ज़ाहिद ख़ान
उर्दू अदब, ख़ास तौर से उर्दू अफ़साने को जितना कृश्न चंदर ने दिया, उतना शायद ही किसी दूसरे अदीब ने दिया हो। उन्होंने बेशुमार लिखा, हिंदी और उर्दू दोनों ही ज़बानों में समान अधिकार के साथ लिखा। कृश्न चंदर की ज़िंदगी के ऊपर तरक़्क़ीपसंद तहरीक का सबसे ज़्यादा असर पड़ा। यह अकारण नहीं है कि उनके ज़्यादातर अफ़साने समाजवाद से प्रेरित हैं। वे एक प्रतिबद्ध लेखक थे। उनके सम्पूर्ण साहित्यिक लेखन को उठाकर देख लीजिए, उसमें हमेशा एक उद्देश्य, एक विचार मिलता है। किसी उद्देश्य के बिना उनकी कोई रचना पूरी नहीं होती थी। कृश्न चंदर ने अपनी कलम के ज़रिये हमेशा दीन-दुखियारों के दुःख-दर्द, उम्मीदों-नाकामियों की बात की। साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता पर प्रहार किए। अपनी नौजवानी के दिनों में कृश्न चंदर ने सियासत में भी हिस्सा लिया। वे बाक़ायदा सोशलिस्ट पार्टी के मेंबर भी रहे। इस बात का बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि मुल्क की आज़ादी की तहरीक में वे एक बार शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के साथ गिरफ़्तार हो, ज़ेल भी गए थे। बंटवारे के बाद कृश्न चंदर लाहौर से हिंदुस्तान आ गए। बंटवारे के बाद मिली आज़ादी को कृश्न चंदर हमेशा त्रासद आज़ादी मानते रहे और उसी की नुक्ता-ए-नज़र में उन्होंने अपनी कई कहानियां और रचनाएं लिखीं। उनकी कहानी ‘पेशावर एक्सप्रेस’ भारत-पाक बंटवारे की दर्दनाक दास्तां को बयां करती है। इस कहानी में उन्होंने बड़े ही ख़ूबसूरती से इस ख़याल को पिरोया है,‘‘कब आदमी के भीतर का शैतान जाग उठता है और इंसान मर जाता है।’’ देश के बंटवारे के कुछ दिन बाद ही उन्होंने एक और बंटवारा देखा। साल 1948 में भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर का बंटवारा। कश्मीर के बंटवारे ने उन्हें इस मुद्दे पर अपना पहला उपन्यास ‘शिकस्त’ लिखने के लिए प्रेरित किया।
कृश्न चंदर ने कहानियां, उपन्यास, व्यंग्य लेख और नाटक यानी साहित्य की सभी विधाओं में ख़ूब काम किया। मगर उनकी मुख्य पहचान कहानीकार के तौर पर ही बनी। दूसरी आलमी जंग के दौरान बंगाल में पड़े भीषण अकाल पर लिखी ‘अन्नदाता’ कृश्न चंदर की कालजयी कहानी है। इस कहानी के लिखने के साथ ही उर्दू अदब में उनकी पहचान एक तरक़्क़ीपसंद अफ़साना निगार के रूप में होने लगी थी। ‘अन्नदाता’ का अंग्रेजी ज़बान में भी तर्जुमा हुआ। जो कि हिंदी से भी ज़्यादा मक़बूल हुआ। इस कहानी के साथ ही कृश्न चंदर अंतरराष्ट्रीय अदबी दुनिया में एक बेहतरीन अफ़साना निगार के तौर पर तस्लीम कर लिए गए। ‘अन्नदाता’ के बाद उन्होंने कई शाहकार अफ़साने लिखे। ‘गड्डा’, ‘दानी’, ‘पूरे चांद की रात’, ‘आधे घंटे का ख़ुदा’ जैसी उनकी कई दूसरी कहानियां भी उर्दू अदब में क्लासिक मानी जाती हैं। कृश्न चंदर की ज़्यादातर कहानियां ऐसे इंसानों पर केन्द्रित हैं, जिनको दूसरे लोग आम तौर पर नोटिस भी नहीं करते। मसलन कहानी ‘कालू भंगी’ में वे बड़े ही मार्मिकता से समाज में सबसे ज्यादा हाशिए पर रहने वाले दलित समुदाय के एक शख़्स ‘कालू’ की ज़िंदगी की दर्दनाक दास्तां को बयां करते है। कृश्न चंदर में हर इंसान को बराबरी और सम्मान देने का एक अद्भुत गुण था। उन्होंने अपनी कहानियों में व्यवस्था पर भी तीखे प्रहार किए। लालफ़ीताशाही और अफ़सरशाही ने देश की व्यवस्था को कैसे चौपट किया है?, यह उनकी कहानी ‘जामुन का पेड़’ में दिलचस्प तरीके से आया है। व्यंग्यात्मक शैली में लिखी गई यह कहानी सरकारी महकमों की कार्यशैली, अफ़सरों के काम करने के तौर-तरीकों और लाल फ़ीताशाही पर गंभीर सवाल उठाती है।
