मेजर ध्यानचंद को 29 अगस्त को क्या मिलेगा ‘भारत रत्न’?

खुशदीप सहगल

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मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर देश के एकमात्र खिलाड़ी हुए हैं जिन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक अलंकरण भारत रत्न से नवाज़ा गया है. अभी तक 48 विभूतियों को भारत रत्न मिल चुका है. इस सूची को जब भी देखता हूं तो एक बात सबसे ज़्यादा कचोटती है और वो है दद्दा का नाम इसमें न होना. दद्दा बोले तो मेजर ध्यानचंद. हॉकी के वो जादूगर जिनके पास गेंद आती थी तो बस उन्हीं की स्टिक से चिपक कर रह जाती थी. देखने वाले हैरान होते थे कि कहीं उनकी स्टिक में गेंद को चिपकाने वाला चुम्बक तो फिट नहीं है. सवाल है कि 1928 से भारतीय हॉकी के स्वर्णिम युग की पटकथा लिखने वाले दद्दा का योगदान क्या कहीं से भी सचिन तेंदुलकर से कम है?  फिर उन्हें भारत रत्न देने में इतनी देर क्यों हुई, ये सवाल देश में अब तक जितने भी राजनीतिक कर्णधार हुए हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए. उन्हें भारत रत्न पाने वाले भारत के पहले खिलाड़ी होने का गौरव क्यों नहीं दिया गया, जिसके कि वो पूरे हक़दार थे.

सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने का एलान यूपीए-2 सरकार के आखिरी वर्ष में लिया गया था. तब सचिन तेंदुलकर अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से रिटायर हुए थे और उनके लिए देश में भावनाओं का सैलाब उमड़ा हुआ था. यूपीए-2 सरकार ने सचिन को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान देने में देर नहीं लगाई. अब यहां भी श्रेय लेने की होड़ थी या युवाओं में सचिन के क्रेज को चुनाव में भुनाने की कोशिश, कहा नहीं जा सकता. बेहतर यही रहता कि तभी मेजर ध्यानचंद को भी भारत-रत्न देने का एलान किया जाता. उनके नाम ये पहले ही हो गया तो वो सर्वोच्च नागरिक सम्मान हासिल करने वाले देश के पहले खिलाड़ी होते.

खैर कल की बात छोड़िए. आते हैं आज पर…

टोक्यो ओलिम्पिक्स में भारतीय पुरुष हॉकी टीम के ब्रान्ज जीतने और महिलाओं की टीम के चौथे नंबर पर रहने से एक बार फिर ये कथित ‘राष्ट्रीय खेल’  सुर्खियों में है. इस ओलम्पिक्स में भारतीय हॉकी टीमों की तैयारी के लिए सबसे बड़ा श्रेय ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को दिया जाना चाहिए. उन्होंने तब दोनों टीमों को स्पॉन्सर किया जब इसके लिए कोई सामने नहीं आ रहा था.

इस ओलिम्पिक्स के बाद एक और घटनाक्रम हुआ. केंद्र सरकार ने खेलों के लिए दिए जाने वाले देश के सबसे बड़े पुरस्कार का नाम ‘राजीव गांधी खेल रत्न’  का नाम दद्दा मेजर ध्यानचंद के नाम पर कर दिया. अच्छी बात है. मैं इन सवालों में नहीं जाना चाहता कि ये कदम उठाने के पीछे कितनी राजनीति है और कितनी दद्दा के प्रति सद्भावना. लेकिन अब यक्ष प्रश्न है कि दद्दा को भारत रत्न देने का एलान कब किया जाएगा. क्या ये एलान 29 अगस्त को दद्दा की 116 वीं जयंती पर हो जाएगा?

अगर ऐसा होता है तो मैं इस सरकार को सबसे पहले बधाई देने वालों में से एक होऊंगा. कहने वाले इस एलान को अगले साल होने वाले यूपी चुनाव की राजनीति से जोड़ कर भी देख सकते हैं. लेकिन दद्दा का सम्मान इस तरह की राजनीति से कहीं ज़्यादा ऊंचा है. जो काम वर्ष 1954 से यानि 67 साल से अटका हुआ है वो अब हो जाना चाहिए. देश में भारत रत्न दिए जाने की शुरुआत 2 जनवरी 1954 को हुई थी. तब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और डॉ. चंद्रशेखर वेंकटरमण को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया गया था.

बहरहाल, अब उसी सवाल पर लौटता हूं कि भारत रत्न पाने वाली विभूतियों की सूची में हम कब मेजर ध्यानचंद का नाम देख पाएंगे. क्या इसी 29 अगस्त को, या उससे पहले, या अभी भी ये फ़ैसला लटका रहेगा.

कौन थे दद्दा ध्यानचंद?

ध्यानचंद गाथा 1928 एम्सटर्डम ओलिम्पिक्स से शुरू हुई. तब भारत ने फाइनल में नीदरलैंड्स को 3-0 से हरा कर हॉकी का पहला गोल्ड अपने नाम किया. 1932 में लॉस एंजिल्स ओलिम्पिक्स में फाइनल में अमेरिका को 24-1 से रौंद डाला था. फिर 1936 बर्लिन ओलिम्पिक्स में भारत ने जर्मनी की 8-1 से दुर्गति की. इन तीनों ओलिम्पिक्स में ध्यानचंद दद्दा ने 12 मैच खेले और 33 बार विरोधी टीमों के गोलपोस्ट को खड़काया.

दद्दा के साथ जुड़े कुछ किस्से

ये बता दें कि दद्दा जिन दिनों हॉकी खेलते थे, उन दिनों आज की तरह मैदान में एस्ट्रो टर्फ नहीं होता था. तब मैच मैदान की सामान्य जमीन पर ही होते थे जो समतल नहीं बल्कि कई जगह उबड़-खाबड़ होती थी. उस ज़मीन पर भी गेंद पर कंट्रोल रखने में दद्दा को महारत हासिल थी. कहा जाता है कि एक बार उनकी हॉकी स्टिक को भी तोड़ कर देखा गया कि कहीं उसमें चुम्बक तो नहीं.

1936 में बर्लिन ओलिम्पिक्स के दौरान जर्मनी के तानाशाह शासक अडल्फ हिटलर ने ध्यानचंद के खेल से मुरीद होकर उन्हें जर्मनी की नागरिकता और अपनी सेना में कर्नल के पद की पेशकश की थी. लेकिन हिटलर ने अपने लिए अपना देश सबसे पहले होने की बात कह कर हिटलर के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था.

दद्दा के लिए मेरे दिल में विशेष सम्मान है, उनके नाम ने अप्रत्यक्ष तौर पर करीब ढाई दशक पहले मुझ से नौसिखिए को कैसे पत्रकारिता में अपना पैर जमाने में मदद की थी, उसका ज़िक्र अगले लेख में किया जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख उनके ब्लॉग देशनामा से लिया गया है)