मन की बात बनाम मौलाना की बात

पलश सुरजन

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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मासिक कार्यक्रम ‘मन की बात’ प्रवचन की बात अधिक लगने लगा है। श्री मोदी इस कार्यक्रम में हर बार कुछ ऐसे लोगों का ज़िक्र करते हैं, जिन्होंने समाज हित के लिए कोई अनूठा काम किया हो, या जिनकी कोई खास उपलब्धि हो। इसके साथ ही वो युवा, विद्यार्थी, महिलाएं, आदिवासी, या दिव्यांगों आदि को किसी न किसी तरह की नसीहत देते हैं ताकि जीवन बेहतर बन सके। 70 बरस का कोई इंसान इस तरह की जीवनोपयोगी बातें समाज में प्रचारित-प्रसारित करे और सकारात्मक विचारों को बढ़ाए, तो ये अच्छी बात है।

लेकिन जब यह इंसान एक उम्रदराज़ नागरिक होने के साथ-साथ देश का प्रधानमंत्री पद भी संभाले, तो फिर उनके दायित्वों का दायरा कहीं ज्यादा विस्तृत हो जाता है। ऐसे में केवल उपदेशों, नसीहतों से काम नहीं चलता, बल्कि माहौल ऐसा बनाना पड़ता है कि आम से लेकर ख़ास तक हर नागरिक का जीवन बेहतर बने। तो श्री मोदी को मन की बात करने के साथ-साथ ये बताना चाहिए कि उन्होंने देश में इस तरह का माहौल बनाने के लिए क्या खास काम किया है। क्योंकि आज देश में चारों ओर जिस तरह के हालात बने हुए हैं, उनसे तो यही नजर आ रहा है कि बरसों की कमाई हुई संवेदनशीलता, सहनशीलता, सद्भाव और सामंजस्य की पूंजी को बर्बाद किया जा रहा है।

इस रविवार की मन की बात कार्यक्रम में श्री मोदी ने उत्तराखंड की एक बच्ची का ज़िक्र किया, जिसने तीन महीनों में कन्नड़ सीखी। बड़ी अच्छी बात है कि एक उत्तरभारतीय ने दक्षिण भारत की किसी भाषा को सीखने का प्रयास किया। उसकी इस उपलब्धि का जिक्र करते हुए मोदीजी ने कहा कि हमारी पहचान अलग-अलग भाषा और खानपान है। हमें ये विविधता राष्ट्र के रूप में एकजुट रखती है। लेकिन उनके इस कथन में आंशिक सुधार की जरूरत है।

हमारी पहचान में अलग-अलग भाषा और खानपान के साथ-साथ, धर्म, जाति, वेशभूषा, रस्म-रिवाज और विचारों की विविधता भी शामिल है। और यही अनेकता में एकता का मूलमंत्र है। हम सदियों से एकजुट हैं तो केवल इसलिए क्योंकि गंगा-जमुनी संस्कृति को हमने शाब्दिक अर्थ से आगे बढ़कर जीवनपद्धति का हिस्सा बनाया। एक बड़े से घर में जिस तरह अलग-अलग आदतों, मान्यताओं और विचारों के साथ लोग रहते हैं और अलग व्यक्तित्व होने के कारण कभी मनमुटाव होता है, बहस होती है, लेकिन फिर सब ठीक हो जाता है और फिर सभी लोग अपनी तरह से रहते हैं, कुछ ऐसा ही हिसाब भारत का भी रहा है। यहां भी विविधताओं के कारण कई बार विवाद खड़े हो जाते हैं, लेकिन फिर उन्हें दूर करने के रास्ते भी तलाश लिए जाते हैं।