उर्दू कथा साहित्य को कृश्न चंदर ने बहुत कुछ दिया। उन्होंने उर्दू कहानी को किसान-मज़दूर आंदोलन से बाबस्ता किया और उसमें जन संघर्षों को अभिव्यक्ति देने की ताक़त पैदा की। मशहूर शायर फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपनी किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ में कृश्न चंदर की कहानी कला का विश्लेषण करते हुए लिखा है,‘‘कृश्न चंदर की कला की दो विशेषताएं हैं-एक तो उनकी सार्वभौमिक दृष्टि और जागरूक बौद्धिकता। दूसरी उनकी विशिष्ट टेकनीक। जहां तक जागरूक बौद्धिकता का प्रश्न है, कृश्न चंदर को कथा क्षेत्र में वही स्थान प्राप्त है, जो अली सरदार जाफ़री को काव्य क्षेत्र में। उनकी कहानियों की सर्जनात्मक दृष्टि विशाल भी है और स्पष्ट भी। वे जागरूक समाजवादी हैं। साथ ही उनका परिप्रेक्ष्य भी इतना विस्तृत है, जितना और किसी कथाकार का नहीं हुआ। वे कश्मीर के खच्चरवालों का भी उतना ही सजीव वर्णन करते हैं, जितना बंगाल के अकाल पीड़ितों और तेलंगाना के विद्रोही किसानों का। बंबई के फिल्म आर्केस्ट्राओं के दयनीय जीवन का भी विस्तृत चित्रण उन्होंने किया है। और बर्मा के मोर्चे पर लड़ते हुए अमेरिकी सैनिकों तथा कोरियाई युद्ध में आहुति देती हुई वीरांगनाओं का भी। किन्तु अपनी लगभग हर कहानी में सामाजिक क्रांति की आवश्यकता, बल्कि समाजवादी क्रांति की आवश्यकता चिल्ला-चिल्ला कर बोलती दिखाई देती है।’’
कृश्न चंदर की किताबों के अनुवाद भारतीय भाषाओं के अलावा दुनिया की प्रमुख भाषाओं में भी हुए। मसलन अंग्रेजी, रूसी, चीनी, चेक, पोलिश, हंगेरियन आदि। उन्होने रेडियो नाटक और फ़िल्मी पटकथाएं भी लिखीं। बंगाल के अकाल पर उन्होंने ‘अन्नदाता’ कहानी के अलावा दिल को छू लेने वाला एक नाटक, ‘भूखा बंगाल’ भी लिखा। जिसे इप्टा ने उस वक्त पूरे देश में खेला। कहानियों की तरह कृश्न चंदर के उपन्यास भी ख़ासे चर्चित रहे। ख़ास तौर पर ‘एक गधे की आत्मकथा’। इस उपन्यास में उन्होंने देश के तत्कालीन सियासी और समाजी सिस्टम को बड़े ही व्यंग्यात्मक शैली में चित्रित किया है। वहीं उनका छोटा सा उपन्यास ‘एक गधा नेफ़ा में’ साल 1962 में भारत-चीन के बीच हुई जंग के पसमंज़र में लिखा गया है। अकेले अदबी ऐतबार से ही नहीं, बल्कि प्रमाणिक इतिहास के तौर पर भी इसकी काफ़ी अहमियत है। तंज़ो-मिज़ाह (हास्य-व्यंग्य) की शैली में लिखा गया, यह उपन्यास कभी पाठकों के दिल को आहिस्तगी से गुदगुदाता है, तो कभी उसे सोचने को मजबूर कर देता है। चीन की साम्राज्यवादी और धोखा देने वाली फ़ितरत को कृश्न चंदर ने बड़े ही ख़ूबसूरती से उजागर किया है। साल 1964 में लिखे गए इस उपन्यास की सारी बातें, 58 साल बाद भी चीन की फितरत पर सटीक बैठती हैं। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद, चीन और उसके हुक्मरानों के असली किरदार को अच्छी तरह से जाना-समझा जा सकता है।
कृश्न चंदर उन मुट्ठी भर साहित्यिक दिग्गजों में से एक थे, जिन्होंने भारतीय फ़िल्म उद्योग को अपनी प्रतिभा से सजाया, संवारा। उन्होंने तक़रीबन दो दर्जन फ़िल्मों के लिए पटकथा और संवाद लिखे। इनमें से ‘धरती के लाल’, ‘आंदोलन’, ‘एक दो तीन’, ‘ममता’, ‘मनचली’, ‘शराफ़त’, ‘दो चोर’ और ‘हमराही’ जैसी फ़िल्मों को बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाबी मिली। कृश्न चंदर को अपने जीवन में कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया। उनकी अनगिनत साहित्यिक उपलब्धियों को स्वीकार करते हुए भारत सरकार ने भी उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। कृश्न चंदर का नाम उन साहित्यकारों में शुमार होता है, जिन्हें सोवियत संघ के प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ से नवाज़ा गया। 8 मार्च, 1977 को मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। कृश्न चंदर ताउम्र प्रगतिशील, मानवतावादी रहे। उनका बेश्तर लेखन हिंदू-मुस्लिम अलगाववाद के ख़िलाफ़ है। समाज के दलित, दमित, शोषित वर्गों के हक़ में उनकी कलम हमेशा आग उगलती रही। अपने भावपूर्ण लेखन, ज़मीन से जुड़े किरदारों और सर्वहारा के मार्मिक-सजीव चित्रण की ख़ातिर कृश्न चंदर अपने पाठकों के दिलों में हमेशा ज़िंदा रहेंगे।
(लेखक जाने-माने पत्रकार एंव स्तंभकार हैं, वे मशहूर किताब तरक़्की पसंद तहरीक की रहगुजर के भी लेखक हैं)