नफरत के माहौल से लड़ने के लिए मोहब्बत का पैगाम, एकता की हिदायत और इल्म की रौशनी देकर चले गये मौलाना क़ल्बे सादिक़

नवेद शिकोह

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भारत के दूसरे सर सैय्यद अहमद ख़ान, शिक्षा विद्य, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष और इस्लामी स्कॉलर मौलाना डा.कल्बे सादिक का इंतेक़ाल हो गया। वो इक्यासी बरस के थे। पिछले दो साल से वो बीमार चल रहे थे। निमोनिया होने पर इन्हें लखनऊ के एरा अस्पताल के आईसीयू में भर्ती किया गया। जहां शिया धर्मगुरु मौलाना डा.सादिक़ ने अंतिम सांस ली। अपने पीछे वे तीन पुत्र, एक पुत्री और भरापूरा परिवार छोड़ गये हैं। इनके एक पुत्र कल्बे सिब्तैन नूरी बतौर मौलाना अपने वालिद की इल्मी विरासत संभाले हैं।

विभिन्न धर्मों, जातियों और मुसलमानों के तमाम मसलकों की एकता स्थापित करने के प्रयास करने वाले डा. सादिक़ ने हमेशां अशिक्षित समाज में शिक्षा की अलख जलाने पर बल दिया। सर सय्यद अहमद ख़ान की तरह डा.सादिक़ ने मुस्लिम समाज के उत्थान के लिए इल्म की रौशनी फैलाने पर विशेष बल दिया। और इस मिशन को ना सिर्फ तक़रीलों और तहरीरों के जरिए बल्कि अमली तौर पर आगे बढ़ाया।

उनका मानना था कि ग़रीबी, कट्टरता, संकीर्णता, अंधविश्वास, धर्म के प्रति गलतफहमियां, रूढ़ियां, कुरितियां, नफरत और साम्प्रदायिकता की जड़ अज्ञानता ही होती है। गंदी सियासत अज्ञानता का लाभ उठाकर समाज को बांटती है। आपस में झगड़ा पैदा करती है। जेहालत की माचिस से सियासतदां दंगों और नफरत की आग लगाकर अपना-अपना वोट बैंक तैयार कर लेते हैं। यही कारण है कि पॉलिटिकल एजेंडों में शिक्षा पर बल नहीं दिया जाता। डा.कल्बे सादिक के ऐसे ख्यालों की तकरीरें और मजलिसें पूरी दुनियां में पसंद की जाती थीं। उन्होंने हिंदू-मुसलमानों और शिया-सुन्नी के बीच किसी भी खायी को भरने के लिए मोहब्बत और एकता के पैग़ाम दिए। वो कहते थे कि अस्ल मजहब जोड़ता है तोड़ता नहीं है। जो तोड़े वो मजहब सियासत होती है। डा. सादिक मुस्लिम आरक्षण के ख़िलाफ थे। सिक्ख समाज की तारीफ करते हुए वो कहा करते थे कि इस अल्पसंख्यक कौम ने कभी भी आरक्षण नहीं लिया और वो मेहनत और संघर्षों से क़तरा-क़तरा हासिल करके तरक्की की रेस में आगे रहते हैं।

मौलाना कल्बे सादिक अज्ञानता, भ्रष्टाचार और गरीबी को देश की तरक्की की रुकावट मानते थे। उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ भी खूब तकरीरें दीं। उनका कहना था कि किसी भी किस्म के आतंकवाद का वास्ता किसी भी मज़हब से नहीं हो सकता हां किसी भी तरह की सियासत से दहशतगर्दी का रिश्ता ज़रूर हो सकता है। इस्लामिक स्कॉलर, शिया धर्मगुरु और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष डा. सादिक ऐसे तरक्कीपसंद शिक्षाविद थे कि उन्हें आज का सर सय्यद अहमद ख़ान कहा जाता था।

