यादों में मंटो: जो बात की, ख़ुदा की क़सम लाजवाब की…

जाहिद ख़ान

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उर्दू अदब के बेमिसाल अफ़साना निगार सआदत हसन मंटो ने 43 साल की अपनी छोटी सी ज़िंदगानी में जी भरकर लिखा। गोया कि अपनी उम्र के 20-22 साल उन्होंने लिखने में ही गुज़ार दिए। लिखना उनका जुनून था और जीने का सहारा भी। मंटो एक जगह ख़ुद लिखते हैं,‘‘मैं अफ़साना नहीं लिखता, हक़ीक़त यह है कि अफ़साना मुझे लिखता है।’’ इसके बिना वह ज़िंदा रह भी नहीं सकते थे। उन्होंने जो भी लिखा, वह आज उर्दू अदब का नायाब सरमाया है। मंटो के कई अफ़साने आज भी मील का पत्थर हैं। मंटो का हर अफ़साना, दिलो दिमाग पर अपना गहरा असर छोड़ जाता है। उनकी कलम से कई शाहकार अफ़साने निकले। मसलन-‘ठंडा गोश्त’, ‘खोल दो’, ‘यजीद’, ‘शाहदोले का चूहा’, ‘बापू गोपीनाथ’, ‘नया कानून’, ‘टिटवाल का कुत्ता’ और ‘टोबा टेकसिंह’। हिंदोस्तान के बंटवारे पर मंटो ने कई यादगार कहानियां, लघु कथाएं लिखीं। मंटो का लिखा उनकी मौत के छह दशक बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप के करोड़ों-करोड़ लोगों के ज़ेहन में ज़िंदा है। 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में मंटो का इंतकाल हुआ।

मंटो ने डेढ़ सौ से ज्यादा कहानियां लिखीं, व्यक्ति चित्र, संस्मरण, फ़िल्मों की स्क्रिप्ट और डायलॉग, रेडियो के लिए ढेरों नाटक और एकांकी, पत्र, कई पत्र-पत्रिकाओं में कॉलम लिखे, पत्रकारिता की। उपन्यास, कविता को यदि छोड़ दें, तो उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं पर जमकर लिखा। मंटो की हर विधा, हर रचना पर ख़ूब बात हुई। फिर भी मंटो के पत्र जो उन्होंने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन और उसके बाद आइजनहावर के नाम लिखे, जो पाकिस्तान के अख़बारों में सिलसिलेवार शाया हुए, उन पर कम ही बात होती है। इन पर आलोचकों का ध्यान कम ही गया है। जबकि ये ख़त ऐसे हैं, जिन पर बात होनी ही चाहिए। ख़ास तौर पर अमेरिका और पाकिस्तान के उस दौर, उनके आपसी संबंधों को अगर समझना है, तो मंटो के यह ख़त बहुत मददगार साबित हो सकते हैं। उन्होंने बड़े ही बेबाकी और तटस्थता से अपने मुल्क और दुनिया की एक बड़ी महाशक्ति अमेरिका के हुक्मरानों की जमकर ख़बर ली है।

उन्होंने किसी को भी नहीं बख़्शा। ईमानदारी से वह लिखा, जो कि देखा। ये ख़त कितने बेबाक और सख़्त हैं, ये एक छोटी सी मिसाल से जाना जा सकता है,‘‘अमरीकी लेखक लेसली फ्लेमिंग ने ‘जर्नल आफ साउथ एशियन लिटरेचर’ के मंटो विशेषांक में ‘लैटर टोपिकल एसेज’ के तहत मंटो के मज़ामीन पर एक सफ़्हा लिखा है। उसने एक-एक, दो-दो सतरों में अलग-अलग मज़मूनों को छुआ है। क्या ये त’अज्जुब की बात नहीं है, कि वह ‘चचा साम’ के नाम लिखे गए नौ ख़तों के बारे में एक जुमला तो क्या, एक लफ़्ज़ तक न लिख सकीं। क्यों ? वह इसलिए कि मंटो ने जब ये ख़ुतूत लिखे थे, तब अमेरिका में चचा आइजनहावर की हुकूमत थी और जब अमरीकी स्कालर ने ‘लेटर टोपिकल एसे‘ज’ लिखा, तब अमेरिका में चचा रोनाल्ड रीगन की हुकूमत थी। यानी, दोनों ज़माने रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों के ज़माने थे। बात समझ में आती है और लेसली फ्लेमिंग की ओढ़ी ढांपी झेंप साफ़ नज़र आती है।’’ (पेज-366, अंतिम शब्द, सआदत हसन मंटो दस्तावेज-4)

