जुलाई 2019 की बात है। भारत सरकार कश्मीर से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 में बदलाव की तैयारी कर रही थी। ज़ाहिर है कश्मीर में इसका विरोध होना था सो राज्य में सैन्य बलों की संख्या अचानक बढ़ा दी गई। कश्मीरी पत्रकार क़ाज़ी शिबली इन सब घटनाओं पर न सिर्फ नज़र बनाए हुए थे बल्कि अपने प्रकाशन द कश्मीरियत में इस सबसे जुड़ी ख़बरें भी प्रसारित कर रहे थे। फिर अचानक एक दिन यह सब बंद हो गया।
27 जुलाई 2019 को पुलिस ने क़ाज़ी शिबली को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। उन्होंने जम्मू कश्मीर में अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती पर सवाल उठाए थे जिसे सरकार ने राज्य की सुरक्षा के लिए ख़तरा माना और फिर पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) के तहत जेल में डाल दिया। तब तक कश्मीर में पीएसए के तहत गिरफ्तारियां ऐसी आम न थीं लेकिन क़ाज़ी शिबली के बाद कई और पत्रकार इस क़ानून के तहत बिना किसी ट्रायल के महीनों, महीनों तक जेल में रखे गए। ख़ुद क़ाज़ी शिबली को जेल से बाहर आने में तक़रीबन नौ महीने लग गए। इस दौरान उनकी रिहाई के लिए तमान राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने आवाज़ बुलंद की।
अप्रैल 2020 में श्रीनगर की फोटो जर्नलिस्ट मसर्रत ज़ैहरा के ख़िलाफ आतंकवाद निरोधी क़ानून यूएपीए के तहत प्राथमिकी दर्ज कराई गई। उनपर आरोप लगा कि वह सोशल मीडिया पर राष्ट्र विरोधी पोस्ट करके युवाओं के भड़का रही हैं। हालांकि मसर्रत का कहना था कि उन्होंने सिर्फ कश्मीर में अलग-अलग जगहों पर क्लिक किए अपने कुछ फोटो अपलोड किए थे। मसर्रत के ख़िलाफ यूएपीए के तहत एफआईआर के तमाम पत्रकार संगठनों ने निंदा की लेकिन सरकार पर इससे कोई फर्क़ नही पड़ा। मज़े की बात है कि एक पुलिस एन्काउंटर से जुड़े उनके फोटो प्रकाशित होने के बाद राज्य के अलगाववादी तत्वों ने मसर्रत पर पुलिस के लिए मुख़बिरी करने के आरोप लगाए थे।
ख़ैर, यह दो उदाहरण अंदाज़ा लगाने के लिए काफी हैं कि कश्मीर में रिपोर्टिंग करना कितना मुश्किल। राज्य के विघटन और केंद्र शासित प्रांत का दर्जा होने के बाद से प्रेस की आज़ादी और पत्रकारों के अधिकार जैसी बातें ख़्वाब सरीखी हो गई हैं। हालांकि कश्मीर में प्रेस की आज़ादी 5 अगस्त, 2019 से पहले भी चर्चा का मुद्दा रही है। आज़ादी के बाद से राज्य विशेष परिस्थितियों की वजह से विशेष क़ानूनों के तहत शासित रहा है लेकिन हाल के वर्ष पत्रकारों के लिए नई-नई मुसीबतें लेकर आए हैं। न सिर्फ ख़बरों तक पत्रकारों की पहुंच बेहद मुश्किल हुई है बल्कि सरकारी प्रेस विज्ञप्ति से आगे ख़बरों का सफर तक़रीबन थम सा गया है।
कश्मीर में काम कर रहे पत्रकार तक़रीबन पूरी तरह सरकारी विज्ञप्तियों और अधिकारियों के बयानों पर निर्भर हैं। चूंकि कश्मीर में सरकार के गठन की प्रक्रिया अभी औपचारिक तौर पर शुरु नहीं हुई है तो अधिकारी ही तय कर रहे हैं कि आज़ादी की हद कहां से शुरु होकर कहां ख़त्म होती है। आज़ादी इतनी ही है कि सरकारी विज्ञप्ति छाप दी जाए। उसमें बदलाव या अपना मत दर्शाने की जुर्रत शायद ही किसी पत्रकार में बची हो। हालांकि हालात देश के बाक़ी हिस्सों में भी मीडिया के लिए पहले जैसे नहीं हैं, लेकिन कश्मीरी पत्रकार होना इन दिनों आसान नहीं है।
