माहा आब्दो: ऑस्ट्रेलिया में मुस्लिम औरतों के हिजाब पहनने के हक की सफल लड़ाई लड़ने वाली ‘अनसंग हीरो’

वह 1960 का दशक था। लेबनान अराजकता की ओर बढ़ चला था। जॉर्डन में मिली शिकस्त से निराश बहुतेरे फलस्तीनी लड़ाके लेबनान चले आए थे और वे वहीं से इजरायल पर हमलावर थे। माहा आब्दो ने उसी दौर में त्रिपोली में अपनी आंखें खोलीं। सूफी संतों की सोहबत से रोशन समाज के हालात बिगड़ते जा रहे थे। माहा के पिता काफी बेचैन थे कि इस सूरते-हाल में वह कैसे अपने परिवार और बच्चों को अच्छी जिंदगी दे सकेंगे?

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सुकून भरी जिंदगी की तलाश अंतत: उन्हें ऑस्टे्रलिया ले आई थी। वहां सरकारी ठेके में काम भी मिल गया था। लेकिन अगले कई महीने वह इसी ऊहापोह में रहे कि परिवार को ले आएं या नहीं? चंद साल पहले ही ‘ह्वाइट ऑस्ट्रेलिया पॉलिसी’ हटी थी, जो गैर-यूरोपीय लोगों को वहां आने से रोकती थी। फिर दोनों मुल्कों की तहजीब और जुबान में भी काफी फर्क था। उनके बीवी-बच्चे अरबी और फ्रेंच तो बोले सकते थे, पर ऑस्ट्रेलिया में अंग्रेजी के बिना संवाद का भारी संकट था। लेकिन लेबनान को हिंसक दौर के मुहाने पर देखते हुए जून 1970 में वह परिवार को सिडनी ले आए।

माहा तब बमुश्किल 12 साल की थीं। फ्रेंच तो वह फर्राटेदार बोल लेती थीं, पर अंग्रेजी से कोई पहचान नहीं थी। फिर उस दौर का ऑस्ट्रेलिया बाहरी लोगों के प्रति बड़ा अनुदार था। भाषाई परेशानी का तजुर्बा माहा को जल्द ही हो गया। उन्हें रैंडविक गर्ल्स हाईस्कूल में दाखिला मिल गया था। दयालु अंग्रेज प्रिंसिपल ने आश्वस्त भी किया कि वह तीन महीने में ही अंग्रेजी फर्राटेदार बोलने लगेंगी, पर माहा को तो उस वक्त यह पहाड़ तोड़ने-सा काम लगा।

पहली कक्षा गणित की मिली। बच्चे एक जटिल सवाल हल करने में जुटे थे। माहा को लगा, यह प्रश्न वह आसानी से हल कर सकती हैं। उन्होंने अंग्रेजी न जानते हुए भी अपना हाथ उठाया और शिक्षक का इशारा पाकर बोर्ड पर पहुंच उसे आसानी से हल कर दिया। सवाल हल करने का उनका तरीका बहुत सरल था, लेकिन पूरी कक्षा के बच्चे एक साथ बोल पड़े- यह अंग्रेजी तो बोल नहीं सकती, फिर सवाल कैसे सुलझा सकती है? उस वक्त शिक्षक ने माहा के मनोबल को थामा और बच्चों को जो जवाब दिया, वह एक भयभीत खड़ी किशोरी के लिए जीवन का सूत्र-वाक्य बन गया- ‘अगर कोई अंग्रेजी बोल नहीं सकता, तो इसका यह कतई अर्थ नहीं कि उसका दिमाग समस्याओं को सुलझा नहीं सकता।’

उस प्रोत्साहन से माहा के आत्मविश्वास को भरपूर मजबूती मिली थी। अंग्रेजी न बोलने वाले लड़के-लड़कियों पर स्थानीय सहपाठी खूब रंगभेदी फब्तियां कसते, लेकिन माहा दरगुजर कर देतीं। पिता उन्हें अक्सर कहते, हम अपनी जड़ों से उखडे़ हुए लोग हैं, अपने परिश्रम और अच्छे आचरण के सहारे हमें यहां की मिट्टी से घुलना-मिलना है। माहा को वह यह भी समझाते कि अगर कोई इल्म आपने हासिल किया है, तो उसे दूसरों से बांटो, क्योंकि इसी तरह वह जिंदा रह सकेगा।

माहा के पिता सिडनी में लेबनानी समुदाय को मान्यता दिलाने और उसके बेहतर भविष्य के लिए खूब मेहनत करते, लेकिन माहा को उस वक्त ऐसी गतिविधियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। पर बैंक्सटाउन टेक्निकल कॉलेज से ग्रेजुएट माहा को शादी और बच्चों के जन्म के बाद लगने लगा कि ऑस्ट्रेलियाई मुस्लिम महिला के रूप में अपनी पहचान बनाने के लिए उन्हें कुछ  जरूर करना चाहिए। घरेलू हिंसा और शरणार्थी मुस्लिम महिलाओं से जुड़ी खबरें उन्हें प्रेरित करती रहतीं कि वह उनके लिए कुछ करें।

अपनी किशोरावस्था में जिन मुश्किलों से वह गुजर चुकी थीं, उसे ध्यान में रखते हुए माहा बच्चियों की समस्याओं को सुनने व उनको दूर करने के लिए सन 1988 में ‘मुस्लिम वुमन्स एसोसिएशन’से जुड़ गईं। वह पहली मुस्लिम महिला हैं, जिन्होंने ऑस्ट्रेलिया में इस समुदाय के लिए ‘लीडरशिप वर्कशॉप’ का आयोजन किया। साल 1992 में उन्होंने 28 लड़कियों के साथ कार्यशाला शुरू की थी, जो दो साल में ही प्रतीक्षा सूची वाली स्थिति में पहुंच गई।

माहा को रास्ता मिल गया था। उन्होंने इस समुदाय की जरूरतों के हिसाब से संगठन के दायरे का विस्तार कराया। सिडनी के अंदर और बाहर मुसलमान औरतों की मदद के लिए, खासकर घरेलू हिंसा की शिकार सैकड़ों महिलाओं की सहायता के लिए उन्होंने कई कदम उठाए। आगे चलकर उसमें बुजुर्गों एवं नौजवानों की मदद वाले प्रकोष्ठ भी खुले। 9/11 के बाद दुनिया जब ‘इस्लामोफोबिया’ से सिहर उठी थी, तब माहा ने ऑस्ट्रेलिया में विभिन्न संस्कृतियों के बीच पुल बनाने का बड़ा काम किया।

उन्होंने ऑस्ट्रेलिया में मुस्लिम औरतों के हिजाब पहनने के हक की सफल लड़ाई भी लड़ी। आज वह विभिन्न संस्कृतियों की औरतों की सबसे मुखर आवाज हैं। न्यू साउथ वेल्स सूबे ने 2014 से उन्हें अपना मानवाधिकार दूत बना रखा है, तो सिडनी ने उन्हें 2021 की ‘अनसंग हीरो’ यानी गुमनाम नायिका चुना है।

(प्रस्तुति: चंद्रकांत सिंह, सभार हिंदुस्तान)