नीतीश और मायावती की राह पर ममता

ये जो सलाहकारनुमा चीज होते हैं बहुत खोज कर मुहावरे लाते हैं। प्रशांत किशोर इन दिनों ममता बनर्जी के पास हैं। ममता का स्पेस बनाने के लिए उन्होंने कहा कि विपक्ष का नेतृत्व कांग्रेस का दैवीय अधिकार नहीं है। बिल्कुल सही कहा। नहीं है! मगर पीके के पास क्या कोई रावणी शक्ति है? रूप बदलने की। जब चाहे साधु बनकर नरेटिव के अपहरण की।

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वे कोई उपभोक्ता वस्तुओं के ब्रांड मैनेजर नहीं हैं कि आज एक उत्पाद को अच्छा कहें, कल दूसरे को, परसों तीसरे को। राजनीति में इतनी तेजी के साथ पाला बदलने वालों को क्या कहते हैं? वे तो पासवान से भी आगे निकलते दिखाई दे रहे हैं। सबसे पहले वे राहुल के पास आए थे। उनकी टीम में काम किया। और फिर जैसा कांग्रेस का इतिहास है कि यहां सीख कर, नाम कमा कर आदमी भाजपा की मदद करने लगता है। तो उसी परंपरा के मुताबिक यहां से अपना बायोडेटा जिसे आज रेज्यूमे, सीवी कहते हैं, मजबूत करके पीके 2014 में मोदी जी के पास चले गए। वहां से निकलकर फिर कांग्रेस के लिए काम किया। फिर नीतीश के पास फिर कांग्रेस में कोशिश और सुरजेवाला द्वारा डपटे जाने कि हम सलाहकारों के बयानों पर टिप्पणी नहीं करते पीके अब ममता के साथ चले गए।

इतने रूप! तो यह तो कोई सकारात्मक दैवीय शक्ति नहीं कहलाएगी। यह तो रावण का रुप बदलना या शकुनि की कुटिल चाल ही कहलाएगी। इस तेजी के साथ तो ब्रांड मैनेजर भी प्रतिस्पर्धी ब्रांडों में नहीं जाते होंगे। उनकी भी कुछ व्यवसायिक वैल्यूज होती हैं। एक बार जीआरडी टाटा से पूछा गया था कि भारत की इकानमी में उनका सबसे बड़ा योगदान क्या है? तो उनका विनम्र जवाब था कि मेरा कोई खास योगदान नहीं है। सिवाय नैतिक मूल्यों के। देश के बड़े आर्थिक जानकार मानते हैं कि टाटा समूह नैतिक मूल्यों से समझौता नहीं करता।

इसी टाटा समूह की महत्वाकांक्षी छोटी कार नैनो के कारखाने का विरोध करके ममता बंगाल की मुख्यमंत्री बनी थीं। सिंगुर का वह 2006 का आंदोलन पूरा झूठ पर आधारित था। उसके राजनीतिक परिणाम जो हुए वह अलग बात है। मगर हिन्दुस्तान का पहली छोटी कार नैनो उससे बुरी तरह हिल गई। सब मोटर विशेषज्ञ और नैनो चलाने वाले भी मनाते हैं कि वह कार बहुत अच्छी थी। एक लाख में उससे अच्छा सस्ता सौदा नहीं हो सकता था। लेकिन सड़क पर आने से पहले उसके खिलाफ जो माहौल बना उसकी कीमत भारत के निम्न मध्यम वर्ग को चुकाना पड़ी। पहली कार खरीदने का उसका सपना टूट गया। उसीके बाद मारूति 800 बंद कर दी गई। और कारों की कीमते बेतहाशा बढ़ गईं। टाटा ने इसे कभी मुद्दा नहीं बनाया। मगर आज 15 साल बाद जब ममता अडानी का हाथ जोड़कर स्वागत कर रही हैं तो इसके राजनीतिक रंगों के साथ वह दुर्भाग्यपूर्ण 15 साल भी दिखाई दे रहे हैं जिनमें बंगाल औद्योगिक रूप से बहुत पीछे चला गया।

हालांकि ममता को यह गलती मानना पड़ी। तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी सरकार ने उद्योगपतियों को बंगाल में दो मैन्युफैक्चरिंग प्लांट लगाने का आमंत्रण  दिया। साथ ही उद्योगपितयों को खुश करने के लिए उनके उद्योग मंत्री ने यह भी कहा कि सिंगुर मामले में टाटा की कोई गलती नहीं थी। मगर उसके बाद भी उद्योगपतियों ने बंगाल की तरफ नहीं झांका। अब राहुल और कांग्रेस पर अटैक करने के बाद अडानी और अंबानी ममता से मिले।

इसी से समझा जा सकता है कि ममता, पीके किस के लिए काम कर रहे हैं। पहले ममता ने दिल्ली आकर सोनिया से मिलने से इनकार किया। प्रधानमंत्री से मिलने पहुंची। राहुल पर उस भाषा में अटैक किया जिसमें भाजपा करती है। फिऱ उसे बल देने के लिए पीके को एक सिद्धांत गढ़ने के लिए कहा गया कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के स्वाभाविक विपक्ष का नेता होने पर कैसे सवाल खड़ा किया जा सकता है। तब पीके दैवीय शक्ति का सवाल लेकर आए।

