमान नहीं हैं। फिर सुन्नियों के भीतर बरेलवी के लिए देवबंदी और अहलेहदीस सच्चे मुसलमान नहीं हैं. अहलेहदीस के लिए दूसरे फिरके के लोग सच्चे मुसलमान नहीं हैं, मतलब हर फिरके के लिए उससे इतर दूसरी जमातें “सच्चे मुसलमान” की केटेगरी में नहीं आते।
इन्हें काफ़िर कहने या सच्चा मुसलमान न मानने का फैसला इन स्कूल्स ऑफ थॉट्स के आलिमे दीन के हवाले से आता है। बाहर से देखने वाले लोग समझते हैं कि ये बहुत मुत्तहिद क़ौम है। अब आप खुद सोचिये कि इन आलिमो के जीते जी क्या मुसलमान एक हो पाएंगे? मुझे तो नहीं लगता और लोकतांत्रिक देश में किसी भी समूह की ताकत उसकी सियासी एकता में है, इससे आप इनकार नहीं कर सकते। अब एक बात तो बिल्कुल साफ है कि ये आलिम इस क़ौम को एक होने नहीं देंगे और इन आलिमों को कूड़े में फेंकने की सलाहियत, क़ूवत और हिम्मत अभी फिलहाल इस क़ौम के पास नहीं है।
मुसलमानों के विरोधी के लिए सिर्फ उर्दू अरबी नाम ही काफ़ी है, इतने भर से मुसलमान लिंच हो सकता है, भीड़ के ज़रिए मारा जा सकता है, एक पुलिस वाला कभी भी कहीं भी उसकी इज्ज़त रौंद सकता है और मामूली थानेदार 20 साल के लिए इन्हें अंदर कर सकता है, लेकिन मुसलमान ख़ुद शिया, सुन्नी, बरेलवी वगैरह के बुनियाद पर रिश्ते जोड़ेगा भी तोड़ेगा भी और दावा भी करेगा कि ये तो बस क़ुरआन को मानता है। अरे भाई सब जब क़ुरआन को ही मानते हैं तो दर्जन भर स्कूल्स कैसे बन गए ! इन स्कूल्स का कोई फ़ायदा इस क़ौम को होता हो, मुझे ये नज़र नहीं आता, हाँ कुछ आलिम ज़रूर मुर्गा खाते हुए अच्छी ज़िन्दगी जी लेते हैं, ये आलिम जुमे-जुमे गला फाड़कर रिदमिक चिल्लपों के अलावा और कुछ नहीं करते, लेकिन इस क़ौम को बर्बाद करने में इनका मुकाबला दुनिया का शायद ही कोई धर्म गुरू कर पाये।
तालीम को लेकर इन आलिमों का अलग ही फ़ितूर है। इन्होंने तालीम को दो सोबे में बांट रखा है। एक है दीनी तालीम और दूसरी है दुनियावी तालीम। मुझे क़ुरआन में ऐसा कुछ नहीं दिखा, किसी को दिखा हो तो मेरी रहनुमाई करे। धर्म की शिक्षा दीनी तालीम है और दुनिया के तमाम श्किल्स और मानविकी की तालीम दुनियावी तालीम है। हलांकि क़ुरआन के तमामतर तालीमात में दीन और दुनिया दोनों शामिल है। दरअसल दीन में दुनिया और दुनिया में ही दीन है। आप दुनिया मे रह कर ही दीन पर अमल कर सकते हैं और ये अमल दीन के मुताबिक हो तो सही है। इस तरह दीन और दुनिया को अलग नहीं किया जा सकता।
यहाँ एक सियासी पहलू को भी देखा जाना चाहिए। पूँजीवादी लूट में धर्म आधारित नैतिकता आड़े आती है। इसलिए जरूरी था कि इस लूट और धर्माचरण दोनो को अलग कर दिया जाए। लिहाज़ा आप देखेंगे कि मज़दूरों का खून पीने वाला सेठ घर से पूजा करके निकलता है और धर्म कर्म पर पैसे भी खर्च करता है। हज के लिए अरब गया मुसलमान थोड़ी तस्करी कर लेता है। ये सभी धर्मों में है, तो आलिमों ने दीन यानी कि धर्म और दुनिया यानि कि मोह-माया को अलग कर दिया। अब आप आराम से धर्म कर्म करते हुए मेहनतकश का खून भी पी सकते हैं। एक और कमाल की बात देखिये, क़ुरआन सबसे पहले पढ़ने की बात करता है और ये भी कहता है कि इल्म यानी ज्ञान हासिल करने के लिए जो भी जतन करना पड़े, करना चाहिए, लेकिन मुसलमान तालीम में बहुत पीछे है। हलांकि जिस तरह ये क़ौम मदरसे चलाती है उसी तरह मॉडर्न तालीमी एदारे भी बना सकती है, लेकिन इस दिशा में अभी बहुत कम काम हुआ है।
भारत में मुसलमान एक गरीब कौम है, आज़ाद भारत में गुज़रते वक़्त के साथ सियासी हालात भी इस कौम के खिलाफ़ होते गये हैं. अभी भी मुसलमानों के लिए दूर दूर तक हालात के साज़गार होने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आती. इसके बावजूद पूरे मुल्क में ये कौम मदरसे चलाती है, इन मदरसों में गरीब घरों के बच्चों के लिए रहने, खाने और पढ़ने की सहूलतें निःशुल्क है, ऐसे बच्चों के लिए कपड़े और ज़रूरत के मुताबिक इनके इलाज का भी इंतजाम किया जाता है. देश भर में कुछ गिनती के मदरसों में शिक्षकों को सरकारी तनख्वाह मिलती है, वरना ये पूरा इंतजाम मुसलमान आपसी सहयोग से करता है.
मदरसों में अमूमन धार्मिक शिक्षा ही दी जाती है लेकिन पिछले कुछ सालों में कुछ मदरसों में आधुनिक शिक्षा देने के भी इंतजामात किये गये हैं, हलांकि ये अभी बड़े छोटे पैमाने पर है. गांव गांव चलने वाले मदरसों को भी आधुनिक तालीमी एदारा बनाने में कोई विशेष खर्च नहीं आएगा, लेकिन लोगों के ज़ेहन में दीनी और दुनियावी तालीम का जो कांसेप्ट बैठा हुआ है उसे तोड़े बिना ऐसा कर पाना मुमकिन होता हुआ दिखाई नहीं देता. जैसे मुसलमान बिना किसी सरकारी मदद के हज़ारों करोड़ के खर्च से देश भर में मदरसे चला रहे हैं, उसी तरह मुसलमान सामूहिक सहयोग से अपने बच्चों को निःशुल्क स्कूली तालीम भी दे सकते हैं. ये सुकून देने वाली बात है, इस तरह की सोच इस कौम में लगातार शक्ल अख्तियार कर रही है, हम निकट भविष्य में इस दिशा में कुछ और बेहतर होता हुआ देख सकते हैं.
कुल मिलाकर आज के राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए जिन दो बेहद बुनियादी चीजों की ज़रूरत है वो है एकता और शिक्षा। मुसलमान इन दोनों पैरामीटर्स पर बहुत पीछे है। हलांकि मुसलमानों के बीच से नौजवानों का एक समूह तैयार हुआ है जो तालीमी ऐतबार से बहुत रिच है और उसके पास सियासी नज़रिया भी है, लेकिन एकता के लिए इनके बीच भी जिस धागे का इस्तेमाल हो रहा है वो मज़हबी है। इसलिए इस युवा ताकत की एकता कितनी मज़बूत होगी, ये बड़ा सवाल है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)