जयपुर/चूरू: गत दिनों राजस्थान के चूरू जिले के साहवा कस्बे के पास एक गरीब मजदूर यासीन खां ने नहर में डूबती हुई गाय को बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी। डूबती गाय को बचाने नहर में उतरे यासीन खां ने गाय को तो बचा लिया, लेकिन खुद रस्सी छूटने से डूब गया और शहीद हो गया। यासीन खां की यह शहादत बहुत बड़ा सन्देश देती है, उस माहौल को पैदा करने के बीच जहाँ नफ़रत ही सत्ता प्राप्त करने का उत्तम औजार है। गौ हत्या के नाम पर देश में पिछले एक दशक में कई बेगुनाह लोगों को नफ़रती आतंकी गैंग ने मौत के घाट उतार दिया। गाय को बचाने के लिए हुई यह दुखद घटना सोशल मीडिया पर छाई रही। लेकिन मुख्य मीडिया और नेताओं के ट्वीट ने इस शहादत को कोई खास तवज्जोह नहीं दी। जो बहुत अफ़सोस की बात है।
कच्चे घर में रहने वाले खेतिहर मजदूर यासीन खां की यह शहादत नफ़रत के जरिए सत्ता सिंहासन के महलों में विराजे राजनेताओं और नफ़रत के जरिए भावी नेता बनने का घिनौना प्रयास कर रहे लोगों के लिए बहुत बड़ा सन्देश है। क्योंकि यासीन खां गरीब मजदूर होकर भी डूबती गाय को खुद की जान क़ुरबान कर बचा लेता है, लेकिन तथाकथित राष्ट्र भक्त और नफ़रती सियासत के ध्वजवाहक लोग अपने सत्ता स्वार्थ के लिए नफ़रत की आग में बेगुनाह लोगों को झौंक देते हैं, उनका जीवन व घर परिवार सब कुछ बरबाद कर देते हैं।
जब यासीन खां की यह शहादत हुई उन्हीं दिनों राजस्थान के करौली शहर में कर्फ्यू लगाना पड़ा। क्योंकि भारतीय नव वर्ष के उपलक्ष्य में यहाँ एक शौभा यात्रा निकाली गई, जिसमें फसाद हो गया। इस फसाद में दर्जनों लोग घायल हो गए और कई दुकानें जला दी गई। शौभा यात्रा व धार्मिक यात्रा बहुत ही अच्छे शब्द हैं, जो इन्सान को इन्सान से जोड़ते हैं और दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने का सन्देश देते हैं। सदियों से हमारे देश में शौभा यात्राएं व धार्मिक यात्राएं निकाली जाती हैं, हर वर्ग का आदमी इनमें शरीक होता है। इतिहास में ऐसा न के बराबर मिलता है कि ऐसी शौभा व धार्मिक यात्राओं में कभी कोई फसाद हुआ हो और एक हंसती खेलती बस्ती को तबाह कर दिया गया हो। पिछले तीन दशक में शौभा यात्राओं व धार्मिक यात्राओं के नाम पर देश में फसाद बढे हैं। जिसका मुख्य कारण नफ़रत के जरिए सत्ता प्राप्त करने का लालच और समाज में एक दूसरे वर्ग के बीच भाईचारे की कमजोरी व नफ़रती माहौल को प्रोत्साहन है।
आप जरा सोचिए कि शौभा यात्रा व धार्मिक यात्रा में किसी वर्ग को टारगेट कर नफ़रती नारे लगाए जाएंगे और डीजे पर नफ़रती गाने बजाए जाएंगे, तो फिर क्या होगा ? फिर लोग न एक दूसरे के गले मिलेंगे और ना ही एक दूसरे को बधाई देते हुए फूल बरसाएंगे, फिर फसाद ही होगा तथा यह फसाद सभी के लिए नुकसानदेह होता है। आज देश में बेरोजगारी व महंगाई विकराल रूप धारण करती जा रही है, युवा पीढ़ी सोशल मीडिया पर परोसी जा रही नफ़रत में पागल होती जा रही है। साथ ही चीन व पाकिस्तान जैसे देश हमारे देश को कमजोर करने का लगातार षडयंत्र करते रहते हैं। ऐसी विकट परिस्थिति में देश में नफ़रत का बढ़ता माहौल कोई शुभ संकेत नहीं है। यह नफ़रती माहौल देश की एकता व अखण्डता के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित हो सकता है।
इतिहास में जिन राष्ट्र-राज्यों में धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, नस्ल आदि के नाम पर ध्रुवीकरण हुआ है और उनमें दो वर्गों के बीच एक नफ़रत की दीवार खड़ी की गई है, वहां नफ़रत ने अपना ताण्डव दिखाया है और वे बरबाद हुए हैं। इस मुद्दे पर पिछले 100 साल का ही इतिहास देख लें तो बहुत डरावना है। 1947 में हमारे विशाल देश के तीन टुकड़े हुए, करीब 25 लाख बेगुनाह लोग मारे गए, करोड़ों लोग अपने ही मुल्क में शरणार्थी बना दिए गए। फिर 1971 में इसी नफ़रत ने पूर्वी पाकिस्तान में ताण्डव मचाया और बांग्लादेश बना, लेकिन इस ताण्डव में 30 लाख बेगुनाह लोग मारे गए और असंख्य लोगों को भारत में शरण लेनी पड़ी। इसलिए नफ़रत किसी के हित में नहीं है और एक दूसरे का सम्मान व सम्मानजनक सह अस्तित्व सबके हित में है।
(सभार इक़रा पत्रिका)