भारतीय साहित्य के हज़ारों साल के इतिहास में कुछ ही लोग हैं जो अपने विद्रोही स्वर, अनुभूतियों की अतल गहराईयों और सोच की असीम ऊंचाईयों के साथ भीड़ से अलग दिखते हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब उनमें से एक हैं। मनुष्यता की तलाश, शाश्वत तृष्णा, मासूम गुस्ताखियों और विलक्षण अनुभूतियों के इस अनोखे शायर के अनुभव और सौंदर्यबोध से गुज़रना एक दुर्लभ अनुभव है। लफ़्ज़ों में अनुभूतियों की परतें इतनी कि जितनी बार पढ़ो, उनके नए-नए अर्थ खुलते जाते हैं। वैसे तो हर शायर की कृतियां अपने समय का दस्तावेज़ होती हैं, लेकिन अपने दौर की पीडाओं की नक्काशी का ग़ालिब का अंदाज़ भी अलग था और तेवर भी जुदा। यहां कोई रूढ़ जीवन-मूल्य अथवा जीवन-दर्शन नहीं है। रूढ़ियों का अतिक्रमण ही यहां जीवन-मूल्य है,आवारगी जीवन-शैली और अंतर्विरोध जीवन-दर्शन। मनुष्य के मन की जटिलताओं, अपने वक़्त के साथ अंतर्संघर्ष और स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध जैसा विद्रोह ग़ालिब की शायरी में मिलता है, वह उर्दू ही नहीं विश्व की किसी भी भाषा के लिए गर्व का विषय हो सकता है।
ग़ालिब को महसूस करना हो तो कभी पुरानी दिल्ली के गली क़ासिम जान में उनकी हवेली हो आईए ! यह छोटी सी हवेली भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायर का स्मारक है जहां उस दौर की तहज़ीब सांस लेती है। इसकी चहारदीवारी के भीतर वह एक शख्स मौज़ूद रहा था जिसने ज़िन्दगी की तमाम दुश्वारियों और भावनाओं की जटिलताओं से टकराते हुए देश ही नहीं, दुनिया को वह सब दिया जिसपर आने वाली सदियां गर्व करेंगी। हवेली के दरोदीवार तो अब खंडहर हो चुके हैं, लेकिन उनमें देखे गए ख़्वाबों की सीली-सीली ख़ुशबू यहां महसूस होगी। यहां अकेले बैठिए तो उन हज़ारों ख़्वाहिशों की दबी-दबी चीखें महसूस होती हैं जिनके पीछे ग़ालिब उम्र भर भागते रहे। यहां के किसी कोने में बैठकर ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ को पढ़ना एक अलग अहसास है। ऐसा लगेगा कि आप ग़ालिब के लफ़्ज़ों को नहीं, उनके अंतर्संघर्षों, उनके फक्कड़पन और उनकी पीड़ा को भी शिद्दत से महसूस कर पा रहे हैं।
ग़ालिब को महसूस करने की दूसरी जगह है दिल्ली के निज़ामुद्दीन में मौज़ूद उनकी मज़ार। यह मज़ार संगमरमर के पत्थरों का बना एक छोटा-सा घेरा नहीं, भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायर का स्मारक है। एक ऐसा स्मारक जिसकी चहारदीवारी के भीतर वह एक शख्स मौज़ूद है जिसने ज़िन्दगी की तमाम दुश्वारियों और भावनाओं की जटिलताओं से टकराते हुए देश ही नहीं, दुनिया को वह सब दिया जिसपर आने वाली सदियां गर्व करेंगी। ग़ालिब की मज़ार को निजामुद्दीन के बेहद भीडभाड वाले इलाके का एक एकांत कोना कहा जा सकता है। निजामुद्दीन के चौसठ खंभा के उत्तरी हिस्से में लगभग साढ़े तीन हज़ार वर्गफीट का यह परिसर लाल पत्थरों की दीवारों से घिरा हुआ क्षेत्र है जिसमें सफ़ेद संगमरमर से बनी ग़ालिब की एक छोटी-सी मज़ार है। पहले यहां सिर्फ उनकी कब्र हुआ करती थी। मज़ार और उसके आसपास की संरचना बाद में की गई थी। उनकी मज़ार के पीछे उनकी बेगम उमराव बेगम की कब्र है जिनकी मृत्यु ग़ालिब की मृत्यु के एक साल बाद हुई थी। ग़ालिब की मज़ार में उनका यह शेर दर्ज़ है –
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता!