जम्मू कश्मीर में 2020 मे जारी की गई मीडिया नीति अपने आपमें अहम दस्तावेज़ बन चुका है। हालांकि इसके ख़िलाफ इक्का दुक्का विरोध प्रदर्शन भी हुए लेकिन आख़िर में कश्मीरी पत्रकारों ने इसे अपनी नीयति मान लिया। इस नीति के तहत सरकार के पास प्रिंट, टीवी या न्यूज पोर्टल पर जाने वाली हर ख़बर के छपने से पहले पड़ताल का अधिकार है। किसी दूसरे अख़बार या पोर्टल से ख़बर उठाने पर मान्यता छीन लिए जाने का प्रावधान है। न सिर्फ ख़बर, बल्कि सरकार अगर किसी राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन या संस्था के विज्ञापन को भड़काने या उकसाने वाला मान ले तो इसकी जवाबदेही भी मीडिया संस्थान की है।
इतना ही नहीं जम्मू कश्मीर में प्रेस कान्फ्रेंस आयोजित करने से लेकर उसके कवर करने तक के लिए नियम निर्धारित हैं। देश के बाक़ी हिस्सों में पत्रकार अभी ऐसे नियमों के बीच काम करने के आदी नहीं हैं। ज़ाहिर है इस सबके पीछे जम्मू कश्मीर के हालात और वहां सुरक्षा से जुड़ी विशेष परिस्थितियां हैं। राज्य की सुरक्षा से जुड़े मसलों, राष्ट्र विरोधी तत्वों को मीडिया में जगह पाने जैसे मसलों पर निगरानी का विरोध कोई करेगा भी नहीं लेकिन जिस तरह आज़ादी की सीमा तय की जा रही है, उसी तरह अधिकारों का भी तो कोई दायरा हो।
जिस तरह की एकतरफ कार्रवाई पत्रकारों के ख़िलाफ 2019 के बाद बढ़ी हैं वह चिंता का विषय हैं। लोग सवाल कर सकते हैं कि दिल्ली और श्रीनगर अलग हैं लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है? हाल ही में जिस तरह न्यूज़ वेबसाइट्स पर लग़ाम लगाने की कोशिशें हुई हैं और पत्रकारों की मान्यता से जुड़े नियम और शर्तें जारी हुए हैं वह धीरे-धीरे महज़ आहट है। पिछले कुछ वर्षों में देश भर में पत्रकारों की काम करने की आज़ादी, ख़बरों तक उनकी पहुंच और स्रोत बनाने की उनकी चाहत कमज़ोर पड़ी हैं। ज़ाहिर है सरकार एक टेम्पलेट पूरे देश में धीरे-धीरे लागू कर रही है।
आज़ादी कितनी और अधिकार कितने की बहस कश्मीर में लागू होती ही नहीं। जिस तरह बिना कारण बताए वहां पत्रकारों की गिरफ्तारियां हुई हैं और बिना ट्रायल उनको जेल में वक़्त गुज़ारना पड़ा है वह हम सबके लिए चिंता की वजह होनी चाहिए। क्राइम रिपोर्टिंग के दौरान पुलिस की कहानी को सत्य दिखाने या बताने की कला में महारत हासिल करने के दौरान हमने देखा है कि प्रशासन या पुलिस के असीमित अधिकार किस हद तक जा सकते हैं। पुलिस की कहानी में जेल गए कश्मीरी पत्रकारों का चित्रण कम फिल्मी नहीं है। हर गिरफ्तारी को सही साबित करने के लिए एक कहानी बताई गई है और हमसे उसपर यक़ीन करने को कहा गया है।
इन कहानियों में फोटो जर्नलिस्ट कामरान यूसुफ पत्थरबाज़ हैं, कश्मीर नैरेटर के आसिफ सुल्तान आतंकियों की सहायता करते हैं। पीरज़ादा आशिक सरकार की रज़ामंदी के बिना ख़बर लिखने के दोषी हैं, और गौहर जीलानी सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखने के। इसी तरह फहद शाह, सज्जाद गुल, हिलाल मीर, शाह अब्बास, अज़हर क़ादरी जैसे जाने कितने नाम हैं जिनसे जुड़ी एक न एक कहानी ज़रूर है। इनमें से कई आज तक नहीं जानते कि वह आख़िर पुलिस की कहानी का हिस्सा क्यों बने।
अब सवाल यह है कि हम क्या कर सकते हैं। बतौर पत्रकार हम कम से कम दूसरे पत्रकार के साथ मानवीय सलूक की मांग तो कर ही सकते हैं। हम इतना तो कह ही सकते हैं कि आज़ादी के सीमित दायरे के बीच सिमट आए हमारे अधिकारों का अतिक्रमण करने की आज़ादी किसी पुलिसिया या प्रशासनिक अधिकारी को न हो। बतौर नागरिक इतना संवैधानिक अधिकार तो हमें हासिल है कि हम लोग बिना जायज़ कारण के पत्रकारों के जायज़ अधिकारों का हनन करने वाले अधिकारियों की जवाबदेही तय करने की मांग कर सकें।