नवेद शिकोह
दिल्ली मे अरविंद केजरीवाल की सरकार थी लेकिन दिल्ली दंगों को हवा देने के आरोपी कपिल मिश्रा बच गये। लेकिन मुंबई में ग़ैर भाजपा महाराष्ट्र सरकार को चुनौती देने वाले पत्रकार अर्नब गोस्वामी को वहां की सरकार ने शिकंजे मे फंसा दिया। अब यातनाएं झेल रहे अर्नब की मदद के लिए केंद्र की शक्तिशाली भाजपा सरकार अपनी ताकत नहीं झोंक रही है। सिर्फ बयानबाजी से कुछ नही होने वाला।
ये सब बातें ज़हन मे क्यों आईं ! बेइज्जत हो रहे, पिट रहे और सलाखों के पीछे बिलबिला रहे एक नामीगिरामी टीवी जर्नलिस्ट की यातनाएँ अब बर्दाशत नहीं हो रही हैं। मनोविज्ञान काम कर रहा है। खुद को निरपेक्ष, निष्पक्ष, सत्यता और नैतिकता का साथ देने वाले शख्स के अंदर पेशावाद असर दिखाने लगा है। आप जितने भी निरपेक्ष हों लेकिन आपके अंदर कहीं ना कहीं वाद का वायरस छिपा होगा। जो मौका पाकर कभी उभर आयेगा। कुलबुलायेगा। अपनी मौजूदगी ज़ाहिर करेगा। जातिवाद, धर्मवाद, क्षेत्रवाद, लिंगवाद, क्षेत्रवाद, नगरवाद, गांववाद, प्रांतवाद और राष्ट्रवाद की तरह पेशावाद भी आपके अंदर होता है। जो अपने हमपेशा किसी गंभीर आरोपी के प्रति भी हमदर्दी का जज्बा पैदा कर देता है।
तमाम आम लोगों और पत्रकारों की तरह मैं भी अर्नब गोस्वामी को नापसंद करता हूं। मैंने पिछले एक वर्ष के दौरान अर्नब गोस्वामी की आलोचना वाले दर्जनभर लेख लिखे हैं। लेकिन अब उसकी दुर्दशा देख उससे हमदर्दी हो रही है। शायद हमारे अंदर पेशावाद असर दिखा रहा है। अफसोस और अर्नब की फिक्र में दिमाग मे चले उधेड़बुन ने एक विश्लेषण को जन्म दिया। वो ये कि- भाजपा के अंदर एक बड़ी खूबी है। ये पार्टी उन गिरगिटों को इतना मुंह नहीं लगाती जितना ये महा चाटूकार अपेक्षा करते थे। अपने समर्थकों और प्रत्यक्ष कार्यकर्ताओं का ख्याल रखना अलग बात है लेकिन जिसकी सत्ता उसका राग अलापने वाले राष्ट्रीय चमचों को भाजपा सरकारें नजरअंदाज करती रही है। प्रशंसा करके सर भी फोड़ दें और भाजपा विरोधियों का कालर भी पकड़ लें तब भी भाजपा सरकारें ऐसे महा गिरगिटों की तरफ से मुंह मोड़ लेती है।
शायद भाजपा की ये पॉलिसी है कि आपको हमारे पॉलिटिकल एजेंडे पर काम करना है तो पार्टी ज्वाइन करके काम कीजिए। ऐसे में आप हमारे एजेंडे के लिए कोई भी रिस्क लेंगे तो सत्ता का सहयोग ज़रूर मिलेगा। उदाहरण के तौर पर- कपिल मिश्रा। जो अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा से बिना जुड़े काम कर कर रहे थे उनमें दो उदाहरण क़ाबिले ग़ोर ह़ैं- अमर सिंह अपने जीवन काल के अंतिम दशक में अपनी नई राजनीति पहचान के लिए भाजपा की तारीफ करते-करते मर गये। भाजपा ने उनको कुछ नहीं दिया। दूसरा उदाहरण- अब अर्नब पर ग़ौर कीजिए। बताने की ज़रुरत नहीं। आप सब देख रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)