ऐसा नहीं होता कि विवाद के कारण किसी को घर छोड़कर जाने के लिए कह दिया जाए। भारत के मुसलमानों के पास 1947 में विकल्प था कि वे धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान में जा सकते थे। कुछ लोग गए भी, लेकिन जिन लोगों ने यह मान लिया कि अपने घर, अपने देश को छोड़कर जाना ठीक नहीं है, आज उनके वंशजों को हिंदू धर्म के कुछ ठेकेदार किस तरह पाकिस्तान जाने की धमकी दे सकते हैं। या किस तरह सैकड़ों साल पहले बनी मस्जिदों की खुदाई की मांग इस आधार पर कर सकते हैं कि वहां मंदिर ही रहे होंगे। इतिहास गवाह है कि मंदिर, मस्जिद या बौद्ध और जैन धर्म के पूजा स्थल राजाओं ने अपनी सत्ता की सुविधा के हिसाब से तोड़े या बनवाए या उन्हें लूटा या उनमें दान दिया। राजनीति के आधार पर धर्म को संचालित किया जाता था, लेकिन उस वक्त देश के रूप में भारत संगठित नहीं हुआ था, न ही कोई संविधान बना था, जिसमें जनता के हित सर्वोपरि रखते हुए सरकार पर जनता की सेवा की जिम्मेदारी दी गई थी।

आज हालात बिल्कुल अलग हैं। अब बहुमत से निर्वाचित सरकार है, जिस पर देश को आगे बढ़ाने, हर नागरिक को सुखी और संपन्न बनाने की ज़िम्मेदारी है। मगर विभाजनकारी बातें लोकतांत्रिक सरकार के उद्देश्य को पूरा नहीं होने दे रही हैं। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी का यह दायित्व है कि वे ऐसी बातों को उठने से रोकें और अगर फिर भी उठ जाएं तो उनकी कड़ी निंदा करें, ताकि विभाजनकारी ताकतों के हौसले पस्त हों। अफ़सोस कि मोदी जी के ‘मन की बात’ में ऐसा कुछ नहीं था। भविष्य के सपने, लुभावनी बातें तभी अच्छी लगती हैं, जब वर्तमान अच्छा हो। आज देश के अल्पसंख्यक भीतर से आशंकित हैं, भयभीत हैं कि उनके साथ किस किस्म का व्यवहार होगा। उनके पूजास्थलों पर कब सर्वे कराने की मांग खड़ी हो जाए, उन्हें नहीं पता। लेकिन मोदीजी ने ऐसा कुछ नहीं कहा जो उन्हें आश्वस्त करता कि उनके साथ अन्याय नहीं होने दिया जाएगा।

अल्पसंख्यकों की पीड़ा और बेचैनी जमीयत-उलेमा-ए-हिंद की दो दिवसीय बैठक में साफ़ नजर आई। इस बैठक में मंदिर-मस्जिद विवाद पर साफ कहा गया कि इससे अशांति फैलेगी। देश की अमन-शांति को नुकसान पहुंचेगा। इसलिए, इसे बंद किया जाना चाहिए। इस बैठक के पहले दिन जमीयत के अध्यक्ष मौलाना मदनी ने भावुक होकर कहा कि हम जुर्म सह लेंगे लेकिन देश पर आंच नहीं आने देंगे। हम हर चीज से समझौता कर सकते हैं, पर देश से नहीं। इस बात को हर किसी को समझने की जरूरत है। वहीं दूसरे दिन उन्होंने साफ़ संदेश दिया कि मुसलमान देश की एकता के लिए जान देता आया है और देता रहेगा।

दो तरह की मन की बातें देश के सामने हैं। एक में भविष्य के सपने हैं, दूसरे में वर्तमान की कड़वी हक़ीक़त है। एक को अनदेखा कर, दूसरे की बात नहीं की जा सकती। दोनों हालात के हर पहलू पर विचार करके ही देश आगे बढ़ेगा, वरना इतिहास के काले, अंधेरे गड्ढों में गुम होने का ख़तरा बरकरार रहेगा।

(लेखक देशबन्धु के संपादक हैं)