शिक्षा के क्षेत्र में मौलाना सादिक़ का योगदान

मौलाना क़ल्बे सादिक़ एरा यूनिवर्सिटी, यूनिटी कॉलेज,और तमाम शैक्षणिक संस्थाओं के अलावा चेरिटेबल ट्रस्ट के संस्थापक सदस्य रहे। 1984 में उन्होंने तौहीदुल मुस्लेमीन ट्रस्ट क़ायम किया। जिसमें गरीब बच्चों की पढ़ाई मे मदद और मेधावी छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्ति दी जाती है। उनके यूनिटी कॉलेज ने शैक्षणिक संस्थाओं में एक अलग पहचान बनाई। इस कालेज की दूसरी शिफ्ट में मुफ्त तालीम दी जाती है। अलीगढ़ में एम यू कॉलेज क़ायम किया। टेक्निकल कोर्सेज़ के लिए इंडस्ट्रियल स्कूल बनाया। लखनऊ के काज़मैन में चेरिटेबल अस्पताल शुरू किया। अमेरिका सहित दुनियां के दर्जनों देशों में इनकी मजलिसें और तकरीरें पसंद की जाती थीं।  उन्होंने गुफरान माब इमामबाड़े की खूबसूरत बिल्डिंग का निर्माण कर उसमें रोशनी हॉस्टल बनवाया। बेवाओ, यतीमों, बीमारों की मदद के साथ उनके इदारों (संस्थानों) में बच्चों की पढ़ाई के लिए विशेष योगदान देने का प्रावधान है।

जब गुजरात दंगों से भी सौहार्द का पैग़ाम लेकर आये थे डा.कल्बे सादिक़

ये बात कम ही लोग जानते हैं कि  गुजरात दंगों की नफरत के शोले से भी डा.कल्बे सादिक साम्प्रदायिक सौहार्द, भाईचारे और मोहब्बत का पैग़ाम लेकर लखनऊ वापस आये थे।  गोधरा ट्रेन कांड के बाद गुजरात दंगे शुरू हो चुके थे। इन दंगों की नफरत देश के कोने-कोने मे फैल रही थी। मीडिया भी आग बुझाने के बजाय आग लगा रही थी।  उस वक्त विश्वविख्यात धर्मगुरु डा. कल्बे सादिक गुजरात दंगों से सुरक्षित निकलकर लखनऊ आये थे। और उन्होंने गुजरात में हिन्दू-मुसलमान के बीच नफरत की हिंसा की आग में भी दोनों धर्मों के बीच मोहब्बत और सौहार्द की मिसाल ढूंढ कर मुझसे इसकी दलील पेश की थी।

मुझे याद है करीब सत्तरह वर्ष पहले मैं एक राष्ट्रीय अख़बार के लखनऊ कैंट रोड स्थित ब्यूरो कार्यालय में काम कर रहा था। वहां मेरे सीनियर पत्रकार मरहूम मनोज श्रीवास्तव (जिनका अब स्वर्गवास हो चुका है) ने मुझसे कहा कि डा.कल्बे सादिक गुजरात से लखनऊ वापस आये हैं,उनसे बात कर लो। मैंने डाक्टर सादिक को  उनके लखनऊ स्थित आवास पर लैंडलाइन फोन के ज़रिए बात की तो उन्होंने बताया कि वो एक मजलिस पढ़ने गुजरात गये थे। वहां दंगों की शुरुआत हो चुकी थी। लेकिन उन्हें ये अंदाजा नहीं था कि इतना जबरदस्त फसाद और नरसंहार हो जायेगा। इस दौरान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार के श्रम मंत्री उनके पास बहुत हड़बड़ाहट मे आये और बोले डाक्टर साहब मैं आपको एयरपोर्ट छोड़ने जाऊंगा। मौलाना कल्बे सादिक साहब ने मुझे बताया कि उस हिंदू भाई (मोदी की गुजरात सरकार के श्रम मंत्री)ने मुझे गुजरात से सुरक्षित लखनऊ पंहुचाने के लिए एयरपोर्ट तक छोड़ा। और मैं ख़ैरियत से सही सलामत गुजरात से लखनऊ वापिस हुआ।

ख़ैर तमाम खूबियों वाला मोहब्बत का पैग़ाम देने वाला, इल्म की रौशनी फैलाने वाला, इत्तेहाद की खुश्बू फैलाने वाले, आतंकवाद के खिलाफ लड़ने वाले मौलाना वक्त के बहुत पाबंद थे। उन्होंने शायद यही सही वक्त चुना। नफरत के अंधेरों के बढ़ते हुए माहौल से लड़ने के लिए मोहब्बत का पैगाम, एकता की हिदायतें और इल्म की रौशनी देकर चले गये डाक्टर साहब।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)