मिर्ज़ा ग़ालिब से अकेले में मिलना हो तो दिल्ली में इससे बेहतर जगह और कोई नहीं। ग़ालिब की मजार दिल्ली में मेरी सबसे पसंदीदा जगह रही है और ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ मेरी सबसे पसंदीदा किताब। ग़ालिब की मज़ार पर, उनकी सोहबत में उनका दीवान पढ़ना मेरे लिए एक अतीन्द्रिय अनुभव है। वहां देर तक बैठने के बाद ग़ालिब से जो कुछ भी हासिल होता है उसे एक शब्द में कहा जाय तो वह है एक अजीब तरह की बेचैनी। रवायतों को तोड़कर आगे निकलने की बेचैनी। जीवन और मृत्यु के उलझे रिश्ते को सुलझाने की बेचैनी। दुनियादारी और आवारगी के बीच तालमेल बिठाने की बेचैनी। अपनी तनहाई को लफ़्ज़ों से भर देने की बेचैनी। इश्क़ के उलझे धागों को खोलने और उसके सुलझे सिरों को फिर से उलझाने की बेचैनी। उन तमाम बेचैनियों को निकट से महसूस करने का ही असर होता है कि सामने बैठे-बैठे कब्र के नीचे उनका कफ़न भी मुझे कभी-कभी हिलता हुआ महसूस होता है। भ्र्म ही सही, लेकिन बहुत खूबसूरत भ्रम –
अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पांव
ग़ालिब अपने मज़ार में बिल्कुल अकेले नज़र आते हैं। अपनी ज़िन्दगी में भी ग़ालिब को अकेलापन ही पसंद रहा था। जीते जी उनकी ख्वाहिश यही तो थी –
पड़िए ग़र बीमार तो कोई न हो तीमारदार
और अगर मर जाईए तो नौहा-ख़्वाँ कोई न हो‘!
उनके इस अकेलेपन में ग़ालिब से मेरा घंटों-घंटों संवाद चलता रहता है। अकेलेपन की अकेलेपन से बातचीत ! उनसे कुछ सवाल करता हूं तो जवाब भी मिल जाता है। शायद वर्षों तक साथ रहते-रहते कोई टेलीपैथी काम करने लगी है हमारे बीच। पिछली सर्दियों में एक दिन देर तक उनके मज़ार पर उन्हें पढ़ने-समझने के बाद मैं मज़ार के सामने की एक बेंच पर लेट गया था । मुझे लगा कि अपनी क़ब्र से ग़ालिब मुझे एकटक देखे जा रहे हैं। उनसे कुछ कहने की तलब हुई तो बेसाख़्ता मुंह से यह शेर निकल गया-
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
कब से ‘ग़ालिब’ ग़ज़ल-सरा न हुआ’!
पता नहीं क्या था कि हवा के एक तेज झोंके ने मेरे बगल में पड़े दीवान-ए-ग़ालिब के पन्ने पलट दिए। सामने जो ग़ज़ल थी, उसके जिस शेर पर पहली निगाह पड़ी, वह यह था–
‘क्यूं न फिरदौस में दोज़ख को मिला लें यारब
सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही।
आज 27 दिसंबर को मिर्ज़ा ग़ालिब की जयंती पर खिराज़!
(लेखक पूर्व आईपीएस हैं)