ध्रुव गुप्त
उर्दू के एक सुप्रसिद्ध शायर और देश के प्रखर स्वतंत्रता सेनानी हसरत मोहांनी को अब शायद ही कोई याद करता है। प्रबल साम्राज्यवाद-विरोधी पत्रकार, संपूर्ण स्वराज और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा देनेवाले निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी, कांग्रेस के दबंग नेता, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में एक, हमारे भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली संविधान सभा के प्रमुख सदस्य मौलाना हसरत मोहानी उर्फ़ फजलुर्र हसन अपने दौर के विलक्षण व्यक्तित्व रहे थे।
मोहानी साहब ने ही अहमदाबाद में कांग्रेस के 1921 के सत्र मे भारत के पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा था, लेकिन गांधी के उस वक्त अंग्रेजों के अधीन होम रूल के समर्थक होने की वज़ह से उनका वह प्रस्ताव पास नहीं हो सका। कांग्रेस छोड़ने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना और संगठन में उनका बड़ा योगदान रहा। सुलझे हुए राजनेता और निर्भीक योद्धा के अलावा वे मुहब्बत के बारीक अहसास के बेहतरीन शायर भी थे।
जंगे आज़ादी की उलझनों और कई जेल यात्राओं की वज़ह से उन्हें कुछ ज्यादा लिखने के मौक़े नहीं मिले, लेकिन उनकी मुलायम संवेदनाएं और नाज़ुकबयानी हैरान कर देती हैं। उनकी ग़ज़लों की बड़ी ख़ासियत यह है कि वहां महबूबा हवाई पात्र नहीं, संघर्षशील स्त्री, दोस्त और सहयात्री है। वक़्त ने उनके शायर को भुला ही दिया था, मगर गायक गुलाम अली ने उनकी एक ग़ज़ल ‘चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है’ गाकर उसे फिर चर्चा में ला दिया। मरहूम हसरत मोहानी को उनकी पुण्यतिथि (13 मई) पर खिराज़-ए-अक़ीदत, उनके एक शेर के साथ !
तेरी महफ़िल से उठाता ग़ैर मुझको क्या मजाल
देखता था मैं कि तुमने भी इशारा कर दिया!
(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं)