मीडिया में आज लगभग यह खबर आज गायब ही कर दी गई है कि मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के शुरुआती चार साल में पिछली यूपीए सरकार के मुकाबले तीन गुना ज्यादा के कर्ज माफ किए हैं। आरबीआई से मिली जानकारी के अनुसार, 2015 से 2019 तक 7.94 लाख करोड़ रुपये के कर्ज माफ किए गए थे, जबकि उससे पहले यूपीए सरकार के 10 साल (2004-2014) में 2,20,328 करोड़ रुपये के कर्ज माफ हुए थे।
कुछ लोगों का कहना है कि यह कर्ज माफ नहीं किया गया है बल्कि इसे राइट ऑफ किया गया है। आइये एक बार इन तकनीकी शब्दो की जादूगरी को समझ लेते हैं। दरअसल किसी भी कर्ज में जब लगातार तीन महीने तक किश्त नहीं चुकायी जाती है तो वो फंसा कर्ज यानी एनपीए में तब्दील हो जाता है. जब एनपीए की वसूली की कोई उम्मीद नहीं होती है तो वो डूबा कर्ज बन जाता है, वो रकम बट्टे खाते में डाल दी जाती है. तकनीकी भाषा में इसे ‘राइट ऑफ’ कहा जाता है।
आरबीआई के मुताबिक कर्ज को राइट ऑफ करने के लिए बैंक एक प्रोविजन तैयार करते हैं। इस प्रोविजन में राशि डाली जाती है। इसी का सहारा लेकर कर्ज को राइट ऑफ किया जाता है। बाद में यदि कर्ज की वसूली हो जाती है तो वसूली की गई राशि को इस कर्ज के विरुद्ध एडजस्ट कर दिया जाता है। ‘राइट ऑफ एक टेक्निकल एंट्री है, इसमें बैंक को कोई नुकसान नहीं होता है, इसका मतलब ये नहीं है कि बैंक ने उन संपत्तियों को छोड़ दिया, राइट ऑफ के बाद भी बैंक कर्ज वसूली की प्रक्रिया जारी रखते हैं।
लेकिन बड़ा सवाल यहाँ ये उठता है कि राइट ऑफ किये गए कर्ज की वसूली आखिर होती कितनी है? इसी कर्ज की बात कर लेते हैं NDA सरकार के दौरान राइट ऑफ किए गए 7 लाख 94, हजार 354 करोड़ रुपए में से मात्र 82 हजार,571 करोड़ रुपए की रिकवरी की गई है, यांनी स्पष्ट है कि बचा हुआ 7 लाख 11 हजार करोड़ रुपये डूब गया है। यानी कुल राइट ऑफ कर्ज का 12% ही वसूल कर पाए हैं, यह फिगर भी तब है जब इसमे प्राइवेट बैंको के राइट ऑफ की गई रकम का आंकड़ा शामिल हैं यदि आप PSU बैंको की रकम की वसूली को देखे तो मात्र कुल कर्ज राशि का सात से दस प्रतिशत ही वसूली हो पाती है।
बैंको ने अब वार्षिक आधार पर बेड लोन को राइट ऑफ घोषित करना शुरू कर दिया है जबकि आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि हर साल आप कर्ज को राइट ऑफ नहीं कर सकते हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि आप ऐसे कर्ज को हर तिमाही में या हर साल क्लियर नहीं कर सकते हैं, ये पांच या दस साल में की जाने वाली प्रक्रिया है। इसके अलावा राइट ऑफ की जाने वाली रकम भी छोटी होनी चाहिए। इसके अलावा किसी भी ऋण को बट्टे खाते में डालने की घोषणा करने से पहले बैंक वसूली के सभी उपाय नही आजमाता है इसके बजाय वह राइट ऑफ का आसान रास्ता अपनाता है।
एक और महत्वपूर्ण बात जो आपको ओर हमको समझना चाहिए कि राइट ऑफ की गई रकम की भरपाई के लिए बैंक अपने बाकी कमाई के जरियों पर निर्भर रहता है. जैसे कि बाकी लोन्स पर आ रहा ब्याज, सेविंग वगैरह पर दिया जा रहा ब्याज कम करना आदि, इसलिए ही आप देखेंगे कि बैंको द्वारा लगातार सेविंग्स की ब्याज दरों को कम किया जा रहा है। मोदी सरकार में हो यह रहा है कि बड़े कारोबारियों के साल दर साल कर्ज को बट्टे खाते में डाला जा रहा है और उसकी वसूली के लिए बैंको के री केपेटलाइजेशन के नाम पर आम जनता पर टैक्स बढ़ा कर वसूली जा रही है।
(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार एंव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)