मंटो के ख़तों के यदि हमें सही-सही मायने समझने हैं, तो अमरीकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन की कार्यप्रणाली और उस दौर के पाकिस्तान के हालातों से भी वाक़िफ़ होना ज़रूरी है। बीसवीं सदी के अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि वह जंग के लिए हमेशा उतावला रहने वाला, मुल्क था। (गोयाकि, जंग के लिए उसका ये उतावलापन, आज भी कम नहीं हुआ है।) अपने कार्यकाल में हैरी ट्रूमैन ने पूरी दुनिया में अमरीकी साम्राज्यवाद नीतियों को जमकर बढ़ावा दिया। जापान पर एटमी बम गिराने का फ़ैसला, यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए मार्शल प्लान, साम्यवाद की घेरेबंदी का ट्रूमैन-सिद्धांत, शीत युद्ध की शुरुआत, नाटो का गठन और कोरिया के युद्ध में अमरीकी-हस्तक्षेप जैसे उनके फ़ैसले मिसाल के तौर पर गिनाए जा सकते हैं। इन बातों की रौशनी में यदि देखें, तो मंटो के ख़त बड़े मानीख़ेज हैं। अंकल सैम को ख़त लिखने के पीछे मंटो का ज़ाहिर मक़सद, अप्रत्यक्ष तौर पर साम्राज्यवाद की आलोचना पेश करना था। पाकिस्तान के उस वक्त के हालात की यदि पड़ताल करें, तो पाकिस्तान उस समय एक नए राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान गढ़ने की कोशिश कर रहा था। पाक-अमरीकी आर्थिक-सामरिक संधि हो चुकी थी। दक्षिण-पूर्वी एशिया में बढ़ते साम्यवादी रुझान को रोकने के लिए, अमेरिका को इस इलाके में एक मोहरे की तलाश थी, जो कि उसे पाकिस्तान के रूप में मिल गया। मंटो के ख़तों के मज़मून से गुज़रकर, न सिर्फ़ अमेरिका और पाकिस्तान के सियासी-समाजी हालात जाने जा सकते हैं, बल्कि बाकी दुनिया के जानिब अमेरिका की नीति का भी कुछ-कुछ ख़ुलासा होता है।

अमेरिकी राष्ट्रपति के नाम मंटो ने अपना पहला ख़त दिसम्बर, 1951 में लिखा और आखिरी खत अप्रैल, 1954 में। तीन साल के अरसे में कुल जमा नौ ख़त। ख़त क्या, पाकिस्तान और अमेरिका दोनों ही मुल्कों के अंदरूनी हालात की बोलती तस्वीर ! पाकिस्तान का संकीर्ण वातावरण और अमेरिका की पूंजीवादी स्वच्छंदता। पाकिस्तान की बदहाली और अमेरिका का दोगलापन। पाकिस्तान की बेचारगी और अमेरिका की कुटिल शैतानी चालें। ख़त को लिखे, आधी सदी से ज्यादा गुज़र गई, मगर दोनों ही मुल्कों की न तो तस्वीर बदली और न ही किरदार। इन दोनों मुल्कों पर मंटो का आंकलन आज भी पूरे सौ आने खरा उतरता है। मंटो की कही गई बातें, आज भी इन पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं। पाकिस्तान कल भी अमेरिका की ख़ैरात के आसरे था, और आज भी उसकी अर्थव्यवस्था अमेरिकी डालरों के सहारे चल रही है।

मंटो अपने ख़तों में अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों पर जमकर तंज करते हैं। अपने तीसरे ख़त, जो उन्होंने 15 मार्च 1954 में लिखा में वह लिखते हैं, ‘‘हमारे साथ फ़ौजी इमदाद का मुआहदा (समझौता) बड़ी मार्के की चीज है। इस पर क़ायम रहिएगा। इधर हिंदुस्तान के साथ भी ऐसा ही रिश्ता उस्तुवार (मजबूत) कर लीजिए। दोनों को पुराने हथियार भेजिए, क्योंकि अब तो आपने वह तमाम हथियार कंडम कर दिए होंगे, जो आपने पिछली जंग में इस्तेमाल किए थे। आपके यह कंडम और फ़ालतू असलह भी ठिकाने लग जाएंगे और आपके कारख़ाने भी बेकार नहीं रहेंगे।’’ (पेज-322, तीसरा ख़त, सआदत हसन मंटो दस्तावेज-4) मंटो की इस तहरीर में अमेरिका का साम्राज्यवादी चेहरा पूरी तरह बेनकाब है। किस तरह वह दुनिया भर में अपने हथियारों की तिजारत करता है। जंग उसके लिए महज़ एक कारोबार है। जंग होगी तो उसके हथियार भी बिकेंगे। चाहे ईरान-इराक के बीच चली लंबी जंग हो, या फिर अफ्रीकी मुल्कों के बीच आपसी संघर्ष, इन जंग और संघर्षों में सबसे ज्यादा फ़ायदा अमेरिका का ही रहा है। फ़ौजी इमदाद के समझौते की आड़ में, वह आज भी अपने पुराने हथियारों को ठिकाने लगाता रहता है।