मजेदार है। राहुल गांधी अविचलित हैं। संसद से लेकर सड़क और प्रेस कांन्फ्रेस हर उपलब्ध तरीके से जनता की आवाज उठा रहे हैं। और दूसरी तरफ मोदी सरकार, भाजपा, मीडिया, कांग्रेस का एक बागी गुट जी 23 और अब विपक्ष में से भी ममता बनर्जी राहुल के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। इन्हीं परिस्थितियों में 50 साल पहले 1971 में इन्दिरा गांधी ने कहा था कि ”मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, वे कहते हैं इन्दिरा हटाओ! “ जनता पर इसका सीधा असर हुआ था। बागी कांग्रेसियों (कांग्रेस सिंडिकेट) और दूसरी कांग्रेस विरोधी पार्टियों का मोर्चा बुरी तरह हारा था। इन्दिरा गांधी 352 सीटों पर जीती थीं। उन दिनों बागियों द्वारा इन्दिरा को कांग्रेस से ही निकाल देने के बाद उनकी पार्टी का नाम कांग्रेस (इ) था। यह नारा आज भी प्रभावशाली है। हालांकि कांग्रेसी इसे भूल गए। वे सारा संघर्ष और कांग्रेस का इतिहास भूल जाते हैं। उन्हें केवल सत्ता याद रहती है। खैर तो कांग्रेसी तो भूल गए मगर भाजपा को इसकी ताकत याद है। उनका नारा उन्हीं के खिलाफ उपयोग करते हुए अमित शाह ने कहा था कि मोदी जी कहते हैं गरीबी हटाओ, राहुल गांधी कहते हैं मोदी हटाओ।

सेम नारा। लेकिन यूज कांग्रेस के खिलाफ हो रहा है। क्यों?  क्योंकि कांग्रेस को ही इस नारे के साथ जुड़े संघ्रर्ष की कहानी याद नहीं। इन्दिरा जी उस समय संकट के सबसे खतरनाक दौर में घिरी हुई थीं। अपनी ही पार्टी से निष्कासित। लेकिन वे विचलित नहीं हुईं। शायद राहुल ने उन्हीं से सीखा है। वे भी आज कहीं से भी विचलित दिखाई नहीं देते। तो इन्दिरा जी निकल पड़ीं जनता को बताने कि मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, और वे मुझे हटाने की बात करते हैं। पार्टी से निकाल दिया, विपक्ष के साथ मिल गए। पूंजिपतियों से मिल गए। मगर मैं आपसे मिलने आई हूं। गरीब के साथ, निम्न मध्यम वर्ग, छोटे दूकानदार, किसान, मजदूर के साथ सीधा संवाद। आजकल जैसा यूपी में प्रियंका कर रही हैं। इन्दिरा जी ने उस समय दो महीने में करीब 60 हजार किलोमीटर की यात्रा की थी। 300 से ज्यादा सभाएं संबोधित कीं। कांग्रेस का वोट प्रतिशत 44 पर पहुंचा दिया। जबकि आज भाजपा जो अपने सर्वोच्च शिखर पर है 2019 के चुनाव में केवल 37 प्रतिशत ही वोट ले पाई थी। उसी 2019 के चुनाव से पहले अमित शाह जो तब भाजपा अध्यक्ष थे ने इन्दिरा जी के नारे का उपयोग किया था कि मोदी जी कहते गरीबी हटाओ, राहुल कहते हैं मोदी हटाओ।

इसमें दो बातें खास हैं। एक इन्दिरा गांधी की जनता से अपील को पकड़ना और दूसरे राहुल को महत्व देना। अमित शाह ने इन्दिरा की तरह अमूर्त यह नहीं कहा कि वे कहते हैं। उन्होंने विपक्ष भी नहीं कहा, कांग्रेस भी नहीं, साफ राहुल कहा। मतलब राहुल ही उन्हें सबसे बड़ी बाधा दिख रहे हैं। तब भी 2018 में जब यह नारा दिया था। और आज भी। और अब ममता को भी दिखने लगे।

कांग्रेस का, राहुल का विरोध करने में कोई बुराई नहीं। बस ममता को शिवसेना के उन शब्दों पर गौर कर लेना चाहिए जो उसने अपने मुखपत्र सामना में लिखा कि बंगाल के चुनाव में पूरे देश ने उनका समर्थन किया था। मगर आज वे कांग्रेस और राहुल पर हमला करके मोदी सरकार की मदद कर रही हैं।

ममता की राजनीति का नकाब उतर गया। वे अब नीतीश और मायावती की राह पर चल पड़ी हैं। उन्हीं की तरह भाजपा की छाया बनने। कभी ये दोनों नेता भी प्रधानमंत्री पद के सशक्त उम्मीदवार माने जाते थे। आज भाजपा की मेहरबानी से राजनीति करते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)