मौलाना जलालुद्दीन कासमी: जिनके स्कूल में बच्चे नर्सरी कक्षा में पढ़ते हैं संस्कृत

मंसूरुद्दीन फरीदी

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‘‘भाषाएं सभ्यताओं का मिलन हैं। भारत की दो बड़ी कौमों को एक साथ लाने में उर्दू और संस्कृत की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।’’ ये मालेगांव के हाफिज जलालुद्दीन अल-क़ासमी के शब्द हैं, जिन्होंने दारुल उलूम देवबंद से ‘फाजिल’ की उपाधि प्राप्त की थी। लेकिन उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वे अब संस्कृत के विशेषज्ञ हैं। वह किताब के लेखक भी हैं। संस्कृत को बढ़ावा देने में सक्रिय हैं। उन्होंने पांच साल में न केवल संस्कृत सीखी बल्कि भाषा में भी महारत हासिल की। उन्होंने संस्कृत व्याकरण पर विश्व की पहली उर्दू पुस्तक ‘संस्कृत उर्दू व्याकरण’ भी प्रस्तुत की है।

दिलचस्प बात यह है कि मालेगांव को देश में उर्दू के प्रमुख केंद्रों के रूप में देखा जाता है। इस जमीन पर मौलाना जलाल अल-क़ासमी की पहल ने देश के लिए एक बड़ी मिसाल कायम की है। नौगांव के रहने वाले हाफिज जलालुद्दीन अल-क़ासमी अब मालेगांव में रहते हैं। जहां उनका द नॉलेज नामक स्कूल है, वहां यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि उन्होंने संस्कृत को नर्सरी पाठ्यक्रम का हिस्सा बना लिया है। जिसने इसे देश का पहला स्कूल बना दिया है, जहां नर्सरी से संस्कृत पढ़ाई जा रही है।

संस्कृत सब पर भारी

आवाज-द वॉयस से बात करते हुए मौलाना जलालुद्दीन कासमी ने कहा कि संस्कृत का अर्थ है स्वच्छ, पारदर्शी, शुद्ध, सुशोभित। इसलिए संस्कृत भाषा का अर्थ स्पष्ट और पारदर्शी भाषा है।

यह दुनिया की सबसे पुरानी भाषा भी है। दुनिया का सबसे पुराना ग्रंथ संस्कृत में वेद हैे। इसे सभी आर्य भाषाओं की जननी कहा जाता है। भारत का समस्त प्राचीन साहित्य इसी भाषा में है। उपनिषद, रामायण, महाभारत, कविता और नाटक, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, राजनीति, धन और भगवत गीता, (धार्मिक पुस्तकें), दर्शन, ज्ञान और अंकगणित पर पुस्तकें भी संस्कृत में हैं।

मौलाना जलालुद्दीन अल-क़ासमी का कहना है कि वास्तव में भारत की अधिकांश भाषाओं में पचास से साठ प्रतिशत शब्द संस्कृत भाषा से लिए गए हैं। इसलिए संस्कृत भाषा का ज्ञान भारत की सभी भाषाओं को सीखना आसान बनाता है। इसलिए सामान्य संस्कृत भाषा का ज्ञान प्रत्येक भारतीय के लिए आवश्यक है।

उनका कहना है कि संस्कृत में अपने शब्दों को संक्षिप्त रूप में रखना बहुत महत्वपूर्ण है। इसलिए संस्कृत भाषा को कंप्यूटर विज्ञान के लिए बहुत उपयोगी माना जाता है। उल्लेखनीय है कि संस्कृत की विशेषता यह है कि इसमें जो कुछ भी लिखा जाता है, वह पढ़ा जाता है।

आपकी संस्कृत में रुचि कैसे हुई?

मौलाना जलालुद्दीन अल-क़ासमी कहते हैं कि एक समय था जब मैं कुछ लोगों के भाषण सुनता था, लेकिन इससे मुझे संतुष्टि या सांत्वना नहीं मिलती थी। तो मैंने सोचा कि क्यों न भाषा को पढ़कर खूब पढ़ा-समझा जाए।

मैंने पांच साल पहले संस्कृत सीखना शुरू किया था। संस्कृत का सबसे बड़ा फायदा यह है कि एक बार जब आप इसे जान लेते हैं, तो आप हिंदू धर्म को पढ़ और समझ सकते हैं। आपने जो सुना है, उससे बेहतर है कि आप खुद इसका अध्ययन करें। गीता का पाठ सभी को करना चाहिए।

हाफिज जलालुद्दीन अल-क़ासमी ने कहा कि यह महज एक संयोग नहीं था, बल्कि मैं हिंदू धर्म को समझने के लिए संस्कृत सीखना चाहता था, क्योंकि अधिकांश धार्मिक पुस्तकें संस्कृत में हैं। हाफिज जलालुद्दीन अल-क़ासमी कहते हैं कि संस्कृत सीखने से मेरा उद्देश्य पूरा हुआ है। मैंने हिंदू धर्म का अध्ययन किया और ईश्वर की अवधारणा को बहुत स्पष्ट पाया। यानी ईश्वर  एक है।