अमेरिका, पाकिस्तान पर आख़िर क्यों ‘मेहरबान’ है ? मंटो अपने ख़त में इस बात का भी ख़ुलासा करते हैं। ‘‘हिंदुस्तान लाख़ टापा करे, आप पाकिस्तान से फ़ौजी इमदाद का मुआहदा (समझौता) ज़रूर करें, इसलिए कि आपको इस दुनिया की सबसे बड़ी इस्लामी सल्तनत के इस्तेहकाम (सुदृढ़ता)की बहुत ज़्यादा फ़िक्र है, और क्यों न हो, इसलिए कि यहां का मुल्ला रूस के कम्युनिज्म का बेहतरीन तोड़ है।’’ (पेज-334, चौथा ख़त, सआदत हसन मंटो दस्तावेज-4) आगे की लाईनों में मंटो का व्यंग्य और भी पैना होता चला जाता है,‘‘जब अमरीकी औज़ारों से कतरी हुई लबें होंगी, अमरीकी मशीनों से सिले हुए शरअई पाजामे होंगे, अमरीकी मिट्टी के अनटच्ड बाई हैंड ढेले होंगे, अमरीकी रहलें (लकड़ी का स्टैंड, जिस पर कुरान रखते हैं) और अमरीकी जायनमाजें होंगी, तब आप देखिएगा, चारों तरफ आप की के नाम के तस्बीह ख़्वां होंगे।’’ (पेज-334, चौथा ख़त, सआदत हसन मंटो दस्तावेज-4)

अपने मुल्क के हालात का जिक्र करते हुए मंटो न तो पाकिस्तानी हुक्मरानों से डरते हैं और न ही मज़हबी रहनुमाओं का मुलाहिज़ा करते हैं। पाकिस्तानियों के जो अंतर्विरोध हैं, उनका मज़हब के प्रति जो अंधा झुकाव है, मंटो इसकी भी ख़ुर्दबीनी करने से बाज नहीं आते। धार्मिक कट्टरता और पोंगापंथ पर वह बड़े ही निर्ममता से अपनी कलम चलाते हैं। मंटो अपने ख़तों में अमरीकी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद पर जमकर चुटकियां लेते हैं। अमरीकी साम्राज्यवाद को प्रदर्शित करने के लिए वह बार-बार अमेरिका के राष्ट्रपति को सात आज़ादियों के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में मुख़ातिब करते हैं। तंज करने का उनका अंदाज़ बिल्कुल निराला है। मंटो के इन नौ ख़तों को पढ़कर बहुत हद तक पाकिस्तान और अमेरिका के हक़ीक़ी किरदारों को जाना जा सकता है। इन ख़तों में न सिर्फ उस दौर की अक्कासी है, बल्कि मुस्तक़बिल की भी तस्वीर है। आने वाले सालों में पाकिस्तान की क्या नियति होगी ? मंटो इसे पहले ही भांप चुके थे। समय की रेत पर वह सब कुछ साफ़-साफ़ देख रहे थे। उन्होंने अपने ख़तों से पाकिस्तानी हुक्मरानों को हर मुमकिन आगाह भी किया। लेकिन उनकी आवाज नक्कारख़ाने में तूती की तरह  रही। आज पाकिस्तान का जो हश्र है, सआदत हसन मंटो उसे बहुत पहले ही जान चुके थे। जहां तक अमेरिकन हुक्मरानों और उनकी नीतियों का सवाल है, मंटो ने उनके बारे में जो लिखा, वे बातें आज भी ज्यों के त्यों क़ायम हैं।

(लेखक पत्रकार एंव स्तंभकार हैं)