जब देश की जनता आपको महान समझ रही हो, तब आपको जनता का भरम रखते हुए ‘गाली, गोली, गद्दार, और गोडसे’ पर नहीं उतरना चाहिए। अहम यह नहीं है कि आप जीत रही है, अहम यह भी नहीं कि बीजेपी हार रही है, सबसे अहम यह है कि हमारा पीएम उस स्तर तक गया क्यों, जहां कुछ हासिल नहीं होता? लोकतंत्र में सबसे दुखद होता है लोकतंत्र और संसदीय परंपरा की अवमानना। अटल-आडवाणी की जोड़ी ने साम्प्रदायिकता को हथियार बनाकर भी यह परंपरा थोड़ी बहुत निभाई थी। मोदी जी ने इसे ढहा दिया।
एक छोटी सा केंद्र शासित प्रदेश, जिसका अहम हिस्सा केंद्र के नियंत्रण में है, उसे जितने के लिए समूची सरकार ने अपनी गरिमा दांव पर लगा दी, अपशब्द कहे, अभद्रता की और चुनाव भी हार गए। माया मिली न राम। यह देखना सबसे दुखद कि प्रधानमंत्री के पद की गरिमा प्रधानमंत्री के आचार-विचार और आचरण से हार गई! असली नुकसान यह हुआ।
लेकिन भाजपा को कौन समझाए
आज के दिन कम से कम बीजेपी प्रवक्ता अब भी यह संकेत दे रहे हैं कि उनके पास एक घृणित किस्म की नफरत और सांप्रदायिकता के सिवा जनता के लिए कुछ नहीं है. दिल्ली के चुनाव में यह साबित हुआ है कि सामने कोई ऐसा सांप्रदायिक पक्ष नहीं है, फिर भी वे एकतरफा गंदगी पर उतर सकते हैं. दिल्ली इसका चरम था.
अब यह बाकी देश की जनता पर निर्भर है कि वह भाजपा को सही राजनीति की ओर आने पर मजबूर करेगी, या समाज के विभाजन में भाजपा का साथ देगी. देश में करोड़ों लोग अब भी गरीबी रेखा के नीचे हैं. देश में दुनिया के सबसे ज्यादा युवा हैं जो बेरोजगार हैं. देश में दस से पंद्रह हजार किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं.
चिंता यह होनी चाहिए कि आज बीजेपी की सरकार है या नहीं, चिंता की बात यह है कि गांव गांव तक जनता को विभाजित करने और उसे सांप्रदायिक बनाने का दूरगामी असर विध्वंसक हो सकता है. उम्मीद कीजिए कि पांच दशक की ऐतिहासिक चरम बेरोजगारी से जूझ रही जनता भाजपा को यह बताएगी कि भाजपा जो कर रही है, असल में वही देश के खिलाफ है. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हमारा देश बुद्ध, गांधी, अंबेडकर और भगत सिंह को नहीं भूलेगा. वह बराबरी, प्रेम, लोकतंत्र और कानून के शासन को अपनी ताकत बनाएगा.
(लेखक युवा पत्रकार एंव कहानीकार हैं)