मुझे लगता है कि ‘गीता’ बहुत अच्छी किताब है, इसे सभी को पढ़ना चाहिए। गीता भी करुणा और देने को बहुत महत्व देती है। उनका कहना है कि किसी धर्म के बारे में मौखिक रूप से सुनने से बेहतर है कि उसके बारे में पढ़ा और समझा जाए। इससे न केवल भ्रांतियां दूर होती हैं, बल्कि यह भी स्पष्ट होता है कि धर्म जो भी हो, वह शांति और भाईचारे का संदेश देता है।

नर्सरी से संस्कृत

दिलचस्प बात यह है कि हाफिज जलालुद्दीन अल-क़ासमी ने मालेगांव में एक प्राथमिक विद्यालय स्थापित किया है। इसका नाम ‘द नॉलेज’ है। महत्वपूर्ण रूप यह है कि उन्होंने स्कूली पाठ्यक्रम में संस्कृत को शामिल किया है। यही वजह है कि द नॉलेज अब नर्सरी से संस्कृत की पेशकश करने वाला देश का पहला स्कूल है। मौलाना जलालुद्दीन अल-क़ासमी ने कहा कि प्राथमिक विद्यालय में संस्कृत शुरू करने का प्रयोग बहुत सफल रहा, इससे लंबे समय में सभी को फायदा होगा।

उन्होंने आवाज-द वॉयस से कहा कि वह स्कूल को एक मिसाल बनाना चाहते हैं और भविष्य में इसे हाई स्कूल और कॉलेज में बदलने के अपने सपने को पूरा करने की कोशिश करेंगे। पुस्तक के विमोचन के दौरान, द नॉलेज स्कूल, मालेगांव नर्सरी और केजीके के छात्रों ने संस्कृत वर्णमाला, महेश्वर सूत्र और संस्कृत में प्रार्थना शब्दों का हिंदी अनुवाद के साथ पाठ किया, जिसने सभी को प्रभावित किया। सभी ने सराहा। पुस्तक का विमोचन पंडित किशोर परशुराम लामिया ने किया था।

इस अवसर पर भी महाराष्ट्र के प्रख्यात बुद्धिजीवियों और भाषाविदों ने उनकी लगन और मेहनत की सराहना की। संस्कृत विशेषज्ञ पंडित किशोर परशुराम लामी ने कहा था कि उर्दू जानने वालों के लिए एक ऐसा अद्भुत और महत्वपूर्ण कार्य प्रकाश में आया है, जिसके बारे में कोई संदेह नहीं है।

संस्कृत जैसी कठिन भाषा पर पांच साल की कड़ी मेहनत के बाद हाफिज जलालुद्दीन कासमी ने इस भाषा पर अपना अधिकार स्थापित किया है, जो हम सभी के लिए एक मिसाल है। बल्कि यह काम भारतीयों के दिलों में जरूर अपनी छाप छोड़ेगा।

ठीक उसी तरह डीवाईएसपी मालेगांव लता ढोंडे ने कहा था कि अल्लाह ने अपने चुने हुए सेवकों को ऐसे अच्छे कामों के लिए चुना है, जिससे दुनिया के लोगों को फायदा होगा। कोई लिख रहा है कि कासमी साहब जैसे अनूठे विषय पर किताब और कोई समाज को बुराई से अच्छाई की ओर ले जा रहा है। पुस्तक का पहला संस्करण समाप्त हो गया है और अब दूसरा संस्करण आ रहा है, जो अमेजन पर भी उपलब्ध है।

दोस्ती की सीढ़ी

मौलाना जलालुद्दीन अल-क़ासमी ने आवाज-द वॉयस से कहा कि भाषा दोस्ती की सीढ़ी हो सकती है, गलतफहमियों को दूर कर सकती है, निकटता पैदा कर सकती है, इसलिए हमें भाषाओं को अपनाना चाहिए। यह पूछे जाने पर कि उन्हें संस्कृत सीखने के बाद व्याकरण की पुस्तक लिखने का विचार क्यों आया। तो

उन्होंने कहा, ‘‘मैं चाहता हूं कि इससे मुसलमानों को फायदा हो। मैंने भाषा को वैसे ही सीखा जैसा मन किया, लेकिन अन्य लोगों के लिए इसे आसान बनाने का विचार मेरे दिमाग में आया।

जहाँ तक मैं जानता हूँ, संसार में संस्कृत उर्दू व्याकरण की कोई पुस्तक नहीं थी। इस भाषा में मेरी रुचि के कारण मेरा एक सपना था कि संस्कृत उर्दू व्याकरण पर एक पुस्तक प्रकाश में आए जो अन्य भाषाओं में लिखे गए संस्कृत व्याकरण को विस्तार से पढ़ने का मार्ग प्रशस्त करेगी। मेरी पुस्तक संस्कृत उर्दू व्याकरण वस्तुतः इसी स्वप्न की व्याख्या है।’’

सभार आवाज़ द वायस