असली चीज होती है मंशा। इस फिल्म को बनाने के पीछे मंशा क्या थी? सच को दिखाना? वह तो दिखाया नहीं। पीड़ितो की मदद करना? उन्हें तो हिन्दु मुसलमानों में बांट दिया। जो सच नहीं है। कश्मीरी पंडित फिल्म का विरोध कर रहे हैं। क्यों? क्योंकि एक तो यह सच नहीं है, उनकी पीड़ा ज्यादा बड़ी है। फिल्म इसे केवल साम्प्रदायिक बनाती है। विस्थापन के दर्द की गहराइयों को नहीं समझती।
कवि, मित्र और बाद में कश्मीरी पंडितों के लिए संघर्ष करने वाले पनुन कश्मीर के अग्निशेखर इसीलिए केन्द्र की भाजपा सरकार और खासतौर पर गृहमंत्री अमितशाह पर गुस्से में चिल्लाते हुए निशाना लगाते हैं कि इन्होंने कुछ नहीं किया। केवल बेवकूफ बनाया है। दूसरे कश्मीरी पंडित जो अभी भी कश्मीर में रह रहे हैं वे इस झूठ के कारण कि उन्हें कश्मीरी मुसलमानों ने मारा खुद को अब वहां अकेला समझ रहे हैं। तो मंशा कश्मीर फाइल्स बनाने के पीछे कश्मीरी पंडितों की दर्द की कहानी दुनिया के सामने लाने की नहीं थी। बल्कि संघ और भाजपा की उसी हिन्दु मुसलमान की राजनीति को मजबूत करना था जो वह पिछले आठ साल से कर रही है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले उसने यह करने की कोशिश नहीं की। मगर तब उसके पास मीडिया, केन्द्र सरकार और साम्प्रदायिकता के नशे में डूबे भक्त नहीं थे। इसलिए वह इसमें ज्यादा कामयाब नहीं हो पाई मगर कोशिशें पहले भी की हैं।
एक उदाहरण देते हैं। 1992 में जब तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी श्रीनगर के लाल चौक में झंडा फहराने आने वाले थे तो भाजपा ने इसके लिए देश भर में एक झूठ का माहौल तैयार किया कि श्रीनगर में तिरंगा नहीं फहराया जाता है। पाकिस्तान को तो यह बात बहुत सूट करती थी, अमेरिका को भी। तो इन लोगों ने इस प्रचार को हाथों हाथ लिया। अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में वैसे भारत की खबरों को जगह नहीं मिलती मगर कश्मीर खूब चलता है। और वह भी भारत विरोधी खबरें। उस समय हम वहीं थे। 1990 में जब पाकसमर्थित आतकंवाद शुरू हुआ, राज्यपाल जगमोहन ने जब वहां कश्मीरियों को सुरक्षा का भरोसा देने के बदले उन्हें विभाजित करना शुरू किया। माहौल बिगड़ने लगा। कश्मीर के सबसे बड़े धार्मिक नेता और भारत समर्थित माने जाने वाले मीर वाइज फारूक की ह्त्या हो गई तो जगमोहन ने उससे कश्मीर में उपजे गुस्से और दुःख को समझने के बदले उनके जनाजे पर गोलियां चलवा दीं। बड़ी तादाद में लोग मारे गए।
उस समय केवल कश्मीरी पंडित ही घाटी नहीं छोड़ रहे थे, कश्मीरी मुसलमान भी छोड़ रहे थे, रेडियो और दूरदर्शन भी श्रीनगर छोड़ रहे थे और पत्रकार भी छोड़ रहे थे। दोनों प्रमुख न्यूज एजेन्सियों पीटीआई और यूएनआई के ब्यूरो चीफ, बाकी संवाददाता वहां से जम्मू और दिल्ली आ गए। दोनों न्यूज एजेन्सियां दो भाइयों सोफी ब्रदर्स जो वहां टेलिप्रिटंर आपरेटर थे उन्होंने चलाई। और सारे खतरे उठाकर पूरे प्रोफेशनल ढंग से चलाई। वे हीरो थे। मगर उन्हें किसी ने कुछ नहीं दिया। नाम तक नहीं। तो बड़े अखबारों टाइम्स आफ इन्डिया और हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता भी वहां से आ गए। ऐसे में हम वहां जा रहे थे। नवभारत टाइम्स के लिए। लोग श्रीनगर से ट्रांसफर होकर यहां आ रहे थे और हम यहां से ट्रांसफर होकर वहां जा रहे थे। यह 1990 ही था। हालत कितने खराब थे इसे एक दो छोटी बातों से बताकर फिर भाजपा की तिरंगा यात्रा पर आते हैं।
तो जब 1990 में श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतरे तो पहली जानकारी दी गई कि अपनी रिस्टवाच का समय सही कर लीजिए। यहां पाकिस्तानी समय चलता है। दूसरी चेतावनी कि इंडियन सिगरेट मत पीजिए, यहां बैन हो गई है। ऐसी बहुत सी और इससे कई गुना ज्यादा गंभीर और खतरे में पड़ने वाली कई बातें हैं, मगर वे फिर कभी। तो कश्मीर के हालात ऐसे थे। वे किसी एक समुदाय के लिए नहीं थे। सबके लिए थे। आतंकवाद पाकिस्तान समर्थित था। और जेकेएलएफ (जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट) जिसने 1989 से आतंकवाद शुरू किया था वह भी जल्दी ही पाक समर्थित आतंकवादियों के निशाने पर आ गया था। राजनीतिक नेताओं को निकलना पड़ा था। और वहां पूरी तरह राजनीतिक शून्य हो गया था।
तो खैर 1990 से 92 तक की बहुत कहानियां हैं फिलहाल हम झूठे प्रचार की बात कर रहे हैं कि उससे भारत का कितना नुकसान हुआ। तो देश में भाजपा का यह प्रोपोगंडा कि कश्मीर में तिरंगा नहीं है, दुनिया में यह संदेश दे रहा था कि कश्मीर में भारत का प्रभुत्व खत्म हो गया है। तो हम श्रीनगर में उन सब जगहों पर गए जैसे सचिवालय, विधानसभा, राजभवन, हेड पोस्ट आफिस अन्य सरकारी दफ्तर और एक स्टोरी लिखी कि हर जगह राष्ट्रीय ध्वज शान से फहरा रहा है। यह भी लिखा कि भाजपा के जो बड़े नेता शेष भारत में गलत प्रचार कर रहे हैं उन्हें यहां आकर खुद अपनी आंखों से देखना चाहिए। इसके छपते ही तहलका मच गया। पूरी स्टोरी फैक्ट पर आधारित थी। विदेशी मीडिया जो अभी तक भारत का कश्मीर पर नियंत्रण कमजोर चला रहा था। उसने हमसे बाइट, इटंरव्यू मांगे। कश्मीर जाने के बाद से हमने बीबीसी सहित दूसरे विदेशी मीडिया के लिए काम करना बंद कर दिया था। हालांकि वह बहुत पैसा बहुत देते थे। और 1990 में श्रीनगर जाने से पहले उनसे यहां के मामलों में बात करने से हमें विदेशी मुद्रा के खूब चैक मिलते थे। जो भारतीय रूपयों में कन्वर्ट होकर इतने सारे हो जाते थे कि रोज पार्टियां होती थीं। तो खैर वहां कश्मीर में उन सारे मीडिया का रूख थोड़ा भारत विरोधी होता था। हमें उन्हें मना करना पड़ा कि अब हम आपके लिए काम नहीं कर पाएंगे। मगर जब यह तिरंगे का सवाल आया तो हमने सबसे बात की। और यह बात सब जगह पहुंची कि कश्मीर में भारत का झंडा लहरा रहा है।
मगर भाजपा के दोस्तों को यह पंसद नहीं आई। मदनलाल खुराना उन दिनों जम्मू कश्मीर के इन्चार्ज थे। उनकी सक्रियता के तो क्या कहने। फौरन वहां आए। साथ में शत्रुघ्न सिन्हा को लाए। हंसते हुए बोले यह क्या लिख रहे हैं। और विदेशी मीडिया को इंटरव्यू भी दे रहे हैं। हमने भी हंसते हुए कहा कि भारत की शान बढ़ा रहे हैं। चलिये देख लीजिए तिरंगे की शान। ऐसी बातों पर उनका एक ही जवाब होता था। जोरदार अट्टाहास। बोले फोटो खिचंवाइए। और वह ऐतिहासिक फोटो अभी भी हमारे पास है, जिसे खुरानाजी ने हमें अपने और शत्रु के बीच में खड़ा करके खिचंवाया।
तो मंशा तिरंगे की शान नहीं थी। तो हासिल कुछ नहीं किया। दुनिया में भारत की छवि का नुकसान किया। ऐसे ही इस फिल्म से और खुद प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस फिल्म के प्रचार से हासिल कुछ नहीं होगा। लेकिन दुनिया में यह मैसेज जाएगा कि कश्मीर में लोग एक नहीं हैं, धार्मिक आधार पर विभाजित और लड़ते हुए हैं।
32 साल से यह झूठ नहीं चल पाया। जबकि पाकिस्तान ने यूएन से लेकर हर अन्तरराष्ट्रीय मंच पर इसे उठाया। भाजपा के ही एक दूसरे रहे प्रधानमंत्री वाजपेयी इसका जवाब देने यूएन गए थे। कांग्रेस सरकार ने ही उन्हें भेजा था। तब कश्मीर का मतलब देश की शान होता था। उसमें राजनीति नहीं होती थी। मगर अब सरकार कह रही है कि 32 साल यह सच छुपा रहा और फिल्म सामने लाई।
यह देश के लिए दुर्भाग्य की बात है। विदेशी अपने भारत विरोधी रवैये के कारण यह आरोप लगाते थे कि भारत ने यहां आयरन कर्टन (लोहे का पर्दा) डाल रखा है। अब ठीक यही बात हमारी ही सरकार कह रही है। विदेशियों को गलत साबित करने के लिए उस समय 1994- 95 में विदेशी राजदूतों को कश्मीर घुमाया गया। अन्तरराष्ट्रीय प्रेस को जहां वे चाहें जाने दिया गया। भारत की प्रेस तो जाती ही थी सब देखती ही थी। भाजपा का हर नेता वाजपेयी, आडवानी, मोदी जो खुद जोशी की तिरंगा यात्रा के साथ थे, वहां आए। प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री डा. जितेन्द्र सिंह जो उस समय डाक्टरी के अलावा मशहूर कालमिस्ट थे, वे और हम तो 1996 के विधानसभा चुनाव के नतीजों की चर्चा के लिए श्रीनगर में दूरदर्शन पर साथ थे। तब प्राइवेट चैनल नहीं थे। दूरदर्शन पर तीन चार दिन लगातार कामेन्ट्री करते रहे।
बाद में वाजपेयी पांच साल से ज्यादा पीएम रहे। आठ साल मोदी को हो रहे हैं। राज्य के पांचों सीएम फारूख, उमर, मुफ्ती, महबूबा और आजाद के साथ भाजपा के संबंध रहे। सरकार में शामिल रहे। तो इतने के बावजूद सच छुपा रहा। और एक फिल्म बनाने वाले को पता चल गया?
दुनिया फिर हंस रही है हम पर! 1992 में भाजपा विपक्ष में थी तो ऐसा मौका दिया और आज सत्ता में है तो फिर ऐसा मौका दे रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)