दो सपा कार्यकर्ताओं की गुफ्तगू दिलचस्प थी। एक बोला इस नई सपा में शिवपाल चाचा ने घर वापसी तो कर ली पर उनकी हैसियत ज़ीरो है। दूसरे ने जवाब दिया- लेकिन ये ज़ीरो ही सपा की सीटों की डिजिट वैल्यू बढ़ाएगा। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव ने समाजवादी पार्टी, मुलायम परिवार, यादव वोट बैंक, डा.राम मनोहर लोहिया के समता मूलक समाज के सिद्धांतो-आदर्शों और समाजवादी विचारधारा की ताकत का अमृत बचाने के लिए विष पी लिया, भले ही पार्टी में उनकी हैसियत ज़ीरो लग रही हो लेकिन इस ज़ीरो हैसियत ने सपा की डिजिट वैल्यू बढ़ा दी है। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी मुखिया अखिलेश यादव के पास सत्ता थी लेकिन चाचा नहीं थे इसलिए सपा डबल डिजिट में सिमट गई थी। आज चाचा साथ हैं तो संभावना जाताई जा रही है कि सपा की सीटों के नंबर बढ़ कर ट्रिपल डिजिट की हैसियत पा सकते हैं।
हाल ही की बात है, यूपी के तीसरे चरण का चुनावी प्रचार शबाब पर था। भाजपा के शीर्ष नेताओं और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के बीच तकरार के सख्त संवाद सुर्खियां बन रहे थे। इतनी में सपा की प्रचार रथ के हत्थे पर बैठे एक शख्स के उतरे हुए चेहरे की मासूमियत और मज़लूमियत भरी एक तस्वीर सभी हैडलाइंस पर हावी हो गई। सोशल मीडिया पर ये तस्वीर ट्रेंड करने लगी। देश की सबसे बड़ी सियासी ताक़त भाजपा को सीधी टक्कर देने वाले अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव की बात हो रही है। वही चाचा जो करीब 6 साल तक उस घोंसले से अलग कर दिया गए थे जिस घोंसले के तिनके जोड़ने में वो बराबर के शरीक थे।
शिवपाल यादव यदि भाजपा चले जाते तो शायद सपा आज भाजपा जैसी शक्ति को टक्कर देने की स्थिति में नहीं होती। इस बात में कोई शक नहीं कि शिवपाल के भाजपा जाने से भाजपा कम से कम दस प्रतिशत यादव वोट बैंक और सपा संगठन तोड़ लेती। और ऐसे में यूपी विधानसभा चुनाव का मुकाबला बाय पोलर न होकर भाजपा के लिए आसान होता। शिवपाल सिंह यादव की भाजपा में बहुत बड़ी हैसियत नहीं भी होती तब भी सपा से तो थोड़ी बेहतर ही होती। कम से कम एक-दो अपने वफादारों को भाजपा में टिकट दिलवाने में वो कामयाब भी हो सकते थे।
ये बात सच है कि यूपी की राजनीति के इतिहास में वफादारी के जिक्र में शिवपाल यादव को वफादार चाचा के तौर पर जाना जाएगा। जिस भतीजे को पाला-पोसा, जो भतीजा अपने पिता मुलायम सिंह और इस चाचा की राजनीति देखकर राजनीति सीखा होगा उस भतीजे को अपना नेता मानने वाला ये चाचा गैर मामूली ही माना जाएगा। यहां लालच, स्वार्थ और मजबूरी इसलिए नहीं कही जा सकती क्योंकि सपा को कमजोर करने के लिए चाचा को भाजपा ने आफर नहीं दिया हो ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन घर का सत्यता पड़ोस की कुर्सी से ज्यादा बेहतर होता है। काफी उतार चढ़ाव, विवादों और संघर्षो़ के बाद अखिलैश यादव की सदी हुई परिपक्व राजनीति की ऊंची उड़ान भरते देख एक चाचा के सुकून के एहसास को इन पंक्तियों के साथ महसूस किया जा सकता है-
छोड़कर के घोंसला उड़ने के क़ाबिल हो गया,
बेवफाओं में अब उसका नाम शामिल हो गया।
शाख़ तक जाना चहकना मैंने सिखलाया जिसे,
वो परिंदा आसमां जाने के काबिल हो गया.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)