अशोक पाण्डेय
विभाजन की त्रासद हिंसा में मिल्खा सिंह के माता-पिता, एक सगी बहन और दो सगे भाई मार डाले गए थे. पाकिस्तान से भाग कर दिल्ली पहुंचे मिल्खा कुछ दिन अपनी बहन के घर रहे. उसके बाद उन्होंने रेलवे प्लेटफार्म को अपना घर बनाया. बिना टिकट यात्रा करते पकड़े जाने पर उन्हें जेल हुई. उसी बहन ने अपने हाथों के कड़े बेचकर भाई को तिहाड़ से बरी कराया. जीवन से निराश मिल्खा डाकू बन जाना चाहते थे लेकिन अपने भाई मलखान के कहने पर उन्होंने फ़ौज में भरती के लिए आवेदन किया. चौथी बार में उनका सेलेक्शन हुआ.
एक जवान के तौर पर उन्हें 5 मील की अनिवार्य दौड़ दौड़नी थी. शुरू के दस आने वालों को दौड़ने की ट्रेनिंग दी जाने वाले थी. आधा मील दौड़ाने के बाद मिल्खा के पेट में दर्द उठने लगा और वे बैठ गए. लेकिन उनके भीतर से कोई कह रहा था – “उठो! तुम्हें शुरू के दस में जगह बनानी है!” मिल्खा छठे नम्बर पर रहे.बाद में उनके अफसर ने उनसे ट्रेनिंग के दौरान कहा कि उन्हें चार सौ मीटर की रेस के लिए तैयार किया जाएगा.
मिल्खा ने पूछा – “चार सौ मीटर माने कितना?”
“मैदान का एक चक्कर” उसे बताया गया.
“एक चक्कर! बस! यह तो कुछ भी नहीं है.” मिल्खा ने सोचा.
पांच साल बाद 1956 में मिल्खा सिंह मेलबर्न ओलम्पिक में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. 400 मीटर रेस में कुल आठ हीट हुईं. मिल्खा का नंबर पांचवीं में आया. 48.9 सेकेण्ड का समय निकाल कर वे हीट में आख़िरी रहे और प्रतिस्पर्धा से बाहर हो गए. अमेरिका के चार्ल्स जेन्किन्स ने फाइनल में 46.1 सेकेण्ड का समय निकाल कर गोल्ड मैडल जीता. प्रतियोगिता समाप्त होने पर मिल्खा टूटी-फूटी अंगरेजी बोलने वाले एक साथी अपने साथ ले गए और चार्ल्स जेन्किन्स से मिले. मिल्खा जानना चाहते थे कि चार्ल्स अपनी ट्रेनिंग कैसे करते हैं. दोस्ताना जेन्किन्स ने एक-एक बात बताई.
उसी वक्त मिल्खा ने फैसला किया कि जब तक जेन्किन्स का रेकॉर्ड नहीं तोड़ लेते, उन्हें रुकना नहीं है. दो साल बाद कटक में हुई एक रेस में उन्होंने ऐसा कर भी दिखाया. वे इतनी तेजी से भागे कि निर्णायकों को यकीन न हुआ और उन्होंने ट्रेक की दोबारा से पैमाइश कराई. मिल्खा सिह के नाम के साथ 1960 के रोम ओलम्पिक की वह ऐतिहासिक रेस जुड़ी हुई है जिसने उन्हें एक मिथक में तब्दील कर दिया. वे फाइनल में पहुंचे और आधी रेस तक सबसे आगे रहने के बावजूद सेकेण्ड के सौवें हिस्से से मैडल पाने से रह गए. उस रेस में ओटिस डेविस और कार्ल कॉफ़मैन ने नया विश्व रेकॉर्ड बनाया जबकि 45.73 सेकेण्ड के साथ मिल्खा सिंह ने राष्ट्रीय रेकॉर्ड बनाया. यह रेकॉर्ड तोड़ने में अड़तीस साल लगे जब परमजीत सिंह ने कलकत्ता में 45.70 सेकेण्ड का समय निकाला.
मिल्खा सिंह के कारनामों के बारे में हर कोई थोड़ा-थोड़ा जानता है. हमने बचपन से उन्हें हमेशा एक सादगी भरे सैनिक की तरह देखा है जिस की आंखों के भीतर हर वक्त एक आग रोशन रहती थी. अपनी सफलता का श्रेय उन्होंने हमेशा तीन चीजों को दिया – अनुशासन, मेहनत और इच्छाशक्ति. ये तीन चीजें बस में आ जाएं तो आदमी दुनिया में सब कुछ हासिल कर सकता है. इस साधारण सी बात को जानता हर कोई है अलबत्ता जिन्दगी में उसे बरतने की तमीज बस किसी-किसी में होती है. इसीलिये हमारे पास सिर्फ एक मिल्खा सिंह था. था! लिखते हुए भीतर कुछ काँप रहा है. बीती रात उनके न रहने का समाचार आया. देश के सबसे बड़े चैम्पियन एथलीट को श्रद्धान